प्रसिद्ध इतिहासज्ञ गर्र्नभ्रेएट म्यूजियम अजमेर के पयुरेटर राय- महादुर महामहोपाध्याय पंडित यौरीशेकरजी ओझा, रोहिदा ( राज्य तिरोही ) निवासी का माननीय पत्र । अजमेर तारीख १६-८-१६३३,
ओमान परम अद्वेय शी जरपंतबिजयजी महा-
राज के चरणसरोज में सेवक गौरीशंकर होराचंद
ओभा का दंडवत् प्रणाम -अपर,ण आपका कृपा पत्र
ता० १०-८-१६३३ का मिला आपने बड़ी कृपा कर आपके
«आयू! नाप्तक पुस्तक का प्रथम भाग भदान किया जिसके लिए अनेक धन्यवाद हैं ।
आपका ग्रन्थ जैन समुदाय के लिए ही नहीं किन्तु | इतिदास प्रेमियों के लिए भी बड़े मदत्च का है। आपने यह पुस्तक प्रकाशित कर झआावू के हतिहात और पढ़ा के सुप्रसिद्ध स्थानों को जानने की इच्छा वालों के लिए बहुत ही घड़ी सामग्री उपस्थित की है! विमलवसद्वि, वहां की हस्तिशाला, श्री महृवीर स्वामी का मंदिर, लूणवसहि, भीमाशाह का मंद्रि, चौम्ुखजी का मन्दिर, ओरिया और अचलगढ़ के जैन मन्दिर का जो विवेचन दिया है, बह
रे
(२)
महात् भ्रम आर प्रकाण्ठ पांडित्य का सचके है । . आपने - फैबले जन स्थानों का' ही नहीं, किन्तु दिन्दुओं के अनेक ट तीरथों तवया आयू के अन्य दशेनाय स्थाना का जो व्यारा दिया है, बह भी बड़े काम की चीज़. है।
आपका यत्न पहुत ही. सराहनीय दे.। इस 'पुस्तक में जो आपने अनेक चित्र दि हैं, थे सोने ( के स्थानों ) में ' सुगंन्धी का काम देते हैं। घर बेठे आबू,-केा सविस्तार- हाल जानने दालीं प्रर भ्री आपने बहुत बढ़ा उपकार कियों * . है। .झाव् के विषय में ऐसी बहुमूल्य पुस्तक “और कोरई' नहीं, है। आपके यत्न की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी : है। :भी विज्यधमशरिज्ी मद्दाराज के स्मारक रूप अबुद ग्रंथमाला फा यह पहिला ग्रन्थ हिन्दी साहित्य में इतिदहाप्त की आपूर्ति श्रीवृद्धि करने वाला है। झुझे भी मेरे सिरोही राज्य के इतिहास का दूसरा संस्करण प्रकारित करने में इससे अमूल्य सद्दायता मिलेगी |
77 आपके महान् श्रम की सफलता तो तब ही सम्रझी
" जायेगी जब कि आपके संग्रह किये हुए सेकड़ों लेख प्रका-
“शित हो जायेंगे। सुझे यह जानकर बड़ी प्रप्तजता हुई कि. उन. लेखों का छपना भी प्रारंभ हो गया दे। जैन गृहस्यों
(हे)
में अभी तक धर्म भावना बहुतायत से है। अतशव ,आपके अन्यों का प्रकाशित होना कठिन काम नहीं है। आशा है के आपके लेख शीघ्र प्रकाशित हो जायेंगे और आबू पर के समस्त जैन स्थानों और उनके निर्माताओं का इतिहास जानने बालों को और भी लाभ पहुंचेगा। आप परोपकार की दृष्टि से जो सेवा कर रहे हैं, उमकी अशेगा करना मेरी छ्षेपनों के बाहर है। धन्य है आप जेसे त्यागी महात्माओं अक्ो जो ऐसे काम में दचचित्त रहते हैं ।
आपके दशेनों की वहुत् कुछ उत्कंठा रद करवी है
ओर आशा है कि फिर कमी न कमी आपके दर्शनों के।
आनद्द प्राप्त होगा। है आपका नम्र संवक---
गोरीशंकर हीराचंद ओमा.
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फ जे फेक, 30०
रे ् ३ प्रकाशक का निवेदन नेक ओर कीट तक किले कक गेर
भारतवपष का अगर और राजपूताने का शिर छत्न+ जगहिझुयात * आबू ! पर्वत यह इस ग्रंथ का विषय है। तो फिर हमें ' आबू ! के विपय में कुछ कहने की आवश्य- कता नहीं रहती । इधर अंथकार ने अपने 'किडिचद्॒क्वर्ष्यर में तथा 'उपोद्घात' के लेखक शानिराज श्री विद्याविजयजी ने भी ' आयू! की प्राप्ेद्ध के काशण और आयू देखवाडा के मंदिरों के निर्माता पर अच्छा प्रकाश डाला है| हमे इस ग्रंथ के संरन््ध में इतना तो अवश्य कहेंगे कि-- आबूरे जैसे जगत प्रसिद्ध पवेत के संबन््ध में प्न्थकार सुनिराज श्री ने अधिकार पूरे लेखिमी से स्ोह्ध पूर्ण ग्न्थ निमोण किया है और इसके प्रकाशित कराने का असझू हमें श्राप्त हुआ; इसके लिये हम अपना अद्वोज्राम्य समभते हैं।
मुनिराज श्री जयन्त विजयजी ने इस ग्रन्थ की यीज॑ना
केवल अन्यान्य ग्रथों अथवा अन्यात़्य साधनों पर,से नहीं
,की, क्रिन्तु ४ आयू ! में हो बारे पधार कर परे स्थानों के बी
चर] निवेदन
प्रमाण से दी है। इस अकार अनेक परिश्रम पूपेक मिसक॑
योजना की गई हो उसकी संत्यता, और आमाशणिक्रता
के विषय में दो मत नहीं हो सकते । अन्य की पता का क्या वर्णन करें, 'हाथ कंगन को आरती! की जरूरत नहीं ' रहती । अन्ध पढ़ने वाले स्वयं देख सकते हैं कि--अंथकार "ले क्रितना परिश्रम क्रिया ह्ढै।
यह ग्रंथ अथम मुनिराज श्री जगन्ताविजयजी ने शुज- राती भाषा में तैयार किया था; और जिसको भावनगर की “श्री यशोविजय गंथमालाः ने :प्रकाशित क्रिया या। कुछ दी समय में उसकी अ्रथमावातति समाप्त हो गई, उसकी दूसरी आध्ृत्ति भी लगभग अकाशित होने की तैयारी में है । यह मी इस पुस्तक की लोकमान्यता, श्रेष्ठता का एक प्रमाण ही है |
. अब दम अंथकार! के विषय में दो शब्द कहना द्दते हैं ।
झ्बू [४३
उन्हीं पवित्र मंदिरों में यूरोपियन लोग बूट पहन कर जाते ये । इस सर्यकर आशातना को, आज से करीब १६-२० चर्ष बूवे एक मद्दान् पुरुष ने बिलायत तक अयत्न * क्रके, दूर करवाया था। वे जैन धर्मोद्धारक/ नवयुग अवत्तेक, शा विशारद जैनाचार्य्य श्री विजयधरमतारि हैं। 'आजू ग्रन्थ के निर्माता इन्हीं पूज्यपाद आचार्य्य देव के विद्धान् और
असिद्ध शिष्पों में से एक दें | मुनिराज श्रीजयन्त विजयजी ने “शान्त मूत्तिं” के नाम से खूब ख्याति प्राप्त की दै। सचइुच ही आप शान्ति के सागर हैं। आपकी शान्वइचि का प्रभाव कैसे भी मलुष्य पर पढ़े बिना नहीं रहता । ज्ञान-दशन-चारित्र की आरा- बना करने में आप राव दिन तब्लीन रहते हैं। क्लेशादि असेगों से आप कोर्सों दूर रहते हैं। हमें भी आपके दर्शन का लाभ लेने का सौमाग्य प्राप्त हुआ है। आपने काशी की भरी जैन पाठशाला में गुरुदेव श्री हे भृतरि महाराज की छत्रछाया में चर्षों तक रह कर संस्कृत प्राइव का खूब इन ा किया था | आपने अपने : बूरवीअम में अनेक संस्थाओं के चलाने का कार्य बढ़ी इचता के साथ किये ओर गुरु के साथ बंगाल- अध्य दिन्दुस््वान, मारवाइ) मेवाड़ आदि देशों में खूब
डेप वियेदन
अमण भी किया, इससे आप में अनुभव ज्ञान मी अपार है ।
आपकी प्रवृत्ति प्रति समय ज्ञान, ध्यान और लेखनादि क्रियाओं में दी रहती है । आपकी कलम ठंडी, परन्तु वत्ष लेप समान होती दै। भाप जो कुछ लिखते है। प्रमाण- पुरःसर और अनेक खोजों के साथ लिखते है। आपका- बिद्दार वर्णन, कम संयमी, टीका युक्त उत्तराध्ययन सत्न, सिद्धान्त रत्निका की टीप्पणी। भ्रीदेमचन्द्राचार्य्य के तचिपछिशला का पुरुष घरिश्र के दर्सों पत्वों की सुक्कियों का संग्रह आदि आपके लिखे हुए ग्रन्थ हैं ।
इन कार्यो से सप८ है कि-- सुनिए अऔीजयन्तविजयजी न केवल पवित्र चारियरे पालक साधु ही है, किन्तु विद्यन् भी हैं। आपने अपने ज्ञान का ज्ञाभ देकर कितने ही गृहस्थ बालकों को विद्वान् भी बनाया हैं ।
49.5 ९५
जिस समय गुनिराज श्रीजयन्वैपिजयजी सिरोही पधारे थे, उस समय आपके इस ग्रन्थ के ग्रकाशन के सम्बन्ध में' बातचीत हुई और यह निर्णय हुआ कि--आबू! की यह हिन्दी आइ्मचि हमारी पेढी वेग तरफ से प्रकाशित की जाय | उत्त समय के निम्वयातुतार आज हम यह ग्रन्थ
ध्पानू [
जनता के कर कमलों में रखने को भाग्यशाली हुए हैं। | अप एएतदथ हम अन्थकार मुनिराज श्री के आभारी हैं।
हमारी इच्छालुसार इस ग्रंथ को चेत्नी ओलीजी के पहले प्रकाशित कर देने में दि डायमंड जुबिली प्रेस) अअबभर में जो योग दिया है। इसके लिये हम उसके भी मारी है |
छिरोदी निवेदक-- 22 कक मैनेजिंग कमेटी-- ए्, 3] चीर सं, २४५६, वि, स इ६८६ सेठ कल्पाणजी परमानन्दजी
| बकब्य # जगत्पज्य, थी विजयधमधूरिम्यो नमः # का तक | रा, वक्तव्य सतत.
आन! और “आबू-देलवाड़े! के जैन मन्दिरों की संसार में कितनी ख्याति है? यह किसी से अज्ञात नहीं है। बहुत से यूरोपियन और भारतीय विद्वानों ने उस प्र बहुत लिखा है, कुछ गाईड कुछ फ़ोटो के एल्बम भी प्रकाशित हुए हैं । परन्त बस्तुतः देखा जाय तो “आबूर पर की एक-एक वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान दे सके, मन्दिरों में भी कहां क्या है ! उसका इतिहास बता सके ऐसी एक भी इस्तक किसी भी भाषा में नहीं है । अतएवं असंगोपात आज से करीब छः वर्ष पहले मुझे 'आबू! पर जाने का असंग आध्र हुआ था और बहां छुछ स्थिरता भी हुई । इसका लाभ लेकर आयू सम्बन्धी ुछ बातें मैंने लिखी । जहां तहा खोज करके संग्रह करने योग्य बातों का संग्रह किया । थोडे समय में मेरे पास अच्छा संग्रह हो गया। प्रथम तो मैंने उसको सेखों के दँग पर लिसना प्रारम्भ किया परल्तु मिश्रों और साहित्य प्रेमियों के अनुरोध ने सुझे आयु
आयु! के लेखक--शान्त मूर्सि सुनिराज थ्री जयेत विजयजी मद्यायज,
फ,व शत 8७
आवू [७
सम्बन्धी एक पुस्तक तय्पार करने के लिये बाध्य किया ॥ जो पुस्तक आज से त्तीन वपे पहले “आबू' के नाम से, की एः शुजराती में प्रकाशित की गई थी।
थोड़े ही समय में आयू? की प्रथमा््रत्ति बिक गई और प्रथमाष्ाति के मेर 'किश्विदक्तत्य' में जसा कि मैंने कहा थ। दूसरा भाग? तय्यार करूं, उसके पहले ही प्रथम भाग की दूसरी ध्याव्वत्ति? अनेक संशोधनों के साथ निकालने की आवश्यकता खड़ी हुई। यह सचमुच मेरे आनन्द का विपय हुआ ओर मेरे परिश्रम की इतने अंशो में मिलने बाली सफलता के लिये मेंने अपने को भाग्य-' शाली समझा ।
जिस समय आयबू! सम्बन्धी मेरे लेख 'घर्मध्चज' में प्रकाशित होने लगे; उस समय ग्रथमादरात्ति के 'वक़व्या में जैसा कि में निवेदन कर चुका हूँ, “किसी ने इस पुस्तक में मान्द्र की सुन्दर कारीमरी के फोट देने की, किसी ने विंमल मंत्री, वस्तुपाल तेजपाल् आदि के फोटू देने को; किसी ने मन्दिरों के झ्वान और बाहर के दृश्यों के फोट देने की; किसी ने देलवाड़ा और सारे 'आबू! पहाड़ का _नकशा देने की; किसी ने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी
ब्द ) घकतय ,
'ऐसे द्ीनों - मापाओं में इस पुस्तक को छपावाने की और , किसी ने 'आबू! सम्बन्धी रास, स्तोत्र, कल्प स्तुति, स्तव- नादि ( अकाशिव और अप्रकाशित-सब ) को एक खतन््त्र .परिशिष्ट' में देने की--” ऐसी अनेक प्रकार की बचनाएँ चहुत से आकांज्षिश्ों की तरफ से हुई, और ये छचनाएँ उपयोगी होने से उसका अमल दूसरे भाग में करने का चार मैंने रक्खा था, परन्तु दूसरा भाग ( शुजराती ) शुद्द ऐतिहासिक दृष्टि से तस्यार करने का पिचार होने से तथा उस वक्ष तय्यार करने में कुछ विलम्ब देख कर उपर्युक्त ' सचनाओं में से कुछ क्तचनाओं का यथा साध्य उपयोग मैंने अुजराती की दूसरी आधत्ति में कर लिया है ! प्रथमाइत्ति की अपेक्षा गुजराती की दूसरी आवृत्ति में चहुत छुछ परिवत्तन हुआ है, उसी के अनुसार यह अनुवाद हिन्दी की प्रथम आध्च्ति-प्रकाशित की गई है। शुजराती की प्रथमाउचि की अपेक्षा दूसरी आशक्ति, हे जिसका यह अखुवाद है, आशातीत परिवत्तन और परि- चर्दधन करने का प्रसंग, सं० १६८६ की मेरी 'आबू! की ' घूसरी यात्रा के प्रसंग से प्राप्त हुआ। इस दूसरी यात्रा से 'में दो मास “आजू! पर रहा और गुजराती की प्रथमावृत्ति की एक एक बात को मिलान बड़ी द्द्मता के साथ किया ।
आवू (5६
इस प्रसंग पर में एक खास बात का उल्लेख करना आवश्यक समभता हूं । है “आयू! के मंदिरों में खास करके 'विमलवसदि”' -और “लूणवसहि” नामक विश्व विख्यात मंदिर हैं, देखने की ग्यास चीज उनकी कारीगरी-कोतरणी और खुदाई का काम है। यह कारीगरी, भारतीय शिल्पकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। जिसके पीछे करोड़ों रुपये इन मंदिरों के “निर्माताओं ने व्यय किये हैं। शिल्प के ज्ञाता किंत्रा शिल्प से अमिरुचि रखने वाले शिल्पकला की दृष्टि से इसका निरीक्षण करें, परन्तु इस शिल्प के नमूनों ( कारीमरी ) में से हम और भी बहुतसी बातों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैँ। उदाहरणाथै--उस समय का वेप, उस समय के रीत- रिवाज, उस समय का व्यवहार आदि | देखिये-- ३--' विभलवसहि ” और “लूणवसहि! के खुदाई में जैन साधुओं की मूर्त्तिहं। क्या उस पर से हमें यह पता नहीं चलता हैं कि आज से सातसौ बर्य के पहले भी जैन साधुओं का बेष लगभग इस समय के साधुओं के जैसा ही था। देखिये मुँहपत्ति हाथ मं ही है, न कि सुख पर बंधी हुई। दंडे भी उस समय के साधु अवश्य रखते थे। हां,- आधुनिक
३० ] वक्तव्य
रिवाज फे अजुसार, उन दंडों के ऊपर भोघरा नहीं बनाया जाता था ।
२--कोवरणी में क्या देखा जाता है चैत्यबेंदन, गुरु- चंदन, पैर दवाना (भक्ति करना) साष्टांग नम- स्कार, व्याख्यान के समय ठवणी का रखना गुरु- का शिष्य के सिर पर वासचेप डालना आदि अनुष्ठान क्रियाएँ कैसी दिखती हैं ! क्या उस समय की और इस समय की क्रियाशों की तुलना करने का यह साधन नहीं है १
३--उसी नक्शी में सज-सभाएँ, छुलूस (ऑसेशम ) सबा- रियां, नाटक, आम्य जीवन, पशु पालन, व्यापार, युद्ध आदि के दृश्य भी दृष्टिगोचर होते हैं। ये चस्तुएँ उस समय के व्यवहारों का ज्ञान कराने में बहुत उपयोगी हो सकती हैं |
४--सी भ्रकार जेन मूर्चि शासत्र किंवा जेन शिल्प शास्ध का अभ्यास करने किंवा अमुभव प्राप्त करने का भी यहां अपर साधन है। किन्ही किन्ही मूचिओं अथवा परिकरों को देख करके तो बहुत ही आश्चर्य उत्पन्न होता है । उदाहरणार्थ-भोमाशाह के: मंदिर में मूलनायक्र भी ऋषमदेव भगवान् कीं
आयु [१९
धातुमयी सुन्दर नक्शी वाली पंचतीर्थी के परिकर युक्ष जो घूर्ति है, वह करीब ८ फुट ऊँची और साढ़े पांच फुट चौड़ी है। इतनी बड़ी धातु की पंचतीर्थीः अन्यत्र कहीं भी देखने में नहीं आई। शायद ऐसीः भूचि अन्यत्र होगी भी नहीं |
४--इसी मंदिर के गूहमंडप में तथा विमलवसहि में मूल- नायक की संगमरमर की बहुत बड़ी मूर्त्ति श्री ऋषपभ- देव भगवान् की है। उसके परिकर में, अत्यन्त मनोहर, परिकर में देने योग्य, सभी वस्तुएँ बनी हुई हैं । परिकर बहुत बड़ा होने से उसकी प्रत्येक: चीज का ज्ञान अच्छी तरह से ग्राप्त हो सकता है। इसके आतिरेक्त मित्र भिन्न आकृति वा काउस्स- ग्गिये, भिन्न भिन्न प्रकार की रचना वाले चोभीसी के पट्ट, जुदी जुदी जात के आसन वाली बैठी और खड़ी आचास्ये तथा आवक श्राविकाओं की मूर्िएँ, तथा प्राचीन व अवाचीन पद्धति के परिकर आदि बहुत कुछ हैं, जिनसे कि-जैन मूच्ति शास्त्र के: विषय में अच्छा ज्ञान प्राप्त हो सकता है। हां !: कहीं २ कोई २ काम देखकर हम लोगों को अनेक: प्रकार की शंकाएँ भी हो उठती है। जैसे--
न्श्श ) चक्तव्य
+विमलवसहि ' और *लूणवसहि ” के खंभों की नक्शी “में, मिन्न भिन्न आकृतिओं की मिन्न भिन्न क्रियाएँ करती हुईं, हाव-भाव विश्र और काम की अनेक चेष्टाएँ युक्त पुतलियों की बहुलता नमर आती है |
ऐसी विचित्र भ्राकृतिओं को देखते हुए बहुत लोगों को शंका होती है और होना स्वाभाविक भी है-कि जैन मंदिर में मह क्या ) ऐसी कामोत्तेजक पुतलियों क्यों होनी च्चादिए |
भेरे खयाल में तो यही आता है क्वि--कारीगर्सो ने -अपभी शिल्पकला को दिखाने के लिए ऐसी पुतलिएँ अनाई हैं। इसका धर्म के साथ कोई की सम्बन्ध नहीं है । “हिन्दुस्थान में उस समय ऐसी अवस्था की भी मलुष्या- -कृत्तियाँ बनाने वाले कारीगर मोजूद थे, यह दिखलाने के उद्देश्य से ही कारीगरों ने अपनी शिल्पकला के नपूने कर दिखाये हैं। “अखूट द्रव्य का व्यय करने वाले जब “ऐसे धनाद्य मिलें तो फिर थे भी क्यों नाना प्रकार के नमूनों से ग्रपनी शिल्प विद्या दिखाने में न्यूनता रसे, वस इस चयात को लक्ष्य में रख फर उन्होंने अपनी शक्ति के अनुसार उन आक्धत्तियों को बनाया होगा । चर्चमान में भी किसी जैन ब हिन्दु मन्दिर जो कि सुसलमान कारीगरों के हाथ
आदू [ १३८
से बनते हैं, उसमें मुसलमान संस्कृति के नमूने बना दिये" जाते हैं और ये अनभिन्नता में निभा लिये जाते हैं। इसी प्रकार उस समय भी हुआ हो तो कोई आश्रय को बात नहीं है । ! परन्तु साथ ही साथ इतना अवश्य कहना पड़ेगा कि उन कारीगरों ने थे नियम जेसा भन में आया वैसे नहीं खोद मारा है। प्रत्येक आक्ृत्ति 'नाव्व-शास््र' के नियम: से बनी है। “नाव्य-शास्त्र! में 'नाव्यः के आठ अड्ड अथवा आठ प्रकार दिखलाये हैं । उनमें से किसी स्थान में प्रथम अज्ज के अनुसार किसी स्थान में दूसरे अज्ञ के नियमानुसार तथा किसी स्थान में रे, ४, ५, ६, ७ किंवा' ८ वें अज्ज के अनुसार व्यवस्थित रीते से पुतलियाँ धनी” हैं। + नाव्य-शारत्र' का अभ्यासी अपने अभ्यस्त ग्रन्थों. में से यदि इसका मिलान करेगा, तो अवश्य उसको उप्युक् - कथन का निश्रय होगा । +
कहने का तात्पय यह है कि-आयू के जैन मन्दिर, एक तीथे रूप होकर पराक्ते को आ्राप्त कराने में साधनभृत तो हो दी-सकते हैं, परन्तु'साथ ही साथ भूतकाल का इतिहास, रीति रिवाज, व्यवहारिक ज्ञान, शिल्प-शास्तर एवं नाब-शास्तर:
ज्४ ] चक्तच्य
आदि का प्रत्यक्ष ज्ञान कराने घाली एक खासी कॉलेज 7किंवा विश्वविद्यालय है ।
एक अन्य घात का उल्लेख मी आवश्यकीय है कि “देलवाड़ा के इन मन्दिरों के एक दो स्थान में ख्री अथवा “पुरुप की नितान्त नम्न सूर्चिएँ मी खुदी हुई दिखाई देती “हैं। एसी भूच्तियों को देखते हुए कुछ लोग ऐसी कल्पना ' नकरते हैं कि-बौद्ध। शाक्ृ, कौल और वाममार्गी मर्तों की” तरह, जैन मत में किसी समय तान्त्रिक विद्या का प्रचार द्वोगा । परन्तु यह कल्पना नितान्त अपुक्त है। हमने इस नवेषय पर दीधैकाल तक परामश किया, जांच की, परिणाम में छुछ शिल्प-शासत्र के अच्छे! अनुभवियों से ऐसा मालूम हुआ कि-शिल्प-शास्त्र का ऐसा नियम है कि-“ऐसे बढ़े मन्दिरों में एकाद नत्न मूर्ति अवश्य घना दी जाती है । शसा करने से उस मन्दिर पर बिजली नहीं गिरती। इसी कारण से मन्दिर निर्माता की दृष्टि को चुरा करके भी कारीगर लोग एकाद ऐसी नम पृतली बना दते हैं ”।
शिन्प-शासत्र का ऐसा नियम हो चाहे न हो, अथवा शेसा करने से बिजली से बचाव होता हो या न हो ।
आवू [ रश
नयूरन्तु यह बात सम्मवित है कि परम्परा से ऐसी भ्द्धा अवश्य चली आती होगी ।
दूसरी कल्पना यह भी हो सकती है कि कोई दृष्टि विकारी मनुष्य मंदिर में जाय तो उसके दृष्टि दोष से मंदिर को नुकसान हो, इस ग्रकार का बेहम प्रचलित है। इस चेहम को टालने के लिये एकाद नग्न सूर्ति मंदिर में क्रिसी स्थान पर बना देते हैं अर” परधम; असददिष्णु, ईष्योलु अलुष्य मंदिर को देखकर ईष्यों स मंदिर पर तीज्र दृष्टि डाले जिससे मंदिर को नुकप्तान दोने की संभावना रहती है इस कारण उस नग्न मूर्ति को देखते ही, ई्षष्यों जन्यकर दृष्टि बदल जाय और वह मनुष्य अन्य सब विचारों को छोड़, उस श्लो देखने में एक्राप्न बन जाय । परिणाम में ऐसा भी कुछ कारण हो कि उसकी ऋूर भावनायुक्त दृष्टि का असर मेदिर पर न रहे ।
इस प्रकार आबू ? के जैन मंदिर अनेक दृष्टि से देखे जा सकते हैं और उन दृष्टिआं से देखने वाले अवश्य न्ताम उठा सकते हैं।
अत में अपने इस वकृच्य की पूरा करूं, इसके पहिले शक दो ओर बातें स्पष्ट कर लेना उचित समझता हूं |
१६] चक्तच्य
5 पहली वात तो यह है कि--शाबू” यह प्राचीन और सर्वमान्य तीथे है और इससे सास आायू! में तथा/ उप्तके आसपात्त इतनी ऐतिहासिक सामग्री है कि-जिस पर जितना लिखा जाय, उतना फम है । गुरुदेव की कृपा रेट मुझे दो दफे 'भावू की स्पशना करने का असंग प्राप्त हुआ, उसमें मुझसे मितना हों सका उतना संग्रह कर लिया। संग्रह पर से मेंने 'आबू! सम्बन्धी निम्न लिखित भाग तय्यार' करने की योजना की है ।
१ आबू” भाग २ ( यह ग्रन्थ ) |
२ आग भाग २ ( आयू! भाग £ में जो २ ऐति-- झतप्तिक नाम आए हैं उनका विस्तृत वर्णन है)।
३ 'झाबू? भा० ३ (अबुंद ग्राचीन जैन लेख संग्रह”) |
४ झादु! भा० ४ ( “अजुंद स्तोत्र-स्तवन संग्रह! ) ।
इन चारों भागों में प्रथम भाग तो प्रकाशित हो ही चुका है । दूसरा, तीसरा और चोथा भाग भी लगभग तय्यार हुआ है।
इनके आतिरिक्त “भआंबू! के नीचे से सारे पहाड़ की अंदाक्तिणों करते हुए बहुत॑ से गांवों में से प्राचीन लेसों का अच्छा संग्रद उपलब्ध हुआ है तथा ऐतिद्दासिक गांवों को
आज [ १७
जैन दृष्टि से बृत्तान्त लिखने के लिये भी साधन एकात्रेत हुए हैं। जिनमें कुम्मारियाजी, जीराबलाजी ओर बामण- चाढ़जी आदि तीर्थों का भी समावेश होता है।
इस सारे संग्रह को “आयावू! भाग ५ और “आबू भागों हूँ के नाम से प्रसिद्ध करने का विचार रक््खा गया है|
ये भाग प्रकाशित हों) इसके दरमियान 'आबू! भाग १ का अंग्रेजी अनुवाद एक बी. ए., एल एल. थी | पिद्धान् जैन गृहस्थ कर रहे हैं।
दूसरी बात लिखते हुए मुझे बहुत आनन्द होता है- फकि-देजवाड़ा ( आयू ) के जेन मन्दिरों की व्यवस्थापक कमेटी-सेठ कल्याणजी परमानन्दजी के व्यवश्थापक जो पके-सिरोदी संघ के मुखिया हैं थे 'आबू! की हिन्दी आधत्ति प्रकाशित कर रहे हैं ।
आयु? तीथे की व्यवस्थापक कमेटी को, उनके इस उदार कार्य के लिये जितना घन्यचाद दिया जाय उतना कम है। सेठ कल्याणजी परमानन्दजी की पेढी का यह काये अत्यन्त स्तुत्य और अन्य तीथों की व्यवस्थापक कमेटियों के लिये अचुकरणीय है | छ
“8० | उपोद्घात
आज संसार में ऐसे अनेक मनुष्य पाये जाते दें, जिनमें कर्मएयता की यु तक नहीं होने पर भी थे अपने को “कमैयीर ' बताते हैं और थे घड़ी बढ़ी उपाधियों को लेकर फिरने में ही अपना गौरव समभते हैं। जरा आगे बढ़ कर कहा जाय तो-छुछ लोग ऐसे भरी हैँ; जो अपने आप बड़े बड़े ठाइटिल-घारी दिखाने में ही रात दिन अगत्न शील रहते हँ। उन्हें सबिनय पूछा जाय के आप जिस विपय का ठाइटिल लिये बेठे है और जिसको” प्रग० में लाने के लिये स्वयं भेसों में दौड़ धूप करते हैं, बह कब। कहाँ और किसने दिया? क्या उस विपय का कोई अन्थ या छोस भी आपने लिखा हैं अथवा ऐसा ही कुछ कार्य भी किया है? जवाब में उनके क्रोध के पात्र बनने के और कुछ नहीं मिलता |
जब समूह में एक और ऐसे ही ले भग्गू मनुष्यों कीः भरमार पाई जाती है, जब कि दूसरी ओर ऐसे भी सज्जन महाजुभाव व से विद्वान पाये जाते हैं, जो कि अपनें [ब्िषय के अद्वितीय विद्वान अनेक सोजों के अकट कर्चा और भ्रन्थों के निर्माता होने पर भी उनके नाम के साथ एक मामूली विशेषण भी कोई लगाता है तो उनकी आँखें
आ [२६
श्रम से नीचे ढल जाती हैं। स्वय कोई टाइटिल लिखने पलिखवाने की तो बात ही क्या करना ।
ऐसे सच्चे संशोधक। पुरातत्व के खोजी, इतिहास के ज्ञाता होने पर भी *सरलता' और “नम्नता ' के गुणों से विभूषित जो कुछ विद्वान देखे जाते हैं, उनमें शाम्त-सूर्चि मुनिराज श्री जयन्त विजयजी भी एक हैं ) भुनिराज श्री जयन्त विजयजी ने “आबू! पुस्तक में कितना परिश्रम किया है, कितनी खोज की है, इसको पदिखलाने के लिये "हाथ कंघन को आयने, की जरूरत नहीं है” | आपने इस पुरतक के निर्माण करने में सिफफ़े आात्रालुओं का खयाल नहीं रक््खा । “यहां से वहां जाना *बहां से वहां जाना ?, “यहां से यह देखना, 'पहांसे चह देखना”, “यहां से मोटर में इतना किराया देकर चेठना” ओर “बहां जाकर उतर जाना!, 'धर्म-शाला के मैनेजर से ओढ़ने बिछाने व रमोई के लिये साधन मिल जायगा! बस यात्रालुओं फे लिये इतनी ही बस्तुएँ पयोप्त हैं। ग्न्थ निर्माता मुनिराज श्री का लक्ष्य बहुत बड़ा है । उन्होंने प्रत्येक मन्दिर के निमोता का परिचय, बल्कि उसके पूवेज्ों का भी संक्षिप्त इतिहास दिया है। किस २३ समय में उसका जीर्ोडद्धार हुआ १ उसमें क्या क्या
श्र ] डपोद्घात
परिवत्तेन हुआ ? श्रत्येक मन्दिर व देहरियों में क्या बया दशेनीय चीजें हैं! उनमें जो जो भाव चित्रकारी के हैं, उनकी मल चस्तुओं का द्तद्मता से निशेज्षण करके उनको भी सम्पूर्ण विवेचम के साथ दिया दै, भत्येक मन्दिर व् देहरी में कितनी कितनी मूचियों हैं अथवा और भी जो जो चीजें हैं, उनका सारा वृत्तान्त देने के अतिरिक्त आब- श्यकीय शिला लेखों से उस बात पर और भी प्रकाश” डालते हं। न केपल जैन मदरों ही के लिये * आदू' के: ऊपर यावत् जितने भी द्िन्दु व अन्य धमौवलम्धियों के जो जो दर्शनीय स्थान हैं, उन सारे स्थानों का वर्णन उन उन धर्मों के मन्तव्यानुसार मय तद्विपयक इतिहास एवं कथाओं के दिया दै ।
प्रसंगोपात आबू से सम्बन्ध रखने वाले आचीन राजाओं व मन्त्रियों का इतिहास भी यद्यपि संक्षेप में, परन्तु खोज के साथ दिया है ।
इस प्रकार आवू के सच्चे इतिहास को प्रकट करने बाला वर्तमान स्थिति की छोटी से छोटी और बड़ी से घड़ी चीज़ को दिखाने बाला, सर्वोपयोगी, सर्वमान्य, से व्यापक एक ग्रन्थ का निर्माण एक जेन म॒ुनिराज के हाथ से हो, यह भी एक गौरव की ही बात है और इसके:
आयु [ २३
लिये मुनिराज श्री जयन्त विजयजी सचझुच घन्यवाद के पात्र हैं ।
* ध्याबू? यह तो हिन्दुस्थान के ही नहीं, सारे संसार के दशनीय स्थानों में से एक है और भारतवर्ष का तो अड्भार है, सिरमौर है । आद ने संसार के इतिहास में अपना नाम सुवर्ण अच्षरों से लिखवाया:है | दुनिया के किसी भी देश का कोई भी मुसाफिर हिन्दुस्तान में आकरके आदबू का अवलोकन किये बिना नहीं जा सकता ! “आयू! की स्पशेना के सिवाय उसकी यात्रा अपूर्ण ही रहेगी । आज तक जितने भी यात्री भारत अमण के लिये आए, उन्होंने आबू को देखा और शब्दों द्वारा मनुष्य जाति से जितना भी हो सकता है, प्रशंसा की ।
आयु! की प्रशंसा अनेक ग्रन्थों में पाई जाती है। कनेल टॉड ने अपनी 'देेवल्स इन वेस्टन हशिडया? में एवं मि० फर्गुसन ने (पिक्चसे हजस्ट्रेशन्स ऑफ इत्नो- सेगट आर्किटेक्चर इन हिन्दुस्तान में आए! की भूरि भूरि प्रशंसा की है। इसी प्रकार भारतीय अनेक विद्वानों ने भी आय यो अपने पुस्तकों में बड़ा महत्व का स्थान दिया है। उदाहरणाथे--असिद्ध इतिहासज्ञ रायत्रहदुर
महामद्दोपाध्याय पं० गौरोशंकर होराचन्द ओका ने
खछवु उपोद्घात
अपने राजपताने का इतिहास घ 'सिरोही राज्य का डतिहास! में आबू को गीरव युक्ल स्थान दिया है ।
इसमें कोई शक नहीं कि-घ्याव! भारत के प्रसिद्ध धर्वेतों में से एक है-। बल्कि भारत के अति मनोहर और भारत की बहुत बड़ी सीमा में केले हुए सुपरासिद्ध 'झरचलो? चहाड़ का सब से बड़ा हिस्सा ही आआचू पर्यत है । यही नहीं, भारत के-सास करके ग्रुजरात और राजपूताने के परमार राजाओं का आवू के साथ घानिए्ठ सम्बन्ध रहा है । अत३ गेतिहासिक दृष्टि से भी ध्यायू उल्लेखनीय और प्रशंसनीय है, परन्तु आाबू की इतनी प्रसिद्धे ओर यशस्विता में खास कारण तो और ही है, ओर चह है “आबू-देलवाड़ा के जैन भदिर'
यह तो स्पष्ट ओर जम जाहिर बात है कि-झआबू थबेत पर ओ देशी विदेशी लोग जाते हैं बहुधा वे सब के सभ आवू-देलवाड़े के जैन मन्दिरों को देखने ही के लिये जाते हैं। सुप्रसिद्ध चौंलुफ्य राजा भीमदेव के सेनाभिपति पविमल मंत्री का बनवाया हुआ 'विमज बसहि!, और महा मंत्री चस्तुपाल-लेजपाल का बनवाया हुआ लिग- बमहिं ये दो ही मन्दिर आवू पहाड़ की विश्व पिझ्याते के कारण हैं | संप्तार की आथय्यैकारी-दशनीय वस्तुओं में
आवूं च्द्र्तु
आ्आबू भी एक है। इस सौभाग्य का सुख्य कारण, जैन धरम * अभावक उपयुक्त महामंत्रिओं के करोड़ों रुपयों के व्यय से -चनवाये हुए उययुक्त दो मन्दिर ही हैं। इन मन्दिरों के शिल्प -की वास्तविक तारीफ आज तक के किसी भी विद्वान् लेखक "से नहीं हो पाई है ।
कनेल टॉड ने अपनी 'देवल्स इन चेरटने इण्डिया? “नामक पुस्तक में 'विमल वस॒हि? के सम्बन्ध में लिखा है।
“हिन्दुस्तान भर में यह सन्दिर सर्वोत्तम छ्
और ताज महल के सिवा कोई दूसरा स्थान इसकी
नसमता नहीं कर सकता ?
चस्तुपाल के मंदिर के सम्बन्ध में शिल्पकला के असिद्ध ज्ञाता सि० फर्मुंसन ने 'पिक्चस हल्स्ट्रेशन आफ इच्नोसेण आर्कीटेक्चर इन हिन्दुस्थान! नामक 'पुस्तक में लिखा है ।
“एस मंदिर में, जो संगमरमर का बना हुआ है, अत्यन्त परिश्रम सहन करने घाली हिन्दुओं फी थांको ले फीते जेसी सूक्ष्मता फे साथ ऐसी मनोहर
$ ताज सददल्त भी इसफी समता नहीं कर सकता । देखो परिशिष्ठ ८ नमें दिया हुआ रा० रा० रफ्तमाणिराव भीमराव का अमिप्राय । लेसफ:
८ ] उपोद्घात
आक्ृत्तियाँ बनाई गई हैं, जिनकी नक्षज फागज पर बनाने से कितने ही समय तथा परिश्रम से भी में सफल नहीं हो सरता”?।
भहामहोपाष्याय पं० गौरीशेकरजी ओमा ने ऋपने 'राजपूताने का इतिहास' ( खंड १ ए० १६३ )? में लिखा है।
“क्ारीगरी में उस मंदिर ( विमक्षचवस॒हि ) की समता करने वाला दूसरा कोई मंदिर हिन्दुस्तान सें नहीं है। ”
यद्यपि यहां और भी कुछ जैन मंदिर द्शदीय हैं, जेसे कि--महावीर स्वामी का मंदिर/ भीमाशाह का पिचलहर मंदिर, चोमुखजी का मंदिर जिसको 'खरतरचसहि” कहते हैं, और अचजगढ के पास 'ओरिया' मामझ छोटा गांव है, वहां का मद्गाबीर स्वार्मी का मंदिर, तथा उसके: पास ही 'झचलगढ!' गांव में चौमुखजी का आदीश्ररज्ञी, कुँधुनाथजी और शान्तिनायजी का मंदिर है। ये समी मंदिर कुछ न कुछ विशेपता रखते हैं, परन्तु आयु? की इतनी ख्याति का अंधान कारण तो विमलंवसदि और लूण- चसहि ये दो मंदिर ही हैं।
आदू २७ |!
अत्यन्त खुशी की बात है कि--इन मंदिरों की कारीगरी के अद्जुत नमूने का परिचय कराने के लिये ग्रेथकार ने लगभग ७५ पचहत्तर फोट्ट इस पुस्तक में देने फा प्रबन्ध करवाया है ध्माव् की कारीगरी के कुछ फोट फातिपय पुस्तक याने, रेलवे गाईडों में तथा आबू गाईड” बगेरह में देखने में आते हैं, परन्तु इतनी बड़ी संख्या में और बह भी खास २ महत्व के फोटू सिवाय आज तकः किसी भी पुस्तक में देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है । इस पुस्तक के इस दृष्टि से भी इस पुस्तक का महत्व कई शुना बढ गया है।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि--आखू के जैनः मंदिरों के पीछे, मेन इतिहास का ही नहों, बल्कि भारत बे के इतिहास का बहुत बड़ा हिस्सा समाया हुआ है। आयू के उपर्युक्त प्रसिद्ध मंदिरों के निमोता कोई सामान्य व्यक्षियाँ नहीं थीं। वे देश के प्रधान राज्य कचोओं के सेनाधिपाति ओर मंत्री थे। उन्होंने उन राजाओं के राज्यः शासन विधान में बहुत बड़ा हिस्सा लिया था । ग्रेंथकार ने उन राजाओं, मंन्दिर निर्माता मंत्रियों और आर सेनाधिपतियों का आवश्यकीय परन्तु संक्षिप्त परिचय - दिया है। इसी प्रकार उन्हीं के किज्चिद् वक्तव्य से:
ल्श्द | उपोड्घात
अगर हीता है, कि इतिहासिक बातों का विस्तृत बर्यन आबू के दूसरे भाग में आविगा। ओर इसी लिये उन इतिहासिक बातों पर थहां विशेष उल्लेख करना अनावश्यक समता हूँ। तथापि इतना तो कहना समुचित होगा कि-आझ्ू - के जैन मंदिरों के निर्माता से संबंध रखने याले जो कुछ जैन ऐतिहासिक साधन उपलब्ध होते हैं उन में मुख्य “ये भी हैं।--- १--तेजपाल के मंद्रि के शि्नालेस-दो बड़ी प्रशास्तियां (बि० सं० १श८७ का ) | २--'विभलवस हि? मंदिर के जीर्योद्धार का शिलालेख ( वि० सं० १३७८ का )] ३--याश्रय काव्य ( कर्ता श्री हेमचंद्राचाय्य )) ४--क्ुमारपाल भ्रबन्ध ( जिन मंडनोपाध्याय ऊृत ) | ४--तीथे कल्पास्तर्गत अ्थयुद करप ( जिनप्रभस्रि कृत )। <--प्रबन्ध चिन्तामरणि ( मेरुतुद्भाचार्य्य कृत ) | ७--चित्तौड़ किले का कुमारपाल का शिलालेख | ८--वस॑तविलास ( बालच॑द्राघाय्ये कूष ) ६--सुकृत संकीचेन ( अरिसिंह कृत )। -“१०--वस्तुपाल चरित्र ( जिन दर्षकृत ) । “११-- विमल अवन्ध ( कवि लावण्यसमय कृत )।
भाद् २६]
१२--उपदेशतरद्वियी ( रत्न मंद्रिगणि कृत )।
१३--पअ्रबन्ध कोश ( राजशेखर सरिकृत ) |
१४--हमीर मदमर्दन ( जयसिंह सरिक्ृत )।
१४-सुकृतकल्लोलिनी ( पुंडरीक-उदयप्रभत्नरि कृत )।
१६--विमलशाह के मंदिर का शिलालेख ( बि० सं० १३५० का )।
१७--' विमलवसहि ! की देहरी नं० १० का शिलालेख ( बि० से० १२०१ का )।
श्य--तिलक मस़्री ( धनपाल कविकृत ) |
आदि २ कई ऐसे जैन ग्रन्य व शिलालेख एवं रासादि- है; जिनमें आचू और उस पर के जैन मंदिरों के निर्माण पर काफी अ्काश डाला गया है ।
इन मंदिरों के निमोताओं में ्रधान तीन पुरुष हैं, जषो-
भारतवपीय शतिहास की रंगभूमि पर अधान पात्रता को धारण किये हुए खड़े हैं। विमलशाह, वस्तुपाल और तेजपाल ।
विमलशाह, यह अणहिलपुर पाठन का राजा भीम देव ( जो विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दि के उत्तर भाग ; हुआ ) का सेनापति था। विमल बड़ा धीर था। झड्े
पु
सर्द ] उपाद्घाद
बढ
अगट होता है, कि इतिद्वासिक थातों का विस्तृत बणेन आवू के दूसरे भाग में अवेगा । ओर इसी लिये उन इतिहासिक बातों पर यहां पिशेष उल्लेख करना अनावश्यक समभता हूँ। तथापि इतना तो कहना संम्ाचित होगा कि--आधू - के जैन मंदिरों के निर्माता से संबंध रखने वाले जो कुछ जैन ऐतिहासिक साधन उपलब्ध होते हैं उन में गुख्य नये भी हैं।-- १--तैजपाल के मंद्रि के शिलालेख-दो बड़ी प्रशस्तियां ( बि० सं० १२८७ का ) | २--“विमलथस हि? मंदिर के जीर्येद्धार का शिलालेख (बि० से० १शे७छ८ का )। ३--टहयाश्रय काव्य ( फर्चा श्री हेमचंद्राचाय्ये )) ४--कुमारपाल प्रबन्ध ( जिन मंडनोपाष्याय कृत ) | ४--तीथे कल्पान्तगेत अर्चुद कत्प ( जिनप्रभवरि कृत )। ६--प्रभन््ध विन्तामशि ( मेरुतुड्राचास्य ऋत )। ७--चित्तीड़ किसे का कुमारपाल का शिक्षालेख । ८--वसंतविलास ( बालचंद्राचाय्ये कृत ) &--सुकृत संकीत्तेन ( अरिसिंद कृत ) | “१०--बस्तुशल चरित्र ( जिन हर्षकृत ) । “११- घिम्रल अ्रन्ध ( कवि लावण्यसमय कृत )।॥
आय २६]
१२--उपदेशतरद्जिसी ( रत्न मंदिरिगणि कृत ) । १३--प्रभन्ध कोश ( राजशेखर सरिकृत ) । १४--हमीर मंदसदेन ( जयसिंह सरिकृत )। १४--सुकृतकल्लोलिनी ( पुंडरीक-उदयप्रभक्गवरि कृत )। १६----विमलशाह के मंदिर का शिलालेख ( वि० से० १३४० का )। १७--' घिघरसवसहि ! की देहरी नं० १० का शिलालेख ( बि० से० १२०१ का ) | १८-तिलकमज़री ( धनपाल कवबिकृत ) ।
आदि २ कई ऐसे जैन ग्रन्थ व शिलालेख एवं रासादि है, जिनमें आलू और उस पर के जैन मंदिरों के निमोण पर काफ़ी प्रकाश डाला गया है ।
इन मंदिरों के निर्माताओं में प्रधान तीन पुरुष हैं, जो भारतवपीय शंतेहास की रंगभूमि पर प्रधान पात्रता को धारण किये हुए खड़े हैं। विमलशाह, घस्तुपाल और तेजपाल ।
विमलशाह, यह अणहिलपुर पाटन का राजा सीस- देव ( जो विक्रम की ग्यारदवी शताब्दि के उत्तर भाग में हुआ ) का सेनापति था। विमल बड़ा चीर था। इसके-
य्द० ]ु डपोड्घात
विषय में “विमल प्रबन्ध! और विमलवसहि की देहरी -मं० १० के शिलालेख से बहुठ बातें ज्ञात हो सकती हैं ।
दूसरे हैं बस्तुपाल-तेंजपाल, इसमें कोई शक नहीं “कि-विमल की अपेक्षा वस्तुपाल तेजपाज इतिद्दास में पविशेष प्रशंसा पात्र हुए हैं। इसका खास कारण भी है। व्ये दोनों भाई शूरवीर, कर्चन्य परायण, राज्य कार्य में बढ़े “दच, प्रजावत्सल्य) पर-धर्म सहिष्णु, पढ़े चुद्धिमान् , दाने- श्वरी इत्यादि गुणों को धारण करने के साथ साथ बढ़े भारी विद्वान भी ये। एक कवि ने वस्तुपाल के समस्त गुणों की प्रशंसा करते हुए गाया है+--
४ श्री बस्तुपाल ! वध भालतले जिनाज्ञा, घाणी मुखे, हदि ऋषा, करपन्नते श्रीः 'देद्दे शुतिबिलसतीदि रुपेव कीचि:,
पैतामह सपदि धाम जगाम नाम ॥”!
(उपदेशतर क्विणी ) अथ्थाद् दे वस्तुपाल ! तुम्दारे मालतल में जिनाबा, खुख में सरस्वती, हृदय में दुया। हाथों में लक्ष्मी और अ्रीर में कान्ति विलास कर रही हैं। इमीलिये तुम्हारी नकीर्च अक्काजी के स्थान में ( अक्षलोक में ) मानों कोथधित
आपवू ३१ ]
ब्योकर के चली गई | अथीत् बस्तुपाल के अनेक गुणों से “उसकी कीतिं अ्द्मलोक तक पहुँच गई। सचमुच, वस्तुपाल पर सरस्वती और लक्तमी दोनों देवियों प्रसन्न थीं। उसके साथ दोनों भाईयों में उदारता का गुण भी असाधारण होने से उन्होंने दोनों शक्षियों का (सरखती और लक्ष्मी का ) इस प्रकार सदज्यय किया कि जिससे वे अमर ही हुए |
ये दोनों भाई दृढ़ श्रद्धालु जैन होने से, यद्यपि इन्होंने
जैन मन्दिर और जैन धम की उन्नति के कार्यों में अरबों रुपयों का व्यय क्रिया, परन्तु साथ ही साथ अन्यान्य साथ जीनिक व अन्य धर्मावलंबियों के कार्यो में भी अखूट "धन व्यय किया है। इन्होंने १८/६६,० ०,००० शजुंजय में, १२,८०,००,००० मिरिनार में, १२,४३,००,००० इसी
आय! पर लूणवसहि में खचे किये। इनके अतिरिक्त सवा
साख जिन बिंप, नव सो चौरासी पौपधशालाएँ, कई समव- सरण, कई ऋरह्मशालाएँ, कहे दानशालाएँ, मठ, माहेश्वर मन्दिर जैन मन्दिर, तालाब, बाबड़ियाँ, किले-आदि बन- चाये। कई जीर्णेद्धार किये और कर पुस्तक-मंडार बनवाये । 'तीर्यकल्प' के कथनालुस्ार, इनके बड़े-बड़े कार्यों की जो
कुछ नॉध मिल सकती है उस पर से श्न मद्ानुभादों ने ऐसे
हेड ] उपोदघात
बड़े पुएप कार्यों में कोई तीन अरब, चौरासी लाख, अठा- रह हजार के करीय घन व्यय किया है| इसका इतना घन- सचमुच हमें आश्रय सागर में डाल देता है ।
चस्तुपात् के चरित्र से हमें यह भी पता चलता हे फि-वे स्वयं अद्वितीय विद्वान थे, जैसा कि-मैं पहले कह चुका हूं। उन्होंने (वस्तपाल ने) संस्कृत के जो ग्रंथ बनाये हैं, उनमें मरनारायणानन्द् काव्य, ह्मादीम्वर सनो-+ रथमघं स्वोच्मम् ओर बस्लुपाल सुक्तमः ये तीन अन्य उपलब्ध होते हैं । (ये तीनों ग्रन्थ 'गायकवाड ओ रिये- शटल सिरोज! सें प्रकाशित हुए हैँ) ।
इसी प्रकार स्वयं विद्वान् दोकर विद्वानों की कदर मी वे” बहुत करते थे। कई विद्वानों को हजारों नहीं, लाखों रुपये सत्कार में देने के श्रमाण मिलते हैं | इनके समकालीन व पीछे के कई जेन-अजन विद्ध/नों ने इनकी विद्वच्ता, उदारता, आएर दान शीलता की प्रशंसा की है | इनके प्रशंसक विद्वार्नों- में सोमेश्वर कवि, अरिपंद कवि, हारिहदर, मदन, दामोदर, अम्रचन्द्र, हरिभद्र्गरि, जिनप्रभहरे, यशोचीर् मंत्री ओर माणिक्यचन्द्र आदि मुख्य हैँ । उनकी बनाई हुई स्तुतियों/ के कुछ नमूने ये हैं :--
आबू [ 3४
एक दिन सोमेश्वर कवि वस्तुपाल के मकान पर गहुँचे | वस्तुपाल ने आदर के साथ उत्तम आसन दिया) सोमेश्वर आसन पर नहीं बेठते हुए कहने लगेः-- *अन्नदानेः पयःपानेधमंस्थानेश्व भूतलम । यशसा बस्तुपालेन रुद्धमाकाश मण्डलम” | इस प्रकार स्तुति करके कवि ने फह्दा/-'इसलिये स्थाना- माव से में नहीं बेठ सकता! । दस्पुपाल ने प्रसन्न होकर नौ हजार रुपये इनाम में दिये। इसी सोमेश्वर ने अन्य स्थान पर भी कहा है+-- “एुच्छा सिद्धिसमुन्नते सुरगणे कल्पहुमेः स्पीयते, पाताले पवमान भोजनजने कट श्रणशे चलिः ।' नोरागानगमन् मुनीन् सुरभयश्िन्तामाणेः क्याप्यगाद, तस्मदर्थिकद्थनां विपहतां श्रीवस्तुपाल$ छितो ॥ (उपदेश तरद्विणी ) एक कवि ने यस्तुपाल में सातों वारों की कल्पना इस प्रकार की हैः-- «सूरे रणेपु, चरणप्रणठपु सोमः+ घक्तोडतिवक्चरितेषु, घुधोज्थे बोघे ।
हें ] उप्यद्धात
“ जीती ग़॒र।, कविजने ऋविरक्रियासु, सन्दो5पि च ग्रदमयों नदि बस्तुपालः 7 (उपदेश तरघ्विणी ) अआओोजिनहपंस्रि ने वध्लुपाल चरित्र में कह है।- . गिरी मच मात न कर्म नेव सकरे।
०
वस्तुपालस्प धीरस्य प्राणों विष्ठति मेदिना? ॥|
हक
लेजपाल की प्रशंसा करते हुए कहा है३--- अश्मूत्रे बत्तिः कृता पूछे दुर्गीसेदेन घीमता। विप्न्रे तु रूपा इचिस्तेजःपालेन मन्त्रिया! हरिहर कवि ने कद्दा ३-- “धन्य: स वीरघवलः पितिकेट्मारे- येस्पेदमद्अतमहो महिमप्रशेहः । दीप्रोप्ण दीधिति सुधा क्षिर॒ण प्रवीय॑ मन्त्रिदय॑ किल विलोचनतामपरैति” | अदन कवि ने कद्ा है:--
“पालने राज़्य लच्मीणां लालने च मनीपियाम् अस्तु श्रीवस्तुपालस्थ निरालस्यरतिमतिः” ॥ ( जिन हर्ष सूरिझस यस्तुपाठ चरित्र )
आवू [ शेर
इस प्रकार वस्तुपाल। तेजपाल की दान बीरता॥ 'बिद्दत्ता आदि गुर्यों की प्रशंसा कई जैन अजैन विद्वानों ने की है। बस्तुतः ऐसे महान पुरुष प्रशंसा के पात्र ही हें। क्योंकि इन्होंने न केवल जैन धर्म की ही सेवा की है बल्कि भारतवर्ष के समस्त धर्मों की भा सेवा की है। इन्होंने ऐसे २ नाये करके भारतीय शिल्प की रक्षा कर भारत का सुख उज्ज्वल किया है । आयाय् पहाड़ की इतनी झ्याति का स्वो- उधिक श्रेय इन्हीं दो वीर भारयों और विमलशाह को ही है।
यह आशा की जाती है कि छुनिराज श्री जयन्तविजयजी आबू के दूसरे भागों में इन महा पुरुषों के सम्बन्ध में विशेष प्रकाश अवश्य डार्ठंगे क्योंकि-आपने छ्मान्र् पर दौर्घ काल रहकर शिला लेसादि का बहुत ही संग्रह किया है।
आय! के सम्बन्ध में) जैसा कि में पहले कह चुका हूं, यों तो बहुतसी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, कई लेख भी छपे हैं, परन्तु इतना सर्वाह्ष पूर्ण ग्रंथ तो यद पहला ही है। ग्न्थकार महोदय ने “आदू! सम्पन्धी सर्वाह्र पूर्ण ड्तिहास त्यार करने में कितना परिश्रम किया है, यह बात इस प्रथम भाग से ओर अप निकालने वाले ग्रन्थों की योजना से सहज ही में समकी जा सकती है |
कद ] उपोद्घात
अब में अपने इस वक्तव्य को पूरा करूं, इसके पहले एक दो ओर बातों का उद्लेख कर देना सप्ुचित समकता हूं ।
इस पुस्तक के प्रष्ठ ४ से पता चलता है क्ति-मुनिराज श्री जयन्तविजयजी का यह कथन है कि भगवान् महावीर खामी अपनी छम्मखावस्था में ( सर्वज्ञ होने के पहले ) अबुद भूमि में बिचरे थे । झविहयसज्ञों के लिये यह नवीन और इवविचारणीय बात है । अभी तक की शोध से यद्द स्पष्ट हो चुका है कि इस मरुभूमि में भगवान् मद्ावीर खामी कभी भी नहीं पघरे। अब इस शिलालेख के आधार पर अंधकार इस नवीन बात को प्रकट करते हैं। इसकी सत्यता पर विशेष परामशे और शोध करने की आवब- श्यकता है ।
दूसरी बात--अंथकार ने स्वयं झायू पर स्थिरता करके- एक कुशल फोटोग्राफर के द्वारा खास पतंदगी के अच्छे अच्छे फोट लिबाये हैं, जो इस पुस्तक में दिये गये हैं। इन्हीं फोटूओं का एक सुन्दर आल्यम, चित्रों के थोड़े थोड़े परिचय के साथ पुस्तक ग्रकराशक की चरफ से निका- जलने की योजना कराई जाय तो यह फाये बहुत ही
अबू [ ३७
आदरणिय हेसकेगा | क्योंकि-आगशबू के फोटूओं का इतना संग्रह आज तक किसी ने नहीं किया ।
हमें यह जानकर बड़ी खुशी उत्पन्न होती है कि- मिस भ्रकार आबू पुस्तक की 'गुजरातोँ और “हिन्दी आधृत्तियाँ निकल रही हैं, उसी प्रकार इसका अंग्रेजी अलु- चाद भी हो रहा है। उधर आबयू! के शिलालेखों का एक भाग भी छप रहा है । ग्रंथकार के 'किड्चिद् वक्तव्याँ के अजुसार आय” पहाड़ के नीचे के जिन-जिन गांवों “ओर स्थानों से उन्होंने शिलालेखों का संग्रह किया है, उनका, तथा “आबू! सम्बन्धी प्राचीन कल्प, स्तोत्र, स्तवन बगरह का भी एक भाग निकलेगा। इस प्रकार अन्यकत्तो आयु! सम्बन्धी छः भाग प्रकाशित करायेंगे। अक्रैतनी खुशी की बात है ? कितना प्रशंसनीय काये है १
सचमुच मुनिराज श्री जयन्तविजयजी का यह एक मागीरथ अयल है । उनके इन भागों के निकलने से न फेवल “आयू! के ही विषय में, परन्तु अन्य भी अनेक शेतिहासिक बातों पर बड़ा दी प्रकाश गिरेगा ।
गुरुदेव, सुनिराज श्री जयन्तविजयजी की इस कामना को पण करें, यही घन्तःकरण से में चाहता हूं।
श्ष व] डपोद्घात
अन्त में--मनिराज श्री के अ्यल की जितनी प्रशंसा की जाय) उतनी कम्र है। उनका यह अद्भुत प्रपत्न है। इसमें न केवल जैन धर्म का, बल्कि सारे राष्ट्र का ग्रोरव है। पुनः भी यही चाहता हुआ क्वि-मुरुदेव, ग्रंथ- कार उनके आगामी कार्यों को बहुत शीघ्र तस्यार और प्रकाशित कराने का सामथ्ये अप॑य करें, में अपने वकृव्य को यहां ही समाप्त करता हूँ। स्रदारपुर छावनी, ( ग्वालियर स्टेट )
फाब्गुन बदि ५ बीर से० २४४५६, ' विद्याविजय चसे खें० शृश् ता» १३१-३१-३३६
९
अं 8288:88:४:78४$%६ £ विषय सूची 5 अल अं 4328: 70::5:र६ विपय आबू-- १ आयू २ राष्ता ३ वाहन ४ यात्रा टकस ( मूडका ) धू देखवाड़ा विभलवसहि-- १ विमछ मन््त्री के पूर्वन २ पिमल ३ विमलबसद्ि ४ नेढ़ के वशज प्ू जौयोंद्वार 2०० 2 यूर्त्त संज़्या तथा विशेष विवरण ७ द्यों की रचना «..
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ढ़
श्र १५२ श्व्य
श्ध् २८ ३१ १५ के& श्र ष्डे
४० ] पविपय सूची
विषय
खिसलवसहि की हस्विशाला
श्री महावीर स्वामी का मंदिर
लूणबसहि--
१ मंत्री वह्तुपाल-तजपाछ के प्रूवेज महामात्य श्री बर्तुपाल-तेजपाल चौलुक्य ( सोलंकी ) राजा थावू के परमार राजा
् । ४ 4 दछणवसद्धि. -«- ६ मन्दिर का भंग व जीर्णोद्धार ७ मूर्त्ति संझ्या शोर विशेष हकौकत रू हफ्तिजश्ञाठ. --- £ भारों की रचना -« १० छणवस्तद्वि के बाहर ३९१ शिर्नार की पाच दूवंके चलदर ( भीमाशाद का मन्दिर )-- ९ पित्ततहर (भीमाशाह का मन्दिर) २ मूत्ति संजया व विशेष वितरण
३ पिचछदर के बाहर
#०क
बन
हद १०६
१०७ १०६ ११२ ११४ ११५ श्२र् १२२५ श्र १४७
५१६७
श्द्दद
श्ज्ष् १७६ श्टरे
आदू विषय वखरतखसहदि ( चौमुसजी का मंदिर )-- १ खरतरबत्तद्दि ( चैमुखजी का मन्दिर ) २ मूर्सि संझ़््या व विशेष विवरण न 'देलबाड़े के पांचों मंदिरों की मूर्तियों की संख्या ओरीया ««« न बडे श्री महावीर स्वामी का मंदिर ०६० 'झचलगढ नग्न ग्ल्न झअवलगढ के जैन मन्दिरि-- १ चौमुसजी का मंदिर ल््रः
२ भरी चादीश्वर भगवान का मंदिर... ...
३ थ्री ठुयुनाथ मगयान का मंदिर ४४४
४ भरौ शाम्तिनाप मगवान का मंदेर ....
“अचरतागठ भर भोरीया फे जन मंदिरों
फी मूर्तियों फी संख्या की
दिन््द् दोये बया दशनोय स्पान-- ( भ्चलगढ़ ) १ झापय-माद्रपह. «««
२ चाप्मुद्य देषो न
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[४१
श्च्प् श्च््ध श्ध्३ श्ह्८
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२०२
२०७ २१४ २१६ रश्६
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श्र ३२२५
४२) * विषय यची
>विषय डे ३ ३ अचटगदढ दुर्ग र '9 दरिथद् गुफा... ५ अचढेश्बर महादेव का मंदिर 8 भतृहरि गा. .... ७ रेती ठुएड.. #... * ये भूगु आश्रम. #...
(भोरीया) ६ फोटेखवर ( कनखडेश्वर ) शिवालय
१० भौत शुका ०० १९ गए शिखर पी
(द्वेलवाड़ा)
१२ देवर ताछ बन ३-१४ कन्या कुमारी और रसीया वालम ७०१६-१७ नह गुफा, पाएडव गुफा ओर
मौनी बाबा की गुरझा
रृष्ट सत्र सरीवर बडे
१६ झधर देवी न
२० पाष कदेश्वर महँदिव
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डर श्श्ष २२६
श्श्र श्श्श
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श३६- २२७
श्श्घ
२३६. २४०-
झावू विषय
आयू फ्रेम्प [ सेनिटोरियम २१ दूधबाबड़ी ब्न्न २२ नखीताठाब. «««
२३ २४ शरण २६ २७ श्प्र श्द ३० ११ ३२ ३३ २५ ३५ ३२६ ३७ श८
रघुनाथजी फा मंदिर
दुडेश्वरजो का मंदिर
पा गुफा मर रामप्तरोखा भर हस्ति गुफा कं गम दुएड नग्न गोरक्षिणी माता ««
टॉद रॉक ४०
झायू सेमीटोरियम € ध्यान कैम्प ) बाडिन वाक ( बेलिज का राप्ता )
दिश्लाम भवन. ««« रोऐ॥स सूछ... «-«« गिरजा-पर ््सश राश्पूतामा होटठ .. राजदताना शठब ....
मन रोू ४
"४४ ३ विषय सूची
५. विपय न्त्श्ठ ३६ क्रेग्ज ( चट्टमें *«. २५१ ४० पोछों ग्राउण्ड बन, 4 इक २५२
<४१-४२-४३ मह्जिद, इंदगाह तथा कबर ««« भर
» ,४४ सनसेठ पोइण्ठ . ««»« हट के ४५ पाडनपुर पोइण्ट . «- ब्न्न शुफ्र३
-( देलवाडुए तथा आतू कैम्प से आतज्रोड )
४६ दूंढाई चौकी ».. रेध४ ४७ आबू होई स्कूछ पक गन श८ जेन पमेश्ञाल ( आरणा तलेठी > .,.. ९५४५ ४६ खत घूम ( सप्त घूम 3 बह कक 5५००-५१ छीपा बेरी चौंकी और ढॉक बंगठा .... २५६ ४२ बाघ नाठा ४०४ न २५७ ७३ महांदेव नाठा .... 25५ त्ञ धरूछ शान्तिन्माश्रम. .... बन छः
-५५-५६ अ्याछा देवी की गुफा भोर जैन मन्दिर के खण्डदेर ब्_.. रेफर ७७ टावर शॉफ सायडेन्स *«|«: ६१ ध८ भा (करा). ... पे) रू 9
आवू [ ४४० विषय
घट १६-६० अनपुर जैन मन्दिर व डॉक घेंगला २६१ ६१ हपीकेश (रखीकिशन) हि २६३
६२ भद्गकाडी का मन्दिर और जैन मंदिर के खण्डहेर २६४ ६३ उबरनी मर २६५. ६४ बनास-राजवाड़ा पुर ( सेनीटोरियम ) २६६ ६५ खराड़ी (भाबू रोड)
३००
99
(देलवाड़ा तथा आवू के पास अणादरा )
६६ आबू गेट ( अणादरा पॉइण्ट ) ... रध्द- ६७ गणपति का मन्दिर घ४ ह हट क्रेग पॉइण्ट ( गुरुगुफा ).. -«« २६६ ६६ प्पाऊ 325 2३%. $ ७०-७१ अणादरा तडेटी और डाक बंगला २७० ७२ अणादरा
न्ब्न 99
आवू के ढाल ओर नीचे के भाग के स्थान ७३-७४ मौमुख और वशिष्ठाश्रम ७५ जमदा्ने भाश्रम ७६ गौतम आश्रम ७७ माधव आश्रम
०० २७९ ई २७५.
०१०
न्न्न बन
६] विषय सूची
खिषय ७८ वास्थानजी कक न ७६ क्रोडीधज ( कानरीघज ) रे ८० देवागणजी बस कर “उपसंहार-- “परिशिष्ट--
पूह २७६ २७७ र्ण्य श्ट०
१ जैन पारिमाषिक तथा अन्यान्य शब्दों के झथे २८७
२ साकेतिक चिट्दों का परिचय
र६५्
३ सोलद्द विद्यादिव्रियों के वर्ण, वाहन् पिन्द्र आदि २६६ 9 शाज्ञाएँ (चमड़े के बूठ तथा दशकों के नियम) २६७-३०५
४“ देलवाडे के जैन मन्दिरों के विषय में
कुछ अमिप्राय ३०६०--३२०
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३ आचार्य श्री विजय धर्मसूरीश्वरजी महाराज. ««««
२ मुनि थ्री जयन्त विजयजी
“३ विमछ-वसहि के ऊपरी हिस्से का दृष्य बब*-
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2१ अलसी, छए्एटए शाणपएल.. «०» » गैंल गम्भारा और समा मंडप आदि _.... » गर्भागार स्थित जगत्यूउय-श्री हरीविजय- सूरीश्वरजी महाराज ब्द » गेह मण्डप स्थित बॉये ओर की श्री- पाश्वनाथ मगवान् की खदी मूर्पि » ग्रह मण्डप में (१) गोशछ (२) सुहाग- देवी (३) गुणदेवी (9) महणा वेद (५) मीणलदेवी हब ७ नव चौकी में दाहिनी ओर का गवाक्ष ... » देरी १० विमछ मंत्री और उनके- पूर्व
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भ्८ ] चित्र-घची से नाम ११ विमल वसहि देहरी २० समवतरण ब्भड शेर ,, » देहरी २६ घम्बिका देवी चत १६ ,, ५ देदरी ४४ सपरिकर श्री पाश्चनायव- मगवान् 4६ १४ ,, +» देंदरी 9६ चतुर्देशति निन पह ... १५ ,, +» द्ष्य नं० ३ «४५ १६ + 99 न० २ न्न्न १७ ७ $ 39 ने० ५ सभा मणइप में १६ विद्या देवियों. .«« ऑैंय 9 59१ 9 नों० ६ भरत धाहुबलि युद्ध ..,- श्ह +9+ 3 नं० ६ न्न्न २० , 9७ $9 -० १० आई कुमार हत्ति- प्रतिबोधक २१ ,, +9 9» ने० ११ ४ र२रे ,, +॥ ?७ नं० १२ख मंडल २३, 3 38 ने० १४ के 2०४ श४ ,६ 3, 37 न॑० १४ ख बढ २४५ ,, |, ४ नगो० १४ पंच कल्पयाणशक .,..,
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नाम पृष्ठ विमलबसहि, दृष्य नं० १६ नल... दर को ॥ २१ श्रीकृष्ण कालिय अद्दिदमन दुद 99 # ३६ ओऔरीकृष्ण नरसिंद्यावतार ध्र डे 8 रे७. ००० बब्क ६३२ 9... की हस्तिशाडा में अश्वारूढ पिमल मंत्रीश्वर ६८ 9. $$ गजारूढ़ महामंत्री नेह १०२ दछणवसहि की हत्तिशाछा में महामंत्री-
वस्तुपाल-तैजपाल के माता पिता १०८:
छणवसहि की हत्तिशाण्ण में महामंत्री वस्तुपाछ
ओर उनकी दोनों ल्लियां ११०
दणवसद्दि की दृस्तिशाला में मद्दामंत्री
तनपाछ और उनकी पत्नी अनुपमदेवी १११ का भीत्तरों दृष्य ११६ मूलनायक श्री नेमिनाथ भगवान् श्श्र गूढ़ मंडप स्थित राजिमती की मूर्सि श्र नवचौकी और सभा मंडप आदि का एक दृश्य १२४ देहरी १६ अश्वाववोध व समली विहार तीर्थ १९८,
“की दस्तिशाडा में श्याम वर्ण के चौमुलनी १३५
| 93 का एक हाथी १३६
कण है चित्र-सची
ने० नाम प्प्ठ
३ दुणवन्नद्दि कौ इत्तिशाल में १ उदयप्रमसूरि, >>... विजय सेनसूरी ३ मंत्री चडप, ४ चापलदेवी १३ हि ४४ दावे, नवचौकी में दाहिनी ओर का गवाज्ञ १९ श्ष्ट ४५ ॥,; र््ृश्य १० भोतरी हिस्से की सुदर कोरणी १५०- ४६ + परेय हर श्रीकृष्ण जन्म का दृश्य २५० ४७ ७ $ १३ (क) श्रीकृषष्ण गोकुल भर १५२५ 9. ४9. (ख) वसुदेवजी का दरवार १५२५ 9३ रै८ श्री द्वारिका नगरी और समवसरण १५४७
ध्पघ. +# ४६ +» ४७9 रैरे भरी भरिष्ट नेमिकुमार की बरात १५७ पूछ है ह >ेठे राज वैभव २१५६ प्१५ 9 #? रेश वरधोड़ा आदि १६० ध्रूए। 9. के बाहर कौर््तिस्थम्म १६७
४९३ श्री पिचलछद्दर ( भीमाशाह्व के मन्दिर ) के मूछनायक श्री ऋषमदेव भगवान् १७६
धू४७ . ५» स्रीपृब्रीक स्वामी १७६ प४ श्रीखरतरवसहिं का बाइरी दृश्य न. श्द५ प्र गज का भीतरी इश्य न्नन्. रैदके प्ज के चतुर्मुख प्राघाद पश्चिम दिशा
४४ के मूलनायक मनोरथ करपट्ठम धर
औ पर्शनाथ भगवान्... «... १८६
।
आओ [हः न्नू० नाम पृष्ठ थूट श्रीखरतरवंसेहि में च्यवन कत्यायक भौर चौदह स्व्तों का दृश्य न्न्न. १६०
१९ अचढछगढ़ मूठनायक श्रीशान्तीनाथ भगवान् --. २१६ ६०. +» भ्रीअचेरखर महादेव का नंदी (पोठिया)-.. २३० ६१ , » परमार घाराबषों देवभौर तीन महिद्द ... २३१ ६२ ग़ुरुशिखर गुरुदत्तात्रेय की देहरी और घमेशाला .... २३४
६३ देवर तोक ग २३६ ६४ देखवाड़ा श्रीमाता-(कुँआारी कन्या) »»« शेमे७ ६५ - # रसिया वाढम बल शेश्८ ६६. »$ सम्त सरोवर «२३६. ६७ आनू कैम्प-नखीताछाब न. १४२ धंद. ५ टोड रॉक *« २४६ ६६ » गिरजाघर न. २०१ ७० १ राजपूताना कब न्न २७५१ ७१ ५ नन रोके न. २७१ रे सनसेटठ पायएट »«». रेपर
७३ आावूरोद-योगनिष्ट श्रिशांतिविजयजी महाराज -... शृपूष्य ७४ आगू-गीमुख ( गौमुखी गंगा ) *.. २७२
विननगन2नजअ>२>२>43.
20270: श्््ड्््श््क्ल्ो है 2003: <//
हक आबू ः
"उप "व 'क आह: 7 का-पव आए जा -अ उन आ- डे ।
नत्वा तं श्रीजिनेन्द्रा्ं निषक्रोधहतकसकम। सर्मसूरिशुरुं सुख्य॑ स्मत्वा जैनीं तथा गिरम्॥१॥ वर्णनमबुदाद्रेहि जगनज्ने त्राहिम थुतेः । 'किखिलिखामि नामूल लोकोपकारहेतवे ॥ २॥
( थुग्मम )
केवल भारतवपे में ही नहीं, किन्तु यूरोप (8०:००) अमेरिका (8#ए८7००) आदि पाशथात्य देशों (7०४छ% ००ए०१७७) में भी आबू पव॑त ने अपनी अत्यन्त रमणीयता एवं देलवाड़ा के सुन्दर शिल्पकला युक्व जन मन्दिरों के इारा इतनी ख्याति प्राप्त करली है कि उसका विस्तार-पूलेक चर्णन करना अनावश्यकसा अतीत होता है । इसी कारण से विस्तार-पूवेक न लिखते हुए संचेप में कहने का यही है कि. आबू पवेत-(१)देलवाड़ा और अचलगढ़ के जैन मन्दिर, (२) शुरुशिखर, (३) अचलेम्वर महादेव, ' (४) मन्दाकिनी कुण्ड, (५४) भठेहरि की शुफाई,
(२)
(६) गोपीचन्दजी की' शुफा, (७) कोटेश्वर (कतसले- श्र) महादेव, (८) श्रीमाता (कन्याकुमारी )। (६) रासियाधालम, (१०) नलशफा, (११) पॉडवर्शाफा, (१२) अडुदादेवी (अधर देवी), (१३) रघुनाधजी का सन्दिर (१४) रामझरोग्वा, (१४) रामकुणड, (१६) चशिष्ठाक्षम, (१७) मौझग्वीगंगा, (१८) गौतमा++ ख्रम (१६) साधवाश्मम, (२०) घास्थानजी, (२१) ओड़ीघधज, (२२) ऋपी केश, (२३) नस्वीतालाव,(२४)' ओर पॉयरट (गुरु शुफा) आदि तीर्थों (जिनका वर्णन भागे (हिन्दूतीर्थ और दशनीय स्थान नामक यन्तिम प्रकरण में आयेगा) के कारण प्राचीन काल से ही जिस प्रकार जन, शव, शाक्त/ पैष्णवादि के लिये पवित्र एवं तीथे खरूप है+ बैसे ही अपनी सुन्दरता एवं स्वस्थ्य दायक साधनों के कारण राज़ा-महाराजा और यूरीपियनों में भी सुबिख्यात है । भोगी पुरुषों के वास्ते बह भोग-स्थान और ग्रोगी पूरुपों के चारुते योगसाधना का एक अपूर्े घास है। बह नाना अ्रकार की ज़ड़ी बूंदी व औपाधियों का भस्डार:है | बाग बगीचे, आक्ृतिक भाड़ियाँ, जेंगल, ,नदी, नाले और मरणा[दि;से अत्यन्त सुशोमित है।,ज़द्ां थोड़ी २/दृर,पर आम-फुरोंदाः आदि नाना,प्रकार के फ्लो के इत्त तथा चम्पा।;मोगरादि,
(३)
थुष्पों की काड़ियां आगन्तुकों के हृदयों को अपनी शोभा से आहादित करती हैं, और स्थान २ पर कूप, बावड़ी, तालाव, सरोबर, कुएड, गुफा आदि के दृश्य भी आनन्ददायक हैं।
उपर्युक्ष तीथस्थान तथा बाह्य सुन्दरता के कारण आबू पर्वत, यदि से पर्व॑तों में श्रेष्ठ एवं परम तीर्थ खरूप माना जाय तो इसमें कोई विशेष आश्र्य की बात नहीं है। आबू आचीन तथा पवित्र तीथे है । यहां पर कतिपय ऋषि महर्पि लोग आत्म-कल्याण तथा आत्म-शक्ियों के पिकास के लिए नाना प्रकार की तपस्याएं तथा ध्यान करते थे। आज कल भी यहां अनेक साधु-सन््त दप्टिगोचर होते हैं, परन्तु उन साधुओं में से अधिछ्लांश साधु तो याद्याउम्बरी, उदरपूर्ति और यश-कीर्ति के लोभी श्रतीत होते हैं। जम हम शुफारय्ये देखने गये तब हमने दो चार गुफाओं में जिन व्यक्तियों को योगी, ध्यानी एवं त्यागी का खरूप धारण किये देखा, उन्हीं महाजुभावों को दूसरे समय आबू कैम्प के बाजारों में पानवालों की दुकानों पर बैठ कर गप आप करते, पान चबाते ओर इधर उघर भटठकते हुए देखा। अत्तेमान समय में आत्म-कल्याण के साथ परोपकार करने की भावना से युक्त सचे साधु-महात्मा. तो बहुत ही कम दिखाई देंते हैं। आदू पर्वत पर तेरहवी शवाह्धि में घारह
(४)
गांव बसे हुए थे। आज कल भी लगभग उतने ही शांब' विधमान हैं। आबू पर्वत पर चढने के लिये रसिया चालम ने धारद मागे चनाये थे, ऐसी दन्तकथा# है| भारतवर्ष में दक्षिण दिशा में मीलगरिरि से उत्तर दिशा में हिमालय और इनके बीच के प्रदेश में आबू को छोड़ कोई भी पर्वत इतना ऊँचा नहीं है मित्र पर गांव बसे हों। अभी झात्रू परत के ऊपरी भाग की लम्बाई १२ मील और चौड़ाई ,२ से २ मील तक की है। समुद्र से आबू कैम्प के बाज़ार के पास की ऊँचाई ४००० फीट तथा शुरुशिखर की ऊँचाई ५६५० फीट है, अर्थात् आबू पर्वत का सब से ऊँचा स्थान शरुाशिखर है। आयू पर चढ़ने की शुरूआत करने वाले यूरापियनों में कर्नल टॉड पते गणना सब से प्रथम की जाती है। प्राचीन काल में वशिष्ठ ऋषि यहां पर तपस्या करते थे। उनके आम्रिकृए्ड में से परमार, पड़िदहार, सोलंकी और चौहान नामक चार पुरुषों फ्रा जन्म हुआ था, उनके
& ०हित्दु सीथं और दर्शनीय स्थान” मसामर प्रकरण में (१३-१४ ) "कन्याकुमारी और दसतियादालम ” के वर्णन के नीचे को
छुटनोट देखो ।
(६ ५०)
अंशजों की उक्त नामों की चोर शाखायें हुई, ऐसी राजपूर्तों की मान्यता है।
आबू परत पर सं० १०८८ में विभलशाह ने जैन मंदिर निमोण कराया। यधपि उस समय इस परत पर अन्य फोई जैन मंदिर विद्यपान नहीं था, पहतु प्राचीन * अनेक ग्रन्थों से निश्चित होता है कि महावीर प्रश्ु के ३३ वें पाट के पट्टथर विमलचमन्द्रहरि के विनेय (शिष्य ) अडगच्छ ( इद्गच्छ ) के सैस्थापक उद्द्योतनसूरि यहाँ . पर जि० सं० ६६४ में यात्राथे पथरे थे। इस से यहां थर जैन मन्दिरों के अस्तित्व की संभावना की जा सकती हीै। संभव है कि उसके बाद ६४ वर्ष के अन्तर में जैन मंदिर नष्ट हो गये हों। हाल में ही आबू की तलहटी में आबूरोड स्टेशन से पश्चिम दिशा में ४ मील की दूरी चर भूंगथला (मुंडथल महातीथ ) नामक ग्राम के गिरे हुये एक जन मन्दिर से हमको एक प्राचीन लेख मिला है। जिससे मालूम होता है कि-भगवान श्रीमद्मत्रीर स्वामी अपनी छम्रय अवा में ( सबैज्ञ होने के पहिले ) अर्वुद् भूमि में विचरे थे। भगवान के चरण स्पश से अवित्र हुए आयू और उसके आसपत्स को भूमि पवित्र शी स्वरूप माने जाए तो इसमें क्या आशय है? उपंयक्त
(६)
कथन से यह सिद्ध होता है कि विमलशाह ने यहां पर जैन मंदिर बनवाया उससे पहले भी आजू जन तीर्थ था। ' शात्रों में आबू के अबुदग्रिरे तथा नंदिवर्धन नाम दृए्टगोचर होते हैं। आयू पर्वत की उत्पत्ति के लिये हिन्दू धर्मशास्रों में लिखा है, और यह बात हिन्दुओं में बहुत अप्िद्ध भी है प्र प्राचीन काल में यहां पर ऋषि तपस्या करते थे, उन तपख्ियों में से वशिछ्ठ नामक ऋषि की कामधेलु - गाय उत्तंकऋणषि के खोदे हुए गहरे खड़े में गिर पड़ी। गाय उसमें से बादिर मिकलने को असमर्थ थी, किन्तु खर्य कामभेल होने से उसने उस खाई को दूध से परिएणे किया और अपने आप तेर कर बाहिर निकल आई । फिर कभी ऐसा असंग उपस्थित न हो इस वास्ते वशिष्ठ ऋषि ने हिमालय से प्राथेमा की; इस पर हिमालय ने ऋषियों के दुःख को दूर करने के लिये अपने पुत्र नन्दि- वर्धन को आज्ञा की | वशिष्ठजी नन्दिवर्धन को अबुद सर्प द्वारा बहां लाये और उस सड्डे में स्थापित करके खड्डा पूर दिया, साथ ही अर्बुद सर्प भी पर्वत के नीचे रहने सगा। (-कद्दा जाता है कि वद्द अबुद सर्प छः थः महीने में चाजू
(७)
फेरता है उसही से आयू पर्वत' पर छः छः मंदीने के अन्तर से भूकम्प होता है)-इसी कारण इस गिरि का अबुद तथा नन्दिवधेन नाम प्रसिद्ध हुआ होगा नन्दिवर्धन पर्वत अबुद सपे द्वारा चहों लाया गया उससे पहिले भी यह भूमि पवित्र थी, यह बात स्पष्टतया निश्चित है। क्योंकि यहाँ पर पहिले भी ऋषि तपस्था करते थे।
रास्ता---राजपूताना मालवा रेलये होने के पहिले आयू पर जाने के चास्ते पश्चिम दिशा में (१) अनादरा तथा पूर्व दिशा में (२) खराड्री-चन्द्राववी, यह दो मुख्य मांगे थे। अनादरा, सिरोही राज्य का प्राचीन गॉव है, और वह आगरा से जयपुर, अजमेर) ब्यावर एरनपुरा, सिरोही, डीसाकेम्प होकर अहमदाबाद जाने वाली पकी सड़क के फिनारे पर बसा है # | यहां पर श्री महावीर खामि का प्राचीन जैन मन्द्रि, जन धमेशाला आर पोस्ट ऑफिस इत्यादि हैं।
# यह सड़क प्रिरिश गवनेमेण्ट द्वारा ईं० सन् १८७१ से १८७६ के दीच मे बनाई गई है। सिरोही राज्य की सीमा में यह सदक आजकल
जीर्ण हो गई है. कई स्थानों मे तो सड़क का नाममोनिशान भा नहीं है, केघल मील सूचक पत्थर भवश्य लगे हैं ।
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(छ )
आधू रोड (सरादी ) से आबू कैम्प तक की पक्की सड़क बनने से अनादरे का मार्ग सौण हो गया-झुख्य न रहा, तो -मी फिरोहदी राज्य एवं समीपवर्ची ग्राम के लोगों के लिये आही मांगे अनुरूल है। आयू कैम्प वासियों के लिये दूध, घी, शाकादि वस्तुएँ प्रायः इसी मांगे द्वारा ऊपर लाई जाती दें, इसी कारण से यद्द मागे बराबर चालू है। अनादरा गांव से कच्चे मार्ग पर पूप्ते दिशा में लगभग १॥ मील चलने पर सिरोही स्टेट का डाक बंगला मिलता है; पहां से आधे मील 'फ्ी दूरी पर आबू फी तलेदी दे # । यहां से त्तीन मील ऊँचा चढ़ाव है। चढ़ने के लिये छोटे नाप की कचीसी सड़क बनी हुई है जिस पर बोक लदे हुवे बैल, पाड़े व घोड़े शासानी से चढ़ सकते हैं। बीच में देलवाड़ा जन कारखाने की त्तरफ से स्थापित की गई पानी की प्याऊ मिलती है। मार्ग में कई एक स्थानों पर भील लोगों के छप्पर भी इषप्टिगोचर होते हैं। घन होने के कारण प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त रमणीय लगते हैं। ऊपर पहुँचने पर वहाँ से आवू कैम्प का बाज़ार १॥ और देलप्राड़ा ? मील दूर है, जहां
अ यात्रियों की अनुकूलता के लिये अमी यद्वों एक जैच घर्मशाला अनाने का कार्य आरंभ छुआ है। देलवाढ़ा सैन कारखामे की ओर से यहां
शक पानी को प्याऊ सी दै।
"(७ )
जांने को पकी सड़कें हैं। सीधे देलवाड़ा जाने वाले की लखी तालाव तथा कमर के समीप से देलवाड़ा को सड़क पर होकर देलवाड़ा जाना चाहिये। दूसरा मार्ग आयू रोड ( खराड़ी ) की तरफ से है । सिरोही के महाराव शिवासिहजी ने वि० सं० १६०२ € सन् १८४४ ) में आयू पवेत पर अंग्रेज सरकार को सेनीटोरीयम ( स्वास्थ्यदायक स्थान ) बनाने के वास्ते १४ शर्तों पर ज़मीन दी। फिर सरकार ने छावनी स्थापित न्की, तत्पथात् आबू कैम्प से खराड़ी तक १७॥ मील की स्लम्बी पकी सड़क बनवाई | ता० ३० दिसम्बर सम् १८८० के दिन 'राजपृताना >मालवा रेल्ये! का उद्घाटन हुआ, उस समय खराड़ी ( आबू नरोड ) स्टेशन स्थापित किया गया; तब से यह मागे विशेष उपयोगी हुआ। इस सड़क के बनने के पहिले यद् मागे बहुत “विकेट था। हाथी, घोड़ों ओर चैलों द्वारा सामान ऊपर भेजा जाता था। कहा जाता है कि देलबाड़ा जन मन्दिर सके बड़े बड़े पापाण हाथियों पर लाद कर चढ़ाये गये थे | सड़क बन जाने से अग्र चह विकटता जाती रही। यद्यपि
( २० )
बैलगाड़ी के साथ रात्रि में चौकीदार की आवश्यकता होती है; परन्तु दिन को ज़रा भी भय नहीं है। खराड़ी गांव में अमीमगंज निवासी राय बहादुर श्रीमात् बाबू बुद्धियिंदजी दुर्घेड़िया की बनवाई हुई एक विशाल जैन धर्मशाला है, जिसमें एक जैन मन्दिर भी विद्यमान है, म्ुनीम रहता है, यात्रियों को दर तरह का सुभीता है। जन धर्मशाला के पीछे हिन्दुओं के लिये एक नई तथा अन्य अनेक धमशालायें हैं । आबू रोड से ४॥ मील दूर, आयू केम्प की सड़क - पर मील नम्बर १३-३२ के पास / शान्ति-आश्रम ” नामक एक सार्वजनिक जैन धर्मशाला अभी बन रही है, जिसका लाभ सभी मुसाफिर से सकेंगे । आबू रोड से १३॥ मील उपर चढ़ने पर एक घमशाला आती है, वह आरणा गांव में होने से आरणा सलेटी के नाम से ग्रसिद्ध है। वहां पर जैन साधु साध्यी आर यात्री भी रात्रि को निवास कर सकते हैं । यात्रियों के लिये हर तरह का प्रबन्ध है। यहां पर जैन यात्रियों फो भाता ( नाश्ता) ठथा गरीबों को चने दिये जाते हैं। यहीँ की देख रेख अचलगढ़ के जैन भंदिरों के श्वन्धक रखते हैं!
(+»११ )
, जहां से आयू कैम्प १ मील शेप रहता है, वहाँ ( हूँढार चौकी के समीप ) से देलवाड़ा की एक नहे सीधी सड़क महाराब सिरोही, महाराजा अलवर, जैन संघ तथा गवने- मेएट की सहायता से थोड़े ही समय से बनी है। इस सड़क- के घन जाने से आथू कैम्प गये बिना ही सीधे देलवाड़ेः तक याहनादि जा सकते हैं। जब यह नह सड़क नहीं घनी थी, तब जैन यात्रियों को अधिक कष्ट सहन करना पड़ता था। देलवाड़ा जाने वाले को आबू कैम्प नहीं जाने देते थे। इस कारण से गाड़ी-तांगे वाले, जहां से मई सड़क प्रारम्भ होती है, उसी स्थान पर जंगल में यात्रियों को उतार देते थे । मजद्र कुली आदि सी कभी कभी नहीं मिलते थे। यात्रियों को १॥ मील तक सामान उठा कर पैदल पहाड़ी मागे से जाना पड़ता था। उपयुक्त कष्ट का अजुभव इन पंक्वियों के लेसक ने भी किया है। परन्तु नहै सडक बन जाने से यह सब कठिनाइयां दूर हो गई ।
इन दो भागों के अतिरिक्त आबू के आसपास के चारों तरफ के गांवों से आयू पर जाने के लिये अनेक सुश्की पगडण्डी मार्ग हैं, किन्तु उन मार्गों से भोमिया ओर चौकीदार लिये बिना आना जाना भययुक्त है।
४ ह३ )
“सुख्यतया जंगल में निवास करने वाली भील आदि ऊाति के लोग भी ऐसे मार्गों से भिना शल््र लिये आते जाते नहीं हैं।
आदू कैम्प के आसपास चारों तरफ और आएू कैम्प स्से देलबाड़ा होकर अचलगढ़ तक पकी सड़कें बनी हुई हैं ।
वाहन---आधूरोड ( खराड़ी ) से शायर परत्रत पर
जाने के लिये वाहन ( सवाएियां ) चलाने का गवनेमेण्ट “की तरफ से ठेका दिया गया है, इस कारण से ठेकेदार के “अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति किराये पर बादन नहीं चला -सकता है। आधूरोड स्टेशन से, आतबू पर्वत पर दिन में दो -ब्रक्त सुबह-शाम किराये की मोटर नियमित आती जाती हैं । सके लिये आबूरोड और आयजू केम्प में ठेकेदार के ऑफिस “मे चौबीस घंटे पहले छचना देने से फटे, सैकएड या -थईड क्लास के टिकिट प्राप्त कर सकते दें। यदि मोटर में जगह हो तो धचना न देने से भी जगह मिल जाती है | इसके
अलावा स्वतंत्र मोटर अथवा बैल गाड़ियों के वास्ते २४ घण्टे
"पहिले नीचे उतरने के लिये आधू फेम्प में और ऊपर चढ़ने के चास्ते खराड़ी में ठेकेदार के ऑफिस में, छचना देने से म्याहन मिल सकता है । मोटर चाजे गवनेमेए्ट की तरफ़ से प्रमिश्चित किया गया है । यात्रियों से ऊपर जाने के लिये थडे
( १३ )
क्लास के १॥) रु० तथा दोल-टैक्स के ।) याने कुल २) रु०- लिये जाते हैं। आवू पर रहने बालों से दोल-टेक्स माफ होनेः के कारण १॥॥) रु० लिये जाते हैं। ऊपर से नीचे आने” वाले प्रत्येक मनुष्य से १॥) ₹० लिये जाते हैं। आने जाने के लिये रिठने टिकट के ३॥०) रु० लिये जाते हैं, जो कि एक महीने तक चल सकता है। आया कैम्प से देखवाड़ेः तक आने अथवा जाने के लिये बारह सवारी के मोटर का चाजे ३) रु० ठेकेदार लेता है, बारह से कम सवारी, हो तब भी पूरा तीन रुपया देना पड़ता है। बाद में सिरोही स्टेट की ओर से फी मोटर आठ आने का नया टैक्स लगाया" गया है, जिसको ठेकेदार यात्रियों से वश्नल करता है।
देलवाड़े से अचलगढ़ जाने के लिये किराये की बेल गाड़ियां व घोड़े, जिसका ठेका सिरोही स्टेट की ओर से” दिया गया है और किराया भी निश्चित किया हुआ है)- ठेकेदार द्वारा मिलते हैं; तथा आवू पर्वत पर सर्चत्र अमणः करने के लिये रिक््सा ( एक प्रकार की ठमठम जो आदमी: द्वारा खींची जाती है ) किराये पर मिलती है!
अनादरा के मांगे से आबू जाने के लिये अनादरा_ गांव में; किराये के घोड़े मिल सकते हैं। इस मार्ग पर
( हे४ )
सड़क चौड़ी और पक्की बँधी हुई नहीं है। इस कारण पोढ़े के अत्तिरिक्त अन्य वाहन ऊपर नहीं जा सकते हैं ! यहां पर किराये की सवारियों के लिये स्टेट की तरफ से ठेका नहीं दे । इस ग्रकार वाहनों का ठेका देने का हेतु सरकार किंवा स्टेट की तरफ से यह प्रगठ किया जाता हैं कि “मेला आदि किसी भी प्रसंग पर यात्रियों को उनकी आवश्यकेताजुसार बाहन विशित रेट पर मिल सकें” यद वात सत्य है, किन्तु इसके साथ ही अपनी आय की इद्धि करने का द्वेत भी इसमें सम्मिलित है। यात्रियों का सचा द्वित तो तब ही कहा जा “सकता है जब्र कि राज्य ठेकेदारों से किसी श्कार का कर लिये पिना यात्रियों को वाहन सस्ते में मिल सके, ऐसा प्रबंध करें । यात्रा टैक्स ( मूंडका )--देलगाड़ा, गुरुशिखरः अचलगढ़, अधरदेवी गौर वशिप्लाश्रम की यात्रा करने च देखने को आने पाले सब लोगों से सिरोही राज्य द्वारा फी मनुष्य रु० १-३-& यात्रा टैक्स लियाजाता है । उपर्युक्त पाँच स्थानों में से किसी भी एक स्थान की आजा करने व देखने के लिये आने वालों को भी पूरा कर देना पड़ता हैं। एकबार कर देने से बह आबू पर्वत के अत्येक्त तीथे फी यात्रा कर सकता है। आबू
( १५ )
कैम्प बासी एक बार कर देने से एक ब्ष प्येन्त संब स्थानों न्की यात्रा का लाभ उठा सकते हैं । न
निश्चलिखित लोगों का यात्रा टैक्स माफ है;--
१--समग्र यूरोपियन्स तथा एड्डलो इस्डियन्स,
२---राजपूताना के महाराजा तथा उनके कुमार,
३--साधु, संन््यासी, फकीर, बाबा सेवक और ब्राह्मण आदि जो शपथ पूबेक कहें कि में द्रव्य-रहित हूँ,
४-सिरोही राज्य की प्रजा,
४--तीन वे तक की अवस्था वाले बालक ।
चौकी तथा मूंडके के सम्बन्ध में एक नोटिस सिरोही स्टेट की तरफ से सं० १६३८ माघ शुक्ला & को प्रकाशित हुआ था । इसके चाद तारीख १ अक्टूबर सन् १६१७ से आयू पहाड़ का कुछ हिस्सा लीज ९ पट्टे पर ) पर राज़्य सिरोही की तरफ़ से छटिश सरकार को दे दिया गया 'जिससे उसमें कुछ परिषत्तेन करके करीय उसी आशय का एक नोटिस ता० १-६-१६१८ को निकाला गया जो आगू खीज एरिया में ठहरने व रहने वालों के लिये है मूंडके के कुक़्मों के सम्बन्ध में इस ग्रंथ के परिशेष्ट देखे जांज ।
( १६ )
3 “ भूंडके का टिकिट आवूरोड स्टेशन पर मोटर में बैठते” दी स्टेट का नाकेदार रु० १-३-६ लेकर देता है।
कुछ वर्षों के पहले उस टिकिंट पर “चोकी बढावा बदल अंडकुं ऐसे शब्द झोने का इमें याद आता है । परन्तु अभी कुछ समय से ये शब्द निकाल कर सिफ 'मूंडका टिकिट' शब्द ही रक्खे हैं | पहले संवत् १६३८ के हुक्म के अनुसार जुदे जुदे तीर्थ स्थानों के लिये अलग २ थोड़ी थोड़ी रकम ली जाती थी। ऐसा मालूम होता हैं कि पीछे से सबको मिलाकर एक रकम निश्चित कर उसमें भी थोड़ी रकम और मिलादी गई है | परिणाम यह हुआ कि-चाहे कोई एक तीथे॑ को जाय, चाहे सब वीर्थों को+ कुल रकम देनी ही पड़ती है | इस अनुचित टैक्स को इटवाने के विषय में जैन समाज प्रयत्व कर रहा है । रा,
मेडका भाफी की कक्षम ७ के अनुसार सिरोही स्टेट: की समस्त प्रजा का मूंडका माफ दै लेकिन अत्येक मनुष्य से बतौर चौकी रु. ०-६-६ लिये जाते हैं | यद्यपि आबू- रोड से देलवाड़ा तक कुल रास्ते में कोई भी चौकी राज की संत १६१८ से नहीं है ।
(१७ )
“ अनादरा से आबू पर जाने वाले यात्रियों से नींबज के ठाकुर सांहब पत्येक मनुष्य से चौकी के रु, ०-रे-६ लेते हैं, यहां पर जिसने साढे तीन आने दिये हों उससे आबू पर सिफे रु. १-०-३ लिये जाते हैं ।
सिरोही के वच्तेमान महाराव के पूेज चौहान महाराव लुम्भाजी के, इन जैन मन्दिरों, इनके पुजारियों और यात्रियों से किसी भी ग्रेकार का कर ( टैक्स ) न लेने सम्बन्धी, सम्बत् १३७२ का १ तथा १३७३ के २ शिलालेख विमलवसहि में विद्यमान हैं, जिनमें उनके चंशन तथा उत्तराधिकारियों ( वारिसदारों ) को भी उपर्युक्त आज्ञा का पालन करने का फर्मान है। इसी प्रकार इसी आशय वाले महाराजाधिराज सारहदेव कल्याण के राज्य में घिसल- देव का सं० १३५० का, सहाराणा कुम्भाजी का सं० १५०६ का तथा पित्तलद्र मन्दिर के कर माफ करने फे लिये राउत राजधघर का सं० १४६७ का, ये लेख * विद्यमान होते हुए भी कलियुग के प्रभाव अथवा लोभ से भण्डार को भरपूर करने के लिये अपने पूर्वजों के फमोनों पर पानी फेर कर आजकल के राजा महाराजा
# ये सय शिक्षासेस आयू के 'लिख-संग्रइट में प्रकद फ्रिये आाचेंगे।
( श्द )
यात्रा टैक्स लेने को फटिबद्ध हुए हैं, यह बढ़े खेद की बात है। सिरोही के मद्दाराव इस विपय पर खूब गार कर, अपने प्रेजों के लिखे हुए दान-पत्नों को पढ़कर यार टैक्स (मूंडका) सर्वथा बन्द फरके जनता का श्राशीर्वाद प्राप्त करेंगे । देलवाड़ा---आबू रोड से १७॥ मील तथा आबू कैम्प से एक मील दूर, अत्युत्तम शिल्प कला से ख्याति पाने चाले जैन मन्दिरों से सशोभित, देलवाड़ा नामक गाँत है | हिन्दुओं तथा जैनी के अनेक देवस्यान विद्यमान होने के कारण शात्रों में इस गाँव का नाम देवकुल पाठक अयवा देखल्पाटक कहा है। यहां पर जेन मन्दिरों के अलावा आसपास में (१) भीमाता ( कन्याकुमारी ), (२) रसिया बालम, (३) धर्बुदादेवी-अम्बिकादेवी (जो आजकल अध्रदेवी के नाम से विख्यात हैं) (2) सौनी बाबा की गुफा, (५) संत्तसरोबर, (६) नज शुका, ओर (७) पांडव शुफ आदि स्थान हैं, जिनका वर्णन आगे 4(हिन्दुतीथं और दर्शनीय स्थान” नामक अकरण में किया जायगा । महाँ पर केवल जैन मन्दिरों का ही वर्णन किया जाता है। देलवाड़ा गाँव के निकट ही एक ऊँची टेकरी पर , विशाल कम्पाउएड में ब्े० जैने के पाँच मन्दिर मौजूद
( १६ )
हैं-( १) मंत्री विमलशाह का वनवाये हुआ विमलवसाहि (२ ) मंत्री वस्तुपाल के लघु भाई मंत्री तेजपाल का बनवाया हुआ लूणवसहि ( ३ ) भीमाशाह का बनवाया हुआ पित्तलहर (४ ) चौमुखजी का खरतरवसहि ओर (५ ) वर्द्धमान स्वामी ( वीर भ्रम )। इन पाँच मन्दिरों में से शुरु के दो मन्दिर संगमरमर की उत्तम नकशी से शोभित हैं। तृतीय मन्दिर में मूलनायकजी की पीतल की १०८ मन की, पंचतीर्थी के परिकर वाली मनोहर भूर्षि है। चतुर्थ मन्दिर, तीन खण्ड (मंजिल) ऊँचा होने और अपना घुख्य गंभारा मनोहर नक्शी बाला होने से दशनीय है। पांच में से चार मन्दिर तो एक ही कम्पाउण्ड में हैं। चौमुखजी का मन्दिर मुख्य (पूर्वीय) द्वार से प्रवेश करते दाहिनी ओर एक जुदे कम्पाउण्ड में है|
कीरतिस्तम्म से बाई ओर की सीढियों पे थोड़ा ऊपर चढ़ने पर एक छोठासा मन्दिर मिलता है, जिसमें दिगम्पर जैन मूर्त्तियोँ हैं। उसके पीछे कुछ ऊँचाई पर दो-तीन मकान हैं, जिनमें पुजारी आदि रहते हैं ।
लूण-दसहि मंदिर के मुख्य दरवाजे से ज़रा आगे उत्तर दिशा में एक छोटासा दरवाज़ा है, जिसमें होकर
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औड़ी बढ़ते कुछ ऊँचाई पर एक भकान है, मिसके बाहर शक छोटी शुफ्रा है। उसके निकट एक पीपल के बृच्त के नीचे अंबानी की एक खंडित मूर्चि हैं। उसके पास के रास्ते से ज़रा ऊँचाई पर चार देहरियाँ हैं। इस रास्ते से सीधे हाथ की तरफ कार्यालय का एक मकान है। इन चार देहरियों में से तीन में जैन सूर्त्तियाँ हैं ओर एक में अम्बिका की मूर्ति है । ये चार देहरियाँ <गिरनार की चार हक के नाम से अतिद्ध है |
यूरोपियन्स और राजा-महाराजा इन मन्दिरों के दशेन करने आते हैं। उनके विश्राम के लिये मुख्य पूर्तीय दरवाज्ञे के बाहर जैन श्रेताम्बर कार्यालय की तरफ से शक वेटिंगरूम ( विश्रांपिशृद्द ) बना हुआ है। इस स्थान पर चमड़े के जूते उतार कर कायोलय की तरफ से रखे हुए कपड़े के वूद पद्दिनाये जाते हैं। कई साल पहिले यूरोपियन विज्ञीटसे चमड़े के बूट पिन कर मन्दिरों में प्रवेश करते थे, जिससे जेन समाज को अत्यन्त |] न दुःख होता था। असीम परिश्रम करने पर भी चढ़ कष्ट दूर नहीं हुआ या। यद्द बात जगत्पूज्य खर्गस्य गुरुदेव आओविजयधमेस्रीस्वरजी को बहुत ही अनुचित अतीत होने से उन्होंने उप समय के राजपूताना के एजयट टू दी
(२१ )
गवनेर जनरल मि० कालविन साहब से मिल करू उनको अच्छी तरह से समझाया। तत्पथात् लण्डन के इंणिडया ऑफेस के चीफ़ लायज्रेरीयन डा० थॉमसः साहब की सिफ़ारिश पहुंचा कर, “ चमड़े के बूट पदिन कर कोई भी व्यक्ति मन्दिर में दाखिल नहीं हो सकेगा ”* ऐसा एक हुक्म गवनेमेणट से प्राप्त करके फरीब्र विक्रम: सं० १६७० से सदा के लिये यह आशातना दूर करादी ॥ पूर्वीय दरवाजे के बाहर बेटिज्ञलरूम फे पास सामने की ओर कारीगरों के रहने के लिये और दरवाजे के अन्दर कार्यालय के मकान हैं, जिनमें हाल नौकर और पुजारी रहते हैं। मन्दिरों में जाने के मुख्य द्वार के पास बाई ओर जैन श्रेताम्बर का्योलय है। पेढी का नाम सेठ: कल्याणजी परमानन्दर्जी है। बिस्तरे आदि वस्तुओं का गोदाम है। रास्ते के दोनों तरफ कार्योलय के छोटे तथा बड़े मकान हैं । ऊपर के एक मकान में जैन श्रेताम्बर पुस्तकालय है । यहां पर जन यात्रियों को ठहरने के लिये दो बड़ीः धर्मशालाएँ हैं। उनमें से एक दो मंज़िल की बड़ी धमेशाला श्री संघ की ओर से बनी है, और दूसरी अहमदाबाद निवासी सेठ हृठीभाई हेसाभाई की बनवाई
(२२ )
ह52। कक छा के के 6 डे 3 + ० व्खॉषिक हुई हैं। यात्रियों के लिये सं अकोर की व्यवस्था हैं। यात्रियों के बाहनादि का बन्ध तथा अन्य किसी भी कार्य के लिये कार्यालय में सना देने से मैनेजर अवन्ध करा देता है। यात्रियों की सुगमता के लिये यहां पर एक के 0... | >ज. ऑफ श पुस्तकालय है, जिसमें अभी थोड़ी पुस्तक हैं. और छुछ समाचारपत्र भी आते हैं | परन्तु यात्रीगण इस पुस्तकालेय का लाम अच्छी तरह से नहीं लेते। यहां के मन्दिरों तथा कार्यालय की देखरेख सिरोही संघ से नियत की हुईं कमेटी करती हैं ।# 22243 45 कीट हम हू केझू कब्पाएनी परमानंद ( चेंढदाद' केन ऋषोछय ) की पक घुरानी बढ़ी मेरे देखते में भाई। उस पर लगी हुई चिट्ठी से उसमें वि सं० १४०६ का दिसाय सालूम हुआ । परन्तु उसका से० प७ ३ न िलाव के राय सासान्य रीति से वि० सें० १८३२ से १:६६ तक का शिसाय और दस्तावेज़ वयेरह भी थे !
डस यही के किसी २ लेख से मालूम होता है कि--ठक्र समय झेथहीं के मम्दिरों की ध्यवस्था सिरोही श्रीसंघ के हाथ में थी। वि सेब १८४६० के धयसपास श्रीक्रचतमढ़ के जैन मन्दिरों की ब्यवस्था भी देंकवाढ़ें के श्रधीन थी दोनों पर सिरोही के थीसंघ की देखोख यो । उस समय देलवबाड़े में यति लोय रद्दते थे। सिरोड़ी के पंचों की सम्मति से. मन्दिर की ब्यवस्था पर उनकी सीधी देखरेख रहती और वे मन्दिर के द्वित के ये ययाशक्रि अयक्ष करते थे ॥ डढस समय बाइर सर जो भी यत्ति लोग यहां यात्रा के लिये #ते, वे भी यधाराक्रि नकद_रक्म आदि सेंट रूप में जमा कराते ये । ५ न्म्गक
( रहे )
अचलगढ़ फी ओर 'जाने बाली सड़क के किनारे पर शक दिगम्बर जैन मन्द्रि और धर्मशाला 'है। धर्मशाला में दिगम्बर जैन यात्रियों फे लिये सब प्रंकार की व्यवस्था है। इस दिगम्पर जैन मन्दिर में वि० सं० १४६४ वेशाख शुक्षा १३ गुरुवार का एक लेख है, जिसमें लिखा है कि अताम्बर तीथे--शी आदिनाथ, श्री नेमिनाथ और श्री पित्तलहर ; इन तीन मन्दिरों के बनने के पथात् श्री मूलसंघ+ अलात्कारगण, सरस्वती गच्छ के भट्टारक्क श्रीपन्ननन्दी के शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र सहित संघवी गोविन्द, दोशी करणा ओर गांधी गोविन्द बगरह समस्त दिगम्बर संघ ने आयू पर राज श्रीराजधर देवडा चूडा के समय में यद्द दिगम्बर जैन मन्दिर बनवाया । श्रीमाता ( कन्याकुमारी ) से थोड़े फासले पर जन ओताम्बर कायोलय का एक उद्यान हे," जिसमें शाक- भाजी, फल, फूलादि उत्पन्न होते हैं । $ प्ाप्त बहो से यद भी मालूम होता है दि उक्त खबब में ( १८१० के आसपास ) कुछ अरट ( यदे कुए के खाथ यह खेत ) और जोड़ ( घास के लिये दोड़ ) वगैरह भी धीझादीश्चरजी के मन्दिरजी की मालिकी के थे। उन झरट घगेरइ के नाम यक्र यही में लिखे हुए दैं
उन खरतों के खटमे का सथा यीढ़ के घास को काटने फा ठेका समय समय धर देने के दस्तावेच भी हैं
(२४ )
' यहां के मन्दिरों सें जो चढ़ावा आता है उसमें से चावल, फल और मिठाई पुजारियों को दी जाती हैं; शेष द्रव्यादि स्व चस्तुएँ भंडार में जमा होती हैं
. चेत्र कृष्णाष्टमी ( गुजराती फाल्गुन कृष्णाएमी ) के दिन, आदोशर भगवान् का जन्म तथा दीछ्ा-कल्याणक हीने से, यहां बड़ा मेला भरता है। उस मेले में जेनों के अतिरिक्त आस पास के ठाकुर, फिंसान, भील आदि बहुत लोग आते हैं। वे सब भक्कि पूषेक भगवाव् के मन्दिर में जाकर ममस्कार करते हैं; और यथाशक्कि भेट चढ़ाते हैं। उन ज्ञोगों को कार्यालय की तरफ से मका
की धघूघरी दी जाती है ।*
* पढ्विले इस भेजे में च्मैन ख़ोथ भाकर, ख़ास भालदर के चौक में शैर खलते थे । ( ध्वोल्ी के निमित्त बीच में ढोली को रख कर सो पचास आदमी ग्रोल में रहकर दंड खेलते हैं, उसको “ग्रेर खेलना' कहते दें ) + इससे भगवान की झाशात्तना होती धी। तथा सूच्म नकूशी को भी नुक- साल दोले का भय रइता था | इसालिय वि० स० १4२३ में भ्रीचसा- कर याणाजी ने भाषू के देखघाएदा, तोरण्य, सोना, हुंढाई, इंटसगी, भरणा, औओ रीसा, उतरज, सेर शौर अदलगढ़ झ्ादि बारह गांवों के मुखिया लोगों को इवहा करके, इन रूप का राजी रुशी से मंदिरों से 'गेर! खेलना बंद कराया और भीमाशाइ के मंदिर ऊे प॑ थे ( पर्वोय दरदाजे के श्राइर ) बढ़ के आसपास के दोौक में, जो तक आादीश्ररमी के मदर के आाधील
( २५ )
अचलगढ़ जाने वाले यात्रियों की बेलगाड़ियां यहां से नित्य लगभग आठ बजे रवाना होती हैं, ओर यात्रा पूजा-सेवादि क्रिया कराके सायंकाल में लगभग पांच बजे वापिस आती हैं। सिरोही स्टेट का एक सिपाही तो गाड़ियों के साथ नित्य जाता है|
जैन यात्रियों के अतिरिक्त अन्य विज्ञीटर्स ( अमैन यात्रियों ) को हमेशा दिन के १२ से ६ बजे तक हीः मन्दिर में जाने देने का रिवाज है जिसको स्थानीय सरकार ने भी भज्जूर कर लिया है । अतएवं अजेन यात्रियों को उपर्युक्त समय नोट कर लेना चाहिये । उक्त समय में सिरोही स्टेट पुलिस का आदमी यहां बैठता है। जो यात्रा टेक्स का पास देख कर मन्दिर में जाने देता है ।
आबू पहाड़ और देलवाड़ा का संत्षिप्त वर्णन करने के पश्चात् देलवाड़े के जैन मन्दिरों का भी संक्षेप में बत्तान्त देना आवश्यकीय समभता हूँ । है, 'गरा खेलना शुरू कराया ओर इस नियम का भंग करने पाले से सवा
रुपया दुंढ आादीखरजी के भेदार में लेने का निश्चित किया यह इरिदाज़ा अभी तक इसी प्रकार से चज्ञा आता दै। इस दस्तावेज्ञ में उपयुक्त ३० गांवों के नाम दिये हैं। मीचे हस्तादर तथा गवाहियां हैं। भीमाशाहः के मन्दिर के पीछे का यड़वाला चोर श्रीभादीश्वजजी के मन्दिर का है । दोसा इस दस्तावेज में साफ़ साफ लिखा है। “हर
(२६ ) ' क्किक्नन्कसाहि
विमल मन््त्री के पूपेज--मरदेश ( माखवाड़ ) हे श्रीमाल' नामक एक नगर है। आज कल इसकी न्|्याति भीनमाल के नाम से है। यह पद्िले अत्यन्त समृद्धि- शाली तथा किसी समय भुवरात देश का मुख्यनंगर नरजघानी था। यहां पर प्रायया/-पोखाल ज्ञाति फा आभूषणरूप “नीना ” नामक एक करोंड्पति सेठ निवास करता था, जो अत्यन्त सदाचारी और परम श्राचकू था। न्काल के प्रभाप से अपना धन छथ होने पर उसने + भीनमाल ” को छीड़कर गुर्जर-देशाम्तगत “गाँस व्नामक आम को अपना मियास-स्थान बनाया। बहां पर वउनका पुनः अम्युदय हुआ ओर ऋद्धि-सिद्धि आदि भी आम्र हुईं। उसका “लहर” नामक एक बड़ा विद्धान एवं ज्शूगपीर पत्र था। वि० स॑० ८०२ में “अणददिलं नामक गडढरिये के बताये दुए स्थान पर वनराज चाबड़ा” ने अयहिलपुर पाटना बसाया एवं जालिवृत के समीप स्वकीय ग्रासाद महल--निर्मोण कराया। तत्पथ्ात् वन प्राज़ चावड़ा ? में करिसी-समय ९ नीना! सेठ एवं उसके
( ४७ )
युत्र ' “लहर” के “समाचार सुनकर “उन दोनों को अणहिलपुर पाटन' में ले जाकर बसाया'। वहां पंर उन लोगों को वेमव सुख तथा कीर्ति आदि की विशेष प्राप्ति झुई। 'घनराज' “नीनएं सेठ को अपने पिता “के तुल्य आनता था उसने “लहर को श्रवीर समझ कर अपनी सेना का सेनापति नियत किया। 'लहर' ने सेनपंती रह कर “वनराज' की अच्छी तरह सेवा की | उसकी सेवा से प्रसन्न होकर वनराज ने उसको 'संडस्थल' नामक ग्राम अट में दिया।
मंत्री वीर मन्त्री 'लहर के वंश में उत्पन्न हुए थे। उनकी पत्नि का नाम 'वीरमति” था। पीर मंत्री * झण- 'हिलपुर' के शासक 'मूलराज' का मंत्री था, किन्तु धार्मिक कोने के कारण राज्य-खटपट तथा सांसारिक उपाधियों से अत्यन्त उदासीन-विरक्--रहता था। अन्त में उसने राज्य- सेवा तथा स्त्री, पुत्रादि के मोह-मम््य को सबेथा त्याग कर पत्रित्र गुरु महाराज के समीप चारित्र-दीजा अड्भीकार कर के आत्मकल्याण फकिया। वि० रू सं० १०८५ में उसका खगबास हुआ |
$ हुस पुस्तक में जहां पर वि० सं० या सं० का उपयोग किया हो ज्वहाँ पर विक्रम सेघत् ही ज्ञानना चाहिये। ४
( बेड )
* विमल-- वीर मंत्री ? के ज्येष्ट पुत्र का नाम नि
शथा छोटे का नाम 'विमल या। ये दोनों माई विद्वान “एवं उदार बृत्ति वाले ये। 'नेढ' अणहिलपुर पाटन! के राज्य-सिंहासनाधिपति 'गुजेर देश” के चौलुक्य महाराजा भीमदेय' (अयम ) का मंत्री था। विम्रल' अत्यन्त कार्यदत्त शूरवीर तथा उत्साही था। इसी कारण से महाराजा 'भीमदेव' ने उसको खकीय सेनाधिपति निमुक्त किया था। महाराजा 'मीमदेव” की आज्ाजुसार उसने अनेक संग्रामों में विजय-लक्ष्मी प्राप्त की थी। इसी कारय से, महाराजा “मीमदेब ” उस पर सर्देव प्रसन्न रद्ते तया सम्माने की धृष्टि से देखते थे ।
.. उस समय “आय! की पूपे दिशा की तलेटी के त्िल्कुल
समीप “चन्द्रावत्तीी नामक एक विशाल नगरी थी। उसमें यरमार “घंधुकं नाम का नृप, गुजेरपति “भीमदेव' के सामंत राजा के तार पर शासन करता था। वह झबू तथा उसके आसपास के मदेश का अधिकारी था। कुछ समय के: बाद “घंधुक” राजा यरुजेर-गप-पति से खततेंग्र होने - की इच्छा अपवा अन्य किसी कारण से भद्ाराजा * मीम- देव! की शाज्ञाएँ उन्नंघन करने लगा। इस कार्स से 'भीम-
( २६ )
देव! क्रुद्ू हुआ और उसने “धंघुक' को खाधीन करने के एलिये एक बड़ी सेना के साथ 'विमल' सेनापति को “चंद्रा- ज़ती' भेजा। महससैन्य के नेत॥ शरीर सेनापति 'विमल के आगमन के समाचार सुनते ही, परमार “घंधुक' वहां से आागकर मालवनाथ धार वाले परमार भोज ( जो उस समय सित्तौड़ भें रहता था ) के आश्रय में जाकर रहा। महाराजा “भीमदेव' ने 'विमल मंत्री' को “चन्द्रावती' प्रान्त का दंडनायक नियुक्त करके उसके रक्तण का काये सौंपा था। तत्पथ्नात् 'विमल' मंत्री ने सलनता से वणिर् बुद्धि द्वारा धंधुक! को युक्कि पूषेक समझा कर पीछा बुलाया और राजा 'भीमदेव' के साथ उसकी सन्धि करादी । “विमल मंत्री! ने अपने पिछज्ञे जीवन में चेद्रावती और अचलगढ़ को ही अपना निवास-स्थान बनाया था। “एक समय 'श्रीधमेघोपत्ारि! विहार करते हुए “चन्द्रावती पधारे। 'विमल मंत्री! ने विनती करके उनका वहां पर ही चातुमोस कराया। 'विमल मंत्रीश्वरँ पर उनके उपदेश का पूर्व प्रभाव पड़ा। 'विमल' ने स्रिजी से प्राथेना की कि #भेंने राज्य शासन-काल में तथा युद्धों में अनेक पाए ऋम किये हैं ओर अनेक प्राणियों का संद्वार किया है. इस कारण में पाप का भागी हूँ। अतणव मुझ को ऐसा भ्रायश्वित
ह - ( ३०)
प्रदाज़, करें कि जिससे मेरे समस्त -पाप, नष्ट होजावें ” परीश्वर ने उत्तर दिया कि--जान .बूकः कर इरादापूवेक किये हुए पापों का प्रायश्ित नहीं होता है, परन्तु त् शुद्धभाव से अत्यन्त पश्चा ताप पूर्वक प्रायश्षित माँगता है+ इससे में तेरे को आयश्चित देता हूँ कि “तू आयू तीर्थ का उद्धार कर” । बिमल मंत्रीश्वर ने उपयुक्त श्राज्ञा को सहसे सखीकार किया |# ग
# 'विमल' संत्री के पुन्न नहीं था । एक समय मंन्ीक्षर ने घर्मपत्नी के आम्रद्द से अठम ( त्तीव उपंदास ) करके श्री आविका देवी की आराधना की । देवी उसढी सक्रि और पुयय के प्रभाव से तत्काक्त प्रसभ्ष हुई और तीसरे दिन की मध्य रात्रि में स्वयं आकर “विमल्ल' मंत्री को कहा कि-- +'ह तुरू पर भसन्न हूँ, कह ! झिस लिये मुझे थाद किया ” मंत्री ने उत्तर दिया कि, “यदि आप सुर पर प्रसन्न हुई दें तो सुझे एक पुत्र का और दूसरा आावू पर एक सन्दिर बनाने के वरदान दो”। देवी ने कहा कि, “बुरदारा इतना घुगय नहीं है कि दो वरदान मिर्ते अतएव दो में से एक- डच्छित वरदान मांग? । मंत्री ने विचार कर उत्तर [दिया कि “सेरी अर्धायेमी- से पूछ कर कल्ष वर मांग्रेंगा”। देवी- ठीक ” ऐसा कहकर अद्श्य डो गई ।
प्रातःकाल में 'विमल” मे अपनी स्त्री से सव वात कही, जिस पर उसने विधार कर कद्दा, “स्वामिन् ! पुत्र से विरकाल सझ नाम भमह नहीं रष्ट सकता, कयोंडधि शुद्ध कमी सपूत भोर रूमी कपूत निकलते हैं, अदि कपूत निकले सो छाठ पीढ़ी का प्राप्त सर नाश होजाता है । ऋतपुक ।
22०40 ब्द्द, हद कट ५ पं का गहन खडे 2०. 4. ३३ रे
६११)
+विमलवसहि---बिमल महाराजा 'भीमदेव!, नृप- धंधुक तथा अपने ज्येष्ठ आता 'नेढ़' वी ओज्ञा प्राप्त करके चैत्य मन्दिर--निर्माण कराने के" लिये आंबू पर्वत प्र् गये | स्थान पसन्द किया, किन्तु बेहां के बराह्मणों ने इकठ़े होकर कहा--“यह हिन्दुओं का तीये है। अतणव यहां जैन मन्दिर बनाने नहीं देंगे। यदि 'पहिले यहां जैन मंदिर था! यह सिद्ध करदो तो खुशी से जैन मन्दिर बनने देंगे।” न्राक्षणों के इस कथन को सुनकर विमल मंत्री ने अपने स्थान में जाकर अह्मम--तीन उपबास कर अंबिका देवी की आराघना की। तीसरे दिन की मध्य रात्रि में अंबिकादेवी प्रसन्न द्वोफर सत्र में विमल मंत्री को कहने लगी--्रुके क्यों याद किया १ विमल ने सब हकीकत कही। पथ्ा अंबादेवी ने कह्य--“आतः काल में चंपा के पेड़ के नीचे जहां इुंकुम का खस्तिक दीस पड़े पहां सुदवाना, तेरा कार्य सिद्ध होगा ।” आतः काल में 'विमल' मंत्री खान कर चुष्र पुत्र के अतिरिक्त मन्दिर बनाने का घर मांगों कि जिससे (77: मन्दिर यमाने का यर मांगो कि जिससे अपन स्वर्ग और मोच के सुख प्राप्त कर सके » ।
अपनी अधांगनी के झुख से यह बात सुनकर मंत्री
फिर आधी रात को देंदी साचाद आई, तिस पर मंत्री ने थर मांगा देवी यह दर देकर अपने स्पान पर गई । जाम प्रम्थ में इसका दणेन दिया गया है
दुत प्रषक्त हुभा। दर बनाने कह विमज्ञप्रवस्धः
६ ३२ )
सबको साथ लेकर देवी के बवलाये हुए स्थान पर गया। “वहां जाकर च॑ंपा के पेड़ के नीचे इंकुम के खस्तिक वाली जगह को खुदवाने से श्री तीयंकर भगवान की एक मूर्चि “निकली । सबको आखर्य दुआ, और यहां पादिले जैनवीर्य नया, यह निश्चित हुआ |*
अब फिर ब्राह्मयों ने कह्य कि-“यह जमीन हमारी है। यहां पर आपको सन्दिर नहीं बनवाने देंगे। यदि “विमल मंत्री चाहते तो अपनी शाक्रि एवं महाराजा “भीमदेव-- की आज्ञा होने से जमीन तो क्या! लेकिन सारा आबू नपयेत स्व्राधीन कर सकते थे। परन्तु उन्होंने विचार किया कि “धार्मिक कार्य में शक्ति अथवा अनुचित व्यवहार का उपयोग करना अयोग्य है।” इसलिये उन्होंने ब्राह्मणों को एकत्रित करके समझाया और कहा
७ दूंत कथा है कि --यद्व मूर्ति 'विमल! मंत्री ने मन्दिर बनवाने से पट्टिसें एक सामान्य गम्मारे में दिस़जमान री थी यद गग्भारा, इस समय विमलवसहि की भमत्ती में बीसदी देरी के रूप मेँ गिना जाता हैं । यह मूर्ति श्रीकऋषपमद्देव की है, किन्तु ल्ञोग इतको २० यें तीयकर सुनियुवत श्वामी की बतलाते हैं । इय मूर्ति की यहां पर शुभ मुद्दूते में स्थापना होने तथा *विमल्न ' मेत्री ने सूलनायकज़ों के स्थान में स्थापन करने के जिये "थांतु की नई सुंदर मूर्ति रूराहै, इन दो झारण से यह मूर्ति यही रही ।
( हेई )
के * तुम इच्छानुसार' द्रव्य 'लेकर जद्दीन दो॥” जाद्विणों ने ( यह समझ कर कि-अगर यह मुंह मांगी क्रीमत नहीं देगा तो यहाँ पर जेन' मंदिर 'भी नहीं बनेगा )'उत्तर' दिया कि “सुंबर्ण-मुद्विकां (अंशर्फी ) से नाप कर आदवरंय्के जमीन ले सकते हो ।” विमल ने यह बात स्वीकार की और विचारा कि 'गोल सुबर्ण-्रुद्रिका से नापने में बीच में जगह खाली रह जायेगी।” इसलिये उसने नवीन चौकोनी, सुबर्ण-मुद्रिकाएँ बनवाई और ज़मीन पर विछाकर मन्दिर के लिये आवश्यक पृथ्वी खरीदी। ज़मीन की क्रीमत में बहुत द्रव्य मिलने से ब्राह्मण अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
“विमल ' मंत्रीश्वर ने उस स्थान पर अपूरव शिल्पकला- नकाशी-युक्क; संगमरमर पत्थर का; मूल गम्भारा, गूढ मंडप, नवचौकियां, रंगमंडप तथा बावन जिनालयादि से सुशोभित करोड़ों रुपये * के व्यय से “ बिमल-वसही ” नामक
$ जैनों की मान्यता है कि इस मन्दिर के निर्माण कार्य मे 3८,९३,००,०००) भट्दारह करोड़ तिरपन लाख रुपये ज्ञगे।
यदि एक चौरस ईंच चतुर्कोण-चोकोनी सुवर्ण-मुदिका का सूह्य 'पश्च/स रुपये माना जावे तो विमल-वसद्दी मन्दिर में अभी जितनी भूमि रुकी है उसमें चतुकोण्य सुवर्ण-मुरददेकाएँ दिछाकर ज़मीन स्वरीदने में केवल भूमि की लागत ४,२३,६०,०००) चार करोड़ तिरपन लाख साठ इजार हर
( ३४ )
इजिन-मंदिर निर्माण कराया और इस में मृूलनायकजी के स्थान पर श्रीऋषमदेव भगवान् की धातु की बड़ी दे संनोइर मूर्ति बनवा कर स्थापित की। इस मंदिर की अतिष्ठा *विमल मंत्री ” ने वर्धभान छरि! के कर कमलों द्वारा सै० १०८८ में कराई *
रुपया होती है। तथ इस श्रेष्ठ ओर झभूतपूर्व कल्लापूर्ण संदिर के चतवाने में +८5,१३,० ०,०००) भरद्टारद करोड़ तिरपस क्लास रुपयों का झयय होना असम्भव नहीं है ।
१ विमल-्यवंधादि धथों में बन है ह्लि “सेनापति विमल ' ने देवालय बमवाना भारग्म किया, परन्तु व्यंतरदेद 'यालिनाह दिन भर ने काम को राध्ति में नए का देंता। छु महीने सक काम चलना, परस्तु आतिदिन का काम राषधि में नष्ट द्वो जाता | मन्त्री विमक्त ने कार्य में होती शसलना को देखकर प्रम्विकझ्मा देवी की आराधना की। देवी ने सघ्य रात्रि मे प्रकट शोकर कट्टा कि “इस भूमि का अधिट्ाापक-दत्रपाल ' थांतिनाह आदर के कार्य में विए डाक्षता है। यदि यू कल मध्य रात्रि में उसको अवधादि से संवुष्ट करेगा सो तेरा काम निर्वितता पूरक समाप्त हो या।'। दूसरे पंदिन मम्त्री नेवैधादे सामप्री स्तेझर मान्देर की भूमि में यथा । उसकी अरतीक्षा मम मध्य राषि सरू वहाँ भरेल्ा पैठा रहा । टीऊ समय पर *“वालक़िनाह।ँ अयावइ रूप धारण करके झाया भोर बलिदान मांगा। मंत्री ने प्रछुत सामप्री उप्तह़े सम्मुख घर दी। देद ने कड्ा कि “में इससे संतुष्ट नहीं हूं । आु्े मच, माख दे अन्यथा में सम्दिर दनता अशकय कर दँगा।* पैस्ये-
शाप्षी मंद्री लें उत्त शिया कि 'शादरू दोने के कारण में मच माँस का बलिदान कद्मापि मई ं दूँगा। इु्छ़ा हो तो नैयंच्ा दे ले, नहीं तो पुद
सादाश्वर भगवान् .
मलवलह्ि, मूलनायक भी झा
विमः
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७ 4 कतच्रू, ड] ७३६.
( देश )
नेढ़ के वंशज--- 'विमल मंत्री” के ज्येष्ठ आता “हा के 'घवल' तथा “'लालिंग' नामक दो प्रतापी एके अशस्ती पुत्र थे। थे चौलुक्य महाराजा “भीसदेव' ( प्रथम ) दे; पुत्र महाराजा “करणराज ' के मंत्री थे। *घवल! का थ्रुत्र 'आखन्द और 'लालिग ' का पृत्र ' महिन्दु” अपने अपने पिताओं की भांति गुणवान् थे। ये दोनों महाराजा 4सिद्धराज जयसिंह ! के मंत्री थे। मंत्री 'आशणन्द' अत्यन्त अभाववान् था। उसकी पत्नी का नाम “ पश्मावती था । * पत्मावती ' शीलवती। समस्त गुणों की खान तथा घर्म-काये में तत्पर रहने वाली परम भ्राविका थी । ' आखणन्द-पद्मावती ” के “ पृथ्वीपल ” और “महिन्द” के 'दमरथ”! ओर 'दशरथ' नामक दो पुत्र थे । हैमरथ! व “दशरथ ने वि० सं० १२०१ में विमलकसही की दसवें नम्बर की देहरी का जीर्णोद्धार कराया और उसमें श्रीनेमिनाथ भगवाव् की नूतन अ्रतिमा बनवा कर
के लिये तेयार दो जा ।! मंत्री ने इतना कह कर तुरंत ही भ्यान से तलवार निकाली और भारी गनेना पूररेक 'वालिनाद पर हट पढ़ा। ववाजिनाहर मंत्री के असदाय तपस्तेज और पुण्य प्रसाद से प्रभावित हुआ और मंत्री हे दिये हुवे नैचेय से तुष्ट होइर चला गयां। मन्दिर का कार्वे निर्देशता पूर्वक ज्लगा और थोड़े समय से चनकर तयार हो गया ” |
६ 8६ )
मूलनायकजी. के स्थान पर पिराजमान की । साथ ही अ५ पूर्वज/ * नीना: से लेकर, अपने दोनों भाइयों तक आा व्यक्षियों की।आठ मूर्ियाँ एक ही पापाण में बम कर स्थापित कीं,। उसी देहरी में द्थी सवार-ओऔर घुड़ सवर मूर्ति का £ पडट है। परन्तु उस पर नामादि के अभाव से यह किस की मूर्ति है, यह जानना कठिन * है। उसे देहरी के बाहर दरवाज़े पर प्रि० सं० १९०१ का एक बड़ा लेख खुदा हुआ है | इस लेस से 'विमल्” मंत्री के बंश सम्बन्धी बहुत छुछ उपयोगी एवं जानने योग्य बत्तान्त उपलब्ध होवा है।
“धध्वीपाल' अत्यन्त अतापी, उदार और अपने पर्जों के नाम को देदीप्यमान करने वाले नरपुद्धय थे । थे चौलु- क्य महाराजा सिद्धराज “जयासह” तथा श्ुुभारपाल' के अधान थे। इन्होंने इन दोनों महाराजायं की पूर्ण कृपा भ्राप्त की थी। ये प्रजान्सेतरा | तीथेयाना, संघ-
3 उपयुक्त झाठ स्यक्षियों की गूर्तियों के निर्माता और इस कद झलिका देहरी का जीयोदार कराने चाज्ने 'देमरथ व दशरथ! में इस अपूर्द मदिर के निमासा (विमद्ध ” मश्रीक्र की सू्सि न बनवाई हो फ असमप मालूम होता है। इससे यह भजुमान होता दे कि हाथी पर बैदी हुई सूत्ति 'विमतमत्रीधर ! की भौर अशारद मूर्ति 'दररथ? डी है।,
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विमल-धध्तद्वि, मूल गेमागा और समा मध्य आदि,
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विमल-वबसहि, थ्री अग्दिका देवी
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( देऊ )
क्वि इत्यादि धार्मिक .कृत्यों, में हमेशा 'तत्पर रहते थे । पूर्ण नीतिमास् और दीन-दुखियों के दुःख द्र' करने
पृथ्चीपाल ने सं० १२५०४ सें १२०६ तक 'विमल- सही ” भामक मन्दिर की अनेक देहरियों आदि का गी्णेद्धारं कराया था । उस ही समय, अपने पूर्वजों की गर्ति को शाश्वत-अमर करने के लिये। “'विमल-चसही उन्द्रि के बाहर, सामने ही एक सुन्दर हस्तिशाला प्रनवाई । हस्तिशाला के द्वार के झुख्य भाग में (विमल प्रेत्री! की घुड़सवार मूर्ति स्थापित की। इस मूर्ति के दोनों तरफ तथा पीछे मिलकर कुल १० हाथी हैं। अन्तिम तीन हाथियों के अतिरिक्त शेप सात हाथी मंत्री “पृथ्वीपाल' ने अपने पूवेजों के नाम के वि० सं० १२०४ में बनवाये (जिन में एक हाथी खुद के नाम का भी है )। अन्तिम तीन हाथियों में के दो हाथी वि० सं० १२३७ में मंत्री 'पृथ्वीपाल' के पुत्र मंत्री 'धनपाल' ने अपने ज़्येप्ठ आता जगदेवा तथा अपने नाम के घुनपाये । तीसरे हस्त का लेख खंडित हो गया है। परन्तु चृदद, मी. मंत्री (धनपाल, का दी. बनवाया ,हुआ मालूम
( देव )
होता है । “धनपाल” ने भी अपने पिता के मांगे का अनुसरण करके स॑ं० १२४४५ में विमल-वसही' मन्दिर की कातिपय देहरियों का जी्ोडद्धार कराया। “घनपालों के बढ़े भाई का नाम “जगदेवँ और पत्नी का नाम 'हपिणी” ( पिणाई ) था । ( हस्तिशाला विषयक विशेष पिपरण जानने के लिये आगे हस्तिशाला का वर्णन देखें )।
यहां पर 'विमल-वसही' मान्द्रि की अपूर्व शिल्पकला तथा अवरण्नीय संगमरमर की नक्काशी ( बारीक खुदाई ) का वर्णन करना व्यथे है। क्योंकि सूल गम्भारा और गृह मंडप के अतिरिक्त अन्य सब भाग लगभग उस ही स्रिति में विद्यमान हैं। इसलिये बाचक तथा प्रेत्ेक वहां जाकर साक्षात् देखकर विश्वास के आतिरिक्त अपूपष आनन्द भी उठा सकते दे |
यहाँ के दोनों झुख्प मन्दिरों के दशेन करने वाले मल॒प्प को अवश्य ही यह शैका द्ोंगी कि जिन मन्दिरों के बाहरी भाग अधथीत् नवचाकियों, रंगमैंडप तथा भमती की देद्दरियों में इस प्रकार की अपू्े फारीगरी का प्रदर्शन है, उन मन्दिरों के अन्दरूमी हिस्से (खास तर पर मूल गम्मारा और गृदमंडप ) बिलकुल सादे क्यों ? शिखर
( ३६ )
भी बिलकुल नीच तथा बैठे आकार का क्यों बन उपयुक्त शंका वास्तव में सत्य है। परन्तु इसका मुख्य कारण यह है फक्ि उन दोनों मन्दिरों के निमोता मंत्रिवरों ने बाहर केः भाग की अपेज्षा अन्द्र के भांग अधिक सुंदर नवशीदार व सुशोभित बनवाये होंगे। किन्तु बि० संवत् १३८६८ में झुसलमान वादशाह * ने इन दोनों मन्दिरों का मद किया» तव दोनों मन्दिरों के मूल गम्भारे, गूढ़ मंडप, दोनों हस्तिशालाओं की कतिपय मूर्तियों तथा तीथकरों की समग्र प्रतिमोए बिलकुल नष्ट कर दी हों और बाहरी सुंदर नक़्काशी में भी थोड़ी बहुत हानि पहुँचाई हो। इस प्रकार इन दोनों सन्दिरों की हानि होने पर जौर्णोडद्धार कराने वाले ने अन्दर का भाग सादा बनवाया होगा |
जीणोडदार--'मांडब्यपुर (मंडोर) निवासी 'गोसल' के पुत्र 'धनसिंह के पुत्र 'वीजड' आदि छः भाइयों तथए *गेोसल' का भाई “भीमा' के पुत्र 'महणसिह': के पुत्र 'लालिगसिंह' (लल्ल) आदि तीन भाई अर्थात् 'बीजद' क लालिगं आदि नव भाइयों ने 'विमल-चसही” मन्दिर $ भन्नाउद्दान खूनी के सैन्य ने वि० सं* १३६८-में जालोर पर
चदाई की थी। वहां से जय प्राप्त कर वापिस भाते हुए आयू पर चद़करु उस सैन्य में इन मस्दिरों का रथ किया होगा।
( ४० )
का जीणोंद्धार कराकर इसकी, बि० सं० “१३७८ के ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के शुमादिन धमयोपतश्वारे की परम्परा” गत . 'ज्ञानचन्द्र॒णरि! से अतिष्ठा करवाई |; संभव. है कि जीणोद्धार कराने वाले ने मन्दिर के व्रिलकुल नष्ट अष्ट भाग को अपनी शक्ति के अछुसार सादा तथा नवीन चनवाया हो । यहां के लेखों से प्रकट होता है कि इस जीेद्धार के वक्त कदिपय देहरियों में सूर्चियों फिर से स्थापित की गई हैं। जीणोद्धारक 'वीजड़' के दादा-दादी 4गोसल' “शुशदेवी' की, तया 'लालिग! के पिता-मात्ता कहणरसिंद! और 'मीणलदेयी” की मूर्तियों आजकल भी ड्स मन्दिर के ग़ढ़मंडप में विद्यमान हैं ! । ह , आयू पवेत स्थित मन्दिरों के शिसर नीच होने का झुण्य कारण यद्द है कि यहाँ पर लगभग छः छः महीने में शकम्प हुआ करता है । इसमे ऊँये शिसर जन्दी गिर जाते हैं | मालूम होता है कि इस दी कारण से शिसर नीचे चनेवाये जाते हैं। यहाँ के हिन्दू मन्दिरों के शिसर भी प्रायः जन मान्दरा को मात नाच ही दष्टिगत हाते हू ॥
१-- मूर्ति सश्शा सदा वित्त दिश्तद्य मे सूप पेड रत का विवशश जेल ॥
िसल-चसटहि, राभोमारस्थित चयत्पृम्य-थी हाराविजपसूरी अदजी सहाशज ३७ 3 इक & ७ +व
पिमजन्यसद्दधि गृदमरुस्वर्यित बॉव बार का श्रावाधनाथ भगवाज् डी खड़ी माल
(४१ )
है कप रा : - यूत्ति संख्या तथा विशेष “विवरणु---६ ४ «' इस मन्दिर के मूल गम्भारे १. में : मूलनांयक'' श्री आऋषभदेव भगवान् -की पंचतीर्थी' के परिकर चाली भव्य शव मनोहर मूर्ति विराजमान है। हसही मूल गम्भारे में आई ओर भ्रीहीरविजय सरीश्वर ” महाराज की ' मनोहर खूचि, है 7:। इस,-शूर्तिपट्ट के मध्य में'-सरीश्वरजी की अतिकृति; है 4. उनके . दोनों - तरफः दो साधुओं की खड़ी, नीचे दो।भावकों की । बेटी हुईं व. ऊपरी भाग में भगवान् की चैठी हुई तीन मूर्चियाँ हैं) इनकी प्रतिष्ठा पवि० सं० ,१६६१ में महामहोपाध्याय श्री, 'लब्धिसागरजी' ने कराई है । मूचि पर लेख. है | गूड़ संडप में पाश्येनाथ भुगवाद् की. काउसुग्ग (कायोत्सगे) ध्यान में खड़ी दो अति मनोहर मूत्तियाँ हैं । ॥ प्रत्येक मूत्ति ,पर दोनों तरफ मिलाकर कुल,चोबीस जिन- आलियोँ, दो इल्हू, दो श्रावक्र, ओर दो, भाविकाओं की मूत्तियाँ खुदी हुई हैं। दानों के नीचे वि० सै० १४०८ के लेख हैं । धातु की बड़ी एकल मूर्तियाँ २, पंचतीर्थी के परिकर बाली मूरत्तियाँ २, सामान्य परिकर घाली
जन पारिभाषिक शब्दा के अथों के लिये प्रथम परिशिष्ट देखे :* २ सांकेतिक जिट्टों का स्पष्टीकरण द्वितीय परिशिष्ट में देखें । ,
( ४२ )
मृक्तियाँ ७, परिकरें रहित मूतियाँ २१ और संगमरमर का चोबीसीजी का १ पड्ट है। इस पट्ट में मूलनायकजी परिकर सद्दित हैं ओर नीचे 'धर्म-चक्र' व लेख है । आवक की २ तथा श्राविका की ३ मूत्तियाँ हैं। वे इस प्रकार हैं--(१) सा० गोसल ”, (२) 'सह० सुहाग देवि|, (३) “सह गुणदेवि', (४) 'सा० मुहरणसिंह', (१) 'सहू० मीणलदेवि | (इनमें की नं० १ व ३ की मूर्तियों, इस मन्दिर का वि० सँ० १३७८ में उद्धार कराने वाले थ्रावक 'वीजड' ने अपने दादा-दादी गोसल' तथा 'शुणदेवी” की से० ११६८- में करवाई। नम्बर ४ थ ५ की सा० “मुदशरसेंद” तथा सहू० “मीणलदेवी' की मूर्तियों, वीजड़” के साथ रहकर जीर्णोद्धार कराने वाले वबीजड़' के काका के लड़के भाई 'लालिगसिंद! ने अपने पिता-माता की संबत् १३१६८ में घनवाई )। अंबराजी की छोटी मूत्ति १, धातु की चौवीसी १, घातु की पंचतीर्थी २ और धातु की एकल छोटीः मूर्चियाँ २ हैं, ( श्रथोत् गूड मंडप में कुल जिन बिंच ३४, काउसग्गीआ २, चीयीसी का पट्ट १, अम्बाजी की मूर्चि १, आवक की २ और आतिका की ३ मूर्चियों हैं )।
६ इश६ व ४७० दां पृष्ठ देखो |
डप में, (3) गोसल, (२) सुहागदेवी, (३) गुणदेवी,
विमलवसद्दि के गृदस (४) महण्णसिद्द, (१) मीणछदेवी ।
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( ४३ )
गूढ मंडप के बाहर नव चौकियों में बाई ओर केः ताख में मूलनायक औ्रीआदिनाथ भगवान् की पर्रिकर बाली मूर्ति १, परिकर रहित मूर्त्ते १, एक ही पापाण में श्रावक-आाविका का युगल ९१ (इस युगल के नीचे अचर लिखे हैं, परन्तु पढ़े नहीं जाते) और एक पापाण पट है जिसके मध्य में श्राविका की सूर्त्ति है। इस मूर्ति के नीचे दोनों तरफ एक २ श्राविका की छोटी भूर्त्ति बनी है। बीच की मूर्ति के नीचे ' बारा० जासल' इतने अचर लिखे हैं । ( कुल दो जिनर्धिंव त्था श्रावक-भ्राविकाओं की सूर्तियों के दो पट हैं )।
दाहिनी ओर के ताख में मूलनायक श्री ( महावीर खामी ) आदिनाथजी की परिकर थाली मूर्ति १, सादीः मूर्ति १ और पापाण में खुदा हुआ १ यंत्र है ।
भूल गम्मारे के बाहर ( पिछले भाग में ) तीनों दिशाओं के तीनों आलों में तोथेकर भगवान् की परिकर वाली एक २ मूि है ।
( ४४ 3
* # देहरी नं० है--में मुलनायक श्री [पमनाथ] आदी- -रवर, भगवान् की परिकर वाली ग्र्चि ? तथा परिकर वाली एक दूसरी मार्चे दे ( कुल दो मूर्तियों हैं )।
# देहरी नं० २--में मूलनायक श्री ( पारवनाथ ) अजितनाथ मगवान् की परिकर वाली सूर्चि १, सदी मूर्चि १ और संगमरमर का २४ जिन-माताओं का सपुत्र 'पट्टु १ हैं। इस प्ठ के ऊपरी भाग में भगयान् की रे -मूर्तियाँ बनी हुई हैं। (कुज्ञ २ मूर्तियों और र 'पह है)।
% देहरी नं० ३--में मूलनायक श्री ( शास्तिनाथ ) ( शान्तिनाथ ) शान्तिनाथ भगवान् की सूर्ति १, पंचतीर्थी के परिकर वाली मूर्चि १ तथा भगयाद् की चौबीसी का पट १ (कुल २ मूर्तियाँ और १ पइ) है ।
देहरी रू० ४--में मूलनायक श्रीनमिनाथर्जा क्री
फरणयुक्त सपरिक्र मूत्ति १५ सादी, मूत्ति १ झार १ काउसग्गीआ ह | (इुल रे मूर्चियोँ ह )।
“ देहरी नं० £--में मूलनायक श्री [ ऊँथुनाय ] झजित-
सोट-देशरियों की राययना मन्दिर छे द्वार में धवेरा करते बाई झोर से छी गई दे | देशरियों पर नम्र भी खुदे इण्दै। * छ ४
( ४श )
नाथ भगवान् की परिकर थाली मूर्ति १ और सादी मूर्चि १ है। (छल २ मूर्तियों हैं )। +
ः कं
।- » *बेहरी नं० दै--में मूलनायक श्री (निसुब॒त) संभव- नाथ भगवान् की परिकर युक्त मूर्ति १ तथा परिकर रहित मूत्ति १ है। ( कुल २ मूर्तियों हें )।
# देहरी नं ० ७--में मूलनायक श्री ( महावीर खामी): शान्तिनाथजी आदि की ४ मूर्तियों है। ;। देहरी नं० ८--में मूलनायक श्रीपाश्पनाथ भगवान् आदि के परिकर रहित ३े जिन पं और बाजू में तीनतो्थी के परिकर वाली १ मूच्ति है। (कुल ४ मूचियों है )।
देहरी नं० ६--में मूलनायक श्री ( आदिनाथ ], ( नेमिनाथ ) ( पार्थनाथ ) महावीर खामी आदि की ३ मूत्तियों है ।
देहरी नं० १०--में मूलनायक श्री (नेमिनाथ) सुमति- नाथजी की परिकर चाली मूत्ति १, ओर 'सीमंघर' 'युगंघर' बाहू एवं 'सुबाह, इन चार विहरमान भगवान् की परि युक्त चार मूर्तियों क्रा पह्ठ * १, तीन ( अतीत, नल 3ी 3:83.
# इस पद की पुक बगल में इसी पत्पर में उपस कप भरे पे
( ४६ )
आनागत) चौबीसियों का संगमरमर का १ बहुत लम्बा पट्ट डै । संगमरमर पापाण के एक मूर्ति पड में हाथी पर हहोदे में बेठे हुए श्रावक की एक मूर्चि है! इस मूर्ति के “नीचे इस ही पट्ट में घुड़सवार श्रावक की एक छोटी मूर्चि “बनी हुई है । दोनों के सिर पर छत्र है | इस मूत्ति पट्ट पर “लेख तथा नाम का अभाव होने से यह मूर्ति किस व्यक्ति -की है यह पता लगाना दुःशक्य है |। इसके पास दी “संगमरमर के एक लम्बे पत्थर में आठ आवकों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। प्रत्येक मूर्ति के नीचे मात्र नाम ही लिणे हुए दें । वे इस प्रकार हैं ।
१-महं० श्रीनीनामूर्चि; ॥ ( 'बिमल' मन््त्री और
उनके भाई मंत्री “नढ़ के बंश के पूर्वजों के मुख्य पुठुष)। दो मूर्त्तियाँ बनी हैं । थे दोनों हाथ पोड़कर बैड़ी हैं मानो चैत्यदंदन
करती हों | उनके पास फूलदानी वंगैर, पूजा की सामप्री है। इस पट्ट से इस प्रकार नाम लिखे हट ऊपर से बाद हाथ की त्तरफ---
(२) समिघर सामि ॥ (२) छुमंघर सामि # (३) याहु तीथैगर ॥ (४) मद्दा गहु तीथैगर ॥ ऊपर की शाविका पर-- धोद्दियि ॥ सीचे को श्राविका पर-- घख्रभयलिरि॥
$ इन तीनों चीवीमियों के प्रयेक भगवान् की मूर्ति के नोचे उन ₹ प्मगवानों रे नाम लिग्दे दें | देखो चूष्ट ३६ ओर टसके सोच का मोट
(४७ )
२३-महं० श्रीलहर्पू्तिः || ( मन्त्र 'नीना ( नीचक ) का पुत्र )। ह हे
३-महँ० श्रीवीस्मूर्ति: ॥ ( मन्नरी 'लहर॑ के चंश में लगभग २०० यपे बाद का सन््त्री )।
४-महं० श्रीनेट (6) मूर्ति: ॥ ( मन््त्री वीर का पृत्र ध्और 'विभल' मन्त्री का घड़ा भाई ) ।
३-महं० श्रीलालिगमूर्तिः ॥ (मन््त्री 'नेढ' का पुत्र) ।
६-सहं० श्रीमहिंदुय (क) मूर्ति! ॥(मन्त्री 'लासिग का पुत्र )।
७-हेमरथमूर्ततिः ॥ ( मन््त्री 'महिंदुक' का पुत्र )।
८-दशरथमूचिः ॥ ( मन्त्री 'माहेंदुक' का पुत्र ओर “हेमसथ' का छोटा भाई )।
( श्रीम्राग॒वाद ज्ञातीय 'हेमरथ'ं तथा 'दशरथ' नामक दो भाइयोंने दसवें नम्बर की देहरी का जीर्खोड्धार कराया । देंहरी के हार पर जि० संबत् १९०१ का बड़ा लेख है । विशेष वर्णन के लिये देखो पृष्ठ २५-३६) । इस देवकुलिका
में छुल १ मूत्ति और उपगुक ४ भूचि-पढ हैं )
(॥॒
( घड़े
6 ह दंहरो नं० ११--में भूलनोयक श्री (मुनिलुत्रत) शातिनाथ भगवान् की परिकर वाली शूर्चे १, पंचतीर्थी के. पारिकर युक्क मूर्तियों २, सादी मूर्चियाँ ३ ( कुल ६ मूर्चियोँ हे ।
,. देहरी मं० ११५--में मूलनायक़ श्री ( नोमैनाथ ) ( शांतिनाथ ) मद्बीरखामी की पंचतीर्थी के परिकर वाली मूर्ति १ और सादी मूत्तियाँ २ (कुल ३ मूर्तियां ) हैं ।
देहरी नें० १३--में मूलनायक थ्री (वाउपूज्य) चन्द्र- प्रम भगयान् की पंचतीर्थी के परिकर बाली मूर्चि १, सादे परिकर बाली मूर्ति ९, परिकर रहित मूर्चियाँ ४ ओर श्री आदिनाथ भगप्ान् के चरस-पादुका जोड़ १ ( इस ६ बिन मूर्सियाँ और १ जोड़ चरण-पादुका ) हैं।
देहूरी नें० १४--गूलनायक श्री ( आदीखरजी 2) आदिनाथ भगवानादि के जिनब्िंय ६ ओर हाथी पर बेठे हुए भ्रावक की १ मूर्ति है * ।
3 सावडू को यद सूर्सि देहरी में सीजे दाद को दीवार में कणों है, और संगमरमर पापाण में बैठे दवाथी पर देठो हुई सुददी है | एक हाथ में फत्त मोर दूसरे में फूल की माला दै ॥रारीर पर भगरखसा का (गिद्द है मृर्ति पर लेख नहीं है। परन्तु देइरी पर लेख है। इस सेख से साशूस होदा है दि--बइ मूर्ति इस देशइरी का जीयोदार कराने पासे खबता अंपदा उसके काछा रामा की होनी चादिये ।
( ४३ )
देशरी नं० १४५/--में मूलनायक भरी शांतिनाथ ) ( शांतिनाभ ),««««» भगवान् फी पंचतीर्धी फे परिफर बाली मूर्ति १, सादे प्रिकर याली मूर्णि £ और परिकर रहित मूर्णियों २ हैं, (छल ४ जिन मूर्तियों हैं )। छेश्री नं० १६--में मूलनायक भ्रीशांतिन।य भगवान् फी परिफर पाली मूर्ति १, परिकर रदित मूर्तियों ४ भौर संगमरगर में घने हुए एक शक्त फे नीचे कमरा पर बैठी हुई पशासम थाली ? सूर्सि पसी एुई है; जिसपर शेख नहीं है। सूचि फे एफ तरफ भरायफ तथा दूसरी तरफ भ्रापिका धवाथ में पूजए का सामान सेकर खड़ी है । सम्भव है कि यह बिम्प धुण्दरीक स्वामी फा हो । (छल जिनपिम्व ६ और उक्त रचना का पद १ ६)। देहरी नं० १७--में समवसरण फी सुंदर रचना, नह्काशी युक्त संगमरमर फी बनी है। जिसमें मूसनायक चौषुखजी-( १) महावीर, ( २)“, ( ३ ) आदिनाथ ओर (४) घेद्प्रभ स्वामी हैं, ( छुल चार मूर्सियों हैं )। इस देदरी फे पाहर भी एक छोटे समपसरण फी रचना है। हसमें पहिले तीन गढ हैं, इसके ऊपर चौसुखी स्वरुप घार मूर्तियों और ऊपर शिखर युक्त देरी फा झकार, संगभरणर के पक ही पत्थर में घना हुआ दै।
है आधक है
देहरी नं० १८---में मूलनायक ओऔ '्लैयांसनाथे भ चानादे के तीन जिनविम्ब हैं। इस देहरी का घाइरी गुम्प आर द्वार आदि सब्र नये बने हुए हैं ।
इस देहरी के वाद दो खाली कोठड़ियों हैं; जिन अन्दिर का फुटकर सामान रहता है। ५
देंहरी नं० १६--में परिकर रहित मूलनायक् अं आदिनाथ भगवानादि के मिनबिम्ब ७ और सादे परिक वाले २, कुस & जिनविम्त हैं।
इसी देदरी के बाहर दीयार में एक आला हैं; जिसमें सीनतीर्थी और सपे फन के परिकर थाली एक प्रतिमा है ।
देहरी नं० २०--के खान में श्री ऋषदेव भगवान् का बड़ा गम्मारा है; जिसमें भूलनायक श्रीऋषभंदेव $
$ ह सूर्ति रे दोनें कथा पर चोटी का चिट्ट होने से दइृढ़ता पूर्देक कट्ट सकते दैँ कि यह भ्रतिमा श्री सुनिश्युम्तस्वामी की नहीं डिन्तु थी ऋपभदेव अगवान की दे । बैठक पर सबुन भझमाय, श्यय्मकर्ण, और रूपे पर रहे हुए चोटो के चिद्ध की सर श्यान नहीं पहुचने भादे कारणों से लोग, इस सूर्ति को श्रीमुनिसुमत स्दामी की मूर्ति! मानते हैं। वास्तव में यह अमणा है। अय से इस सूर्ति को सी कऋिपमरेंत सगयात! ही की सूर्ति मानना चादिये । दंत कथा दे कि-/झविका देदी' ले पदिमज्ञ' मंत्री को ध्वम
98 90820.
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विमल-चसहि, देहरी २० “समवसरग.
20, 2. एक्शन 4 ]करक
( ४१ )
वान् की श्याम वणे की बड़ी और ग्राचीन अतिमा १, ते गठ की सुंदर रचना वाल्ले * समवसरण में परिकर ले चौप्ुखी स्वरूप जिन बिम्ब ४, उत्कृष्कालीन १७० थैकरों का पह्ट १, एक एक चौथीसी के पट्ट ३, पंचतीर्थी परिकर वाली श्रतिमा-१, सादे परिकर वाले जिनबिम्ब , बिना परिकर के जिनबिम्ब १५, चौबीसी के पट्ट से दे हुए छोटे जिनबिम्ब ६) पाट पर बैठे हुए आचाये की ही मूर्ति १ (इस मूत्ति के दोनों कानों के पीछे ओघा, हिने कंधे पर मुँहपात्ति, एक हाथ में माला ओर शरीर पर पड़े के चिह्न बने हैं। इस पट्ट में दोनों तरफ हाथ ड़े हुए श्रावक की एक २ खड़ी मूर्ति बनी है; जिनके
ड़ यह सूर्ति लगभग वि० खं० १०८० में भूमि से प्रकट करवाई । इस लि का निर्माण काल चतुर्थ आरा (करीब २४६० वर्ष पूे) कहा जाता है । वेमलशाह' ने मंदिर निर्माण कराते समय सब से पद़िले इस ही गग्भारे बनवाया; जिसमें इस झूत्ति को विराजमान किया ।तत्पश्नात् (विमल? ने ज्ञनायकजी के स्थान में स्थापित करने के उद्देश से धातु को एक भत्ति मण्णीय और बड़ी झूर्सि बनवाई जिससे वह सूर्सि इस ही गस्मारे में रही।
१ इस समवसरण में नियमाजुसार प्रथम गढ ( किला ) में चाहन पवारियाँ), दूसरे यद में उपदेश सुनने के लिये आये हुए पशु्नों, बीसरे
ढ में देव घ मनुष्यों की यारह्द पपंदा, थारद दरयात्रे, गद के कांगड़े और सर देदरी की आकृति आदि को रचना बहुत सुंदर रोति से छाई के ५
( ३ )
नीचे--/सा० घहा। सा० बालए नाम खुदे हैं। आचार्य की इस भूरत्ति के लेख से अकट होता है क्कि उपर्युक्त दोनों आवको ने, धर्मघोष खरे के शिष्य आनंद उरि-अपर प्भ- झछरे के शिष्य ज्ञानचंद्रछरि के शिष्प “श्री मुनिशेखर सरि की यह मूर्ति वि० सं० १३६६ में बनवार) आचार्य की बिना नाम की हाथ जोड़े बैठी हुई छोटी मूर्ति ९ (इस सूचि में भी ऊपर की वरह कानों के पीछे ओधा, शरीर पर कपड़े का देखाव और हाथ में मुँहपत्ति है), श्रावक- आविका के बिना नाम के बड़े युगल २, हाथ जोड़े हुए श्रावक की खड़ी बोटी मूर्चि १५ द्वाथ जोड़े बेढी हुई आविका की छोटी सूरत्ति १, अंब्रिकादेवी की छोटी- मूर्ति ९, भूमिग्रह-तलघर से निकली हुई अंबिका देवी की धातु की सुन्दर मूर्ति १, यक् की सूरचियों! २, भेरव- चेत्रपाल की मूर्ति १ और परिकर से प्रथक् हुईं इन्द्र की मूर्चि १ है। [इस गम्भारे में कुल पंचतीर्थी के परिकर युक्त मूर्त्ति १, सादे परिकर युक्त मूत्तियाँ ९, मूलनायकजी सद्दित बिना परिकर के जिनर्थिंव १६, मिलकुल छोटी जिम- मूर्तियाँ ६, चार जिनबिंय युक्त समवसरण १, १७० जिनपट्ट १५ चौपीसी जिनपट्ट $ आचार्य मूर्ति २, श्रावक-भ्राविका
€ ४्ड )
के घुगल २, श्रावक मूचि १, भ्राविका मूर्चि ३, अंबिका देवी की मूर्ति २ ( संगमरमर की १ और घातु की १ ), हन्द्रमूर्ति १, यत्तमात्ति २ और भरवजी (च्षेत्रपाल ) फी मूर्ति १ है ]। *
देहरो नं० २१--(उपयुक्न गम्भारे के पास की देहरी) में अंबिका देवी की चार यूर्तियाँ हैं, जिनमें की मूल मूरत्ति। बड़ी और मनोहर है। इसके नीचे लेख है। इस मूर्ति को वि० सं० १३६४ सें 'विमल' मंत्री के चंशगत पंडण ( माणक ) ने बनवाई, इस मारते और बाई ओर की अभिका देवी की छोटी पूर्ति के मस्तक पर भगवान् की एक एक मूर्चि बनी है।
देहरी नं० २२--में मूलनायक श्री [ आदिनाथ ] आदिनाथजो की तीनदीर्थी के परिकरवाली मूर्ति ९ और बिना परिकर की सूर्चियों २ (कुल ३ सूर्तियाँ) हैं। इस देहरी का सारा बाहरी भाग नया बना हुआ है।
# देहरी ने० २ऐ--में मूलनायक श्री [ आदिनाथ ] (् यद्मग्रम ) नेमिनाथ भगवान् साहेत सादे परिकर वाली मूर्चियों २ और पंचतीर्थी के परिकर पाली मूर्ति २ (कुल ३ पूर्तियाँ) है।
( 2४ )
# देहरी न॑० २४--में मूलनायक भी (शांतिनाथ) समातिनाथ अथवा अनंतनाथ भगवान् सहित सादे परिकर वाली पूर्सियाँ २ और प्िना परिकर वाली मार्च £ई ( छल ३ मूत्तियाँ) है ।
# देहरी ने० २४--में मूलनायक श्री ( संमवनाथ ) पार्थनाथ भगवान् की परिकर वाली मूर्ति १, बिना परिकर की मूत्ति १ और चोबीसी का पह्ट १ ( कुल २ मूत्तियाँ और १ पड़) है।
# देहरी नं ० २६--में मूलनायक श्रीचेद्रग्रम भगवान् की तीनवीर्थी के परिकर वाली मूर्चि १ आर बिना पारिकर की मूर्सियाँ २ (छुल ३ मूत्तियों) हैं ।
# देहरी नं० २७--में मूलनायक श्री (सुमतिनाथ ) (सुमतिनाथ) “”'*“ भगवात की पंचतीर्थी के परिकर बाली मूर्ति ३ और सादी मूर्चियाँ ३ (कुल ४ मूर्चियों ) हैं।
# देहरी नं० २८--में मूलनायक श्री (पद्मप्रम) नेमिनाथ मगवान् की तीनतीर्थी के परिकर वाली मूर्चि १ और सादी मूर्तियों २ (कुल रे मूतचियाँ ) हैं ।
देहरी नं० २६-में मूलनायक भरी (सुपा्थनाथ ) आंदिनाथ भगवान की तौनतीर्थी के पारिकर बाली मूर्चि १ तथा बिना परिकर की मूर्चियाँ २ (कुल ३ यूर्चियों ) हू!
( ४५ )
देहरी न॑ं० ३०--में मूलनायक ओऔ (शांतिनाथ) सीमंधरखामी की परिकर वाली मूरत्ति १ और विन परिकर की मूर्तियों २ (कुल रे पूत्तियाँ) हैं। देहरी नं० ३१--में मूलनायक श्री (अनिसुत्रत » सुविधिनाथ भगवान् की पंचतीर्थी के परिकर वाली मूर्ति £ ओर सादी मूर्तियां २ (कुल ३ मूर्तियों ) हैं। देहरो नं० ३२--में मूलनायक श्री [ऋणषभदेव | (शान्तिनाथ ) ( महावीर ) आदिनाथ भगवान् सहित पारिकर वाली मूर्त्तियाँ २ और बिना परिकर की मूर्ति १ (कुल ई पूर्तियों ) है । देहरी नं० ३३--में मूलनायक श्री (अनंतनाथ ) कुंधुनाथ भगवान् की परिकर वाली मूर्ति ? और बिना परिकर की सूर्तियों २ ( कुल ३ भूत्तियों ) हैं । देहरी नं० ३४-में मूलनायक श्री (अरनाथ) ( सन्लिनाथ ) पद्मप्रभ भगवान् की परिकर वाली मूर्ति १ और बिना परिकर की मूर्त्तियाँ २ (कुल ३ मूर्चियाँ) हैं। धर्मना अदेहरी नं ० कर मूलनायक श्री ( शान्तिनाथ ) घमेनाथ मगवान् सद्दित परिकर बाली पूर्तियों २ तथा तीन- दीथी के परिकर वाली मूर्ति १ (कुल ३ मूर्चियां ) रे
( *४ )
* #देहरी ने० इई--में मूलनायफ शी (घर्मनाय) शांतिनाथ भगवान् की परेकर बाली मूर्ति १ ओर पिला यरिकर की मूर्सियां २ ( कुल ई मूर्चियां ) हैं । ' देहरीनं० ३७--में मूंलनायक थ्री (शीतलनाय ) पार्शनाथ भगवान् की परिकर घाली मूर्चि १ और बिना यरिकर की सू्तियों २ (ुल २ मूर्तियों ) हैं । । #देहरी नें० ३८--में मूलनायक श्री ( शांतिनाथ ) आदिनाय भगवान् की परिकेर बाली मूर्ति १ और बिना यरिकर की मूर्चियाँ २ (कुल ३ मूर्तियोँ) हैं। $ देहरी ने० ३६--में मूलनायक श्री ( कुंधुनाय 2 कुंधुनाथ भगवान् सहित परिकर वाली मूर्त्तियाँ २ ओर तीन- तीर्थी के परिकर वाली मूर्चि १ (कुल ३ मूर्चियों ) है। * # देहरी नं० ४०--में मूलनायक श्री ( मप्लिनाय ) ६ समतिनाथ ) विमलनाथ भगवान् की परिकर वाली मूर्चि ३ और बिना परिकर की मूर्चियाँ २ (कुल रे सूत्तियाँ) हैं (» # देहरी ने० ४१--में मूलनायक श्री ( चासुएज्य ) शाखा वारिपेयजी की परिकर वाली मूर्ति १ और पिनां परिकर की मूर्तियों २ (छुल मूर्चियाँ ३ ) हैं।
विमलन्यसद्ि देहरी ७४३--सपरिछर भीपा धनाथ सगवान- ये 3 कीपरणन 4 -त
(४७)
, #ेहरी नं० ४२---में मूलनायंक श्री [ आजितनाथ ] (आदिनाथ) आदिनाय भगवान् की तीनंतीर्थी के परिकर चाली मूर्ति १ एवं सादी मूचियों २ ( कुल रे मूर्तियाँ ) हैं
# देहरी नं० ४३--में मूलदायक श्री [नेमिनाथ ] कक 888 भगवान् सहित सादे परिकर वाली मूर्तियों २ एवं
'प्रंचतीर्थी के परिकर वाली मूर्त्ति १ (कुल ३ मूर्तियाँ) है ।
# देहरी नं० ४४--में मूलनायक श्री [ पाश्वनाथ | पाश्चैनाथ भगवान् की अति सुन्दर नक़्काशीदार तोरण ' और परिकर वाली मूर्ति १ तथा सादे परिकर बाली मूर्ति १ (कुल २ मूर्तियाँ ) है।
देदरी नं० ४५--में मूलनायक्र श्री ( नमिनाथ )
(शांतिनाथ) आदिनाथ भगवान् की अलन्त सुंदर नक़्काशी- <दार तोरणां एवं परिकर वाली मूर्चि शहे।
देहरी ने० ४६--में गूलनायक श्री [ म्रनिसुत्रत |
(अजितनाथ) धरमनाथ मगयान् की परिकर वाली मूर्ति १
और परिकर रहित प्रतिमाएँ २ ( छल ३ मूर्तियाँ ) हैं ।
, देहरी नं० ४७--में मूलनायक श्री [महावीर]
(शाविनाथ) अनंतनाथ मगवान् की अत्यन्त सुंदर नक़काशी-
द्वार तोरण और पंचतोर्थी के परिकर वाली मूत्ति १ है।
( #८द )
।. अदेहरी न॑ं० ४८-में मूलनायक' श्री [आंजेवनाथ! सुमतिनाथ भगवान् सहित परिकर वाली प्रतिमाएँ २ तथा परिकर रद्दित मूर्ति १ (कुल ३ मूर्तियां ) है।
# देहरी न॑ं० ४६---में मूलनायक श्री [ पाश्चनाथ ] आजितनाय भगवान् की परिकर वाली पूर्त्ति १ है । बोई ओर परिकर वाली एक दूसरी मूर्चि है; जिसके परिकर में झुंदररीत्या भगवान् की २३ मूर्त्ियाँ बनी हुई हैं | इस- लिये इसको चौबीसी का पट्ट कद सकते हैं । परन्तु इस पट के मूलनायकजी की मूर्ति बड़ी और परिकर से भिन्न है (कुल मूर्ति १ और उपयुक्त पट्ट १६ै)।
देहरी नं० ५०-में मूलनायक श्री [ बिमलनाथ ] महावीरखामी की पारिकर वाली मूर्ति १ है।'
देहरी ने० ४१--में मूलनायक श्री [आदिनाथ]”““ भगवान् की तीनतीर्थी के परिकर वाली मूर्ति १ और बिना परिकर की मूर्ति १( छल २ यूत्तियाँ ) दे।
# देहरी न॑० ४२--में मूलनायक श्री [महावीर | मद्दावीरखामी की पंचतीर्यी के परिकर पाली भूचि १ ओर परिकर रद्दित मूर्ति १ ( छुल २ मूर्चियोँ ) दे ।
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विमल-वसहि, देहरी ७६--चतुविशति जिन पह
( जिन चांदी ) 9 4 ए२०क०, &]काटर
( शे६ )
कक #देहरी ने० ५३--में मूलनायक औी शीतलनाथ भू की परिकर बाली मूर्ति ९ और पिना परिकर की भूर्चियों २ ( कुल ३ मूर्तियां ) हैं ।
किक अदेहरी नं० ५४--में मूलनायक श्री पिशनाथा गदिनाथ भगवान् की अत्यन्त सुंदर नक़्काशीदार तोरण के. सभ। (ऊपर का तोरण नहीं है) और तीनतीर्थी के परिकर सहित पूर्ति १ है । इस मंदिर में छुल मूर्तियों इस प्रकार हैं।-- १७ पंचती्थी के परिकर संददित मूर्तियों । ११ त्ितीर्थी # है । है । 8 ६० सादे ११ 9$ 99 १३६ परिकर रहित मूर्तियाँ । २ घातु की बड़ी एकल प्रतिमा । ३ बड़े काउसग्गिये। १ छोटा काउसग्गिया, परिकर से जुदा हुआ १ एक सौ सत्तर जिन का पई | १ तीन चौबीसी का पड । ७ एक चौबीसी के पट | १ जिन-माता चौबीसी का पई |
# खेर
( हईै० ) २ भ्रातु की चौबीसी | २ धातु की पंचतीर्थी 4 १ धातु फी एकतीर्थी | “२ धातु की चिल्कुल छोटी एकल श्रतिमा | १ आदीश्वर भगवान् के पादुका की जोड़ ।
' १ पापाण में खुदा हुआ यंत्र ।
६ चोबीसी में से छुटी हुई छोटी जिन मूचियाँ ।
3 आचार्यों की मूर्तियाँ (१ मूल मम्भारेमें और २ देहरी नं० २० में हैं )।
9 भ्रावक-भाविका के सुगल, ( ! नवचौकी में, २ देहरी न॑० २०, में और एक युगल दस्तिशाला के पास याले बड़े रंगमंडप में है ) ।
-9 श्रावकों की सूर्त्तियाँ (२ भूर्चियोँ गढ़ मंडप में,
१ देहरी न॑० १४ में और १ देहरी नं* २० में है )। 5२ पट देहरी नं० १० में हैं, एक पट्ट में हस्ती तथा घोड़े पर बैठे हुए आवक की दो मूत्तियों बनी हुई हैं, और दूसरे पड में “नीना' आदि भाषकों की आठ मूर्चियों बनी हुई हैं “४ आविका की मूर्त्तियों ( दे गूहमंडप में ओर १ देहरी नं० २० में है )।
(६१ ) १ श्राविका पड्ट नवचाकी के अलि में है; जिस आबिकाओं की तीन मूर्चियाँ बनी हुई हैं। २ यक्त की शू्तियाँ (देहरी नं० २० में) हैं। ७ अंग्रिका देवी की मूर्तियाँ (देहरी नं० २० में देहरी नं० २१ में ४ तथा गूढमडप में १ ) हैं १ भैरवजी की खड़ी मूर्ति ( देहरी नें० २० में )' १ इन्द्र की मूत्ति। १ लक्ष्मी देवी की मूर्ति (हस्तिशाला में ) है। ११ हाथी १० और थोड़ा १, कुल ११ ( हसिशा में) हैं। १ अश्वारूढ मूर्ति 'विमल' शाह की (हस्तिशाला में) १ 'बिमल' शाह के मस्तक पर छत्नघारक की रख मूर्ति ( हस्तिशाला में ) है। ८ द्वाथी पर बेढे हुए भ्रावकों की मूर्तियाँ ३ ३ महावतों की मूर्तियोँ ५, कुल ८ मू्तियाँ ( हू शाला में ) हैं।
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(६२ )
हश्यों की रचना--
(१ ) विमलवसही के गूदुमंडप के मुख्य अवेश हा के बाहर, दरवाजे और बाण ताक़ के बीच की दी नक़्काशी के सर्वोच्च भाग में (प्रथम खण्ड रू आवक भगवान् की ओर बैठकर चैत्यवंद्न कर रो, पास ही में एक आश्राविका हाथ जोड़कर खड़ी है, डि. पास एक अन्य श्राविका सड़ी है। दूसरे खण्ड में शआ्रावक हैं; जिनके हाथ में पुष्पमालाएँ हैं । तीसरे खण्ड में , आचार्य महाराज आसन पर बैठकर उपदेश दे रहे हैं। पास में ठवणी (स्थापना) रक््खी है। इसके नीचे के चार्रो सण्डों में थाक्रम तीन साधु, तीन साध्दियों, तीन शआवक और तीन भ्राविकाएँ सड़ी हैं ।
(२) वहीं झुख्य द्वारा और दाहिने ताझ के बीच की दीवार में सब्रसे ऊपर ( प्रथम खसणड में ) एक आविका द्ाथ जोड़कर खड़ी है। उसके पास द्वी एक आवक सड़ा है। दूसरे खण्ड में पुष्पमाला युह दो आवक ओर शक अन्य श्रावक हाथ जोड़कर खड़ा हई। सीसरे सणड में गुरु महाराज दो शिप्पों को क्रिया करते हुए मस्तक पर वासचेप डाल रहे हैं। दोनों शिप्प नम्न
<
( ६३ )
मा से, मस्तक झुकाकर वासक्तेप उलवा रहे हैं। गुरु अहाराज उच्च आसन पर बैठे हैं, सामने उनके मुझ्य शिष्य छोटे आसन पर बैठे हैं ! बीच में पे पर ठवणी (स्थापना- चाय्थे) है। इसके नीचे के चारों खण्डों में पूवेवत् ही तीन साधु, तीन साध्वियों, तीन श्रावक और तीन आविकाएँ खड़ी हैं |
(३ ) नवचोकी के पहिले खण्ड के मध्यच॒र्ती ( मुख्य दरवाज़े के निकट के ) गुम्बज की छत के नीचे की गोल पंक्कि में एक ओर भगवान् काउसर्ग ध्यान में स्थित हैं । आस पास श्रावक कुंभ, पुष्ममराला आदि पूजा की सामग्री लेकर खड़े हैं। दूसरी ओर आचाये महाराज आसन पर विराजमान हैं। एक शिष्य साप्टांग नमस्कार कर रहा है। अन्य श्रावक हाथ जोड़कर उपस्थित हैं। अवशिष्ट भाग में गीत, नृत्य, चादित्र आदि के पात्र खुदे हैं।
(४ ) नवचोकी में दाहिनी ओर के तीसरे गुम्बज़ की छत के एक कोने में अभिषेक सहित लर्त्मी देवी की सूर्सि बनी हुई है। उसी गुम्मज के दूसरे कोने में दो हायियों के युद्ध का च्श्य बना है |
_ (४) नवचौकी के पास के बड़े रंगमंडप में बीच के घढ़े गोल गशुम्बत्ञ में अत्येक स्थम्भ पर भिन्न २
(६४ )
आयुध-शख ओर नाना प्रकार के धाइनों से सुशोमित पोडश (सोलह) पिद्यादेवियों* की अत्यन्त रमणीय १६ खड़ी मूर्चियों हैं।
(५ .4ए ) रंगमंडप और दाहिने दाथ की (उत्तर दिशा की ) भमती के बीच के गुम्पजों में से रंगमंडप के पास के बीच के शुम्बज में सरस्वती देवी की सुन्दर पूर्सि खुदी है ।
( ४ >वथी ) उसके सामने ही-रंगमंडप और दक्षिण दिशा की भमती के बीच के गुम्बजों में से, रंगर्मंडप के पास के वीच के मुम्बज्न में लक्ष्मी देवी की सुन्दर मूर्ति खुदी है।
(४ ८सी ) मध्यवर्ती बढ़े रंगमंडप के नऋत्य कोण के वीच में अंबिकादेदी की सुन्दर मूर्सि बनी हैं। शेष सीन कोने में मी बीच में अन्य देव-देवियों की सुन्दर मूर्चियाँ बनी हैं ।
(६ ) मंदिर के झुख्य प्रवेश द्वार और रंगमंडप के बीच के; नीचे के मध्य गुम्बज़ के बढ़े सएड में मरत पाह्चली के
* ९ रोदियी, २ प्रश्षप्ति, ३ चश्ध्ाखला, ४ बच्रांकुशी, २ भप्रति>- अऋका (लकेचरी), इ पुरुचदत्ता, ७ रास, < मझाकाबी, २ गौरी, ३० गांपारी,
3३ सर्वोश्मा सदाग्दाद्या, १३ मागवी, १३ वैप्ठ्ण, १४ अच्चुछा, १९ आनसी और १३६ मशामानसी, पे सोघह ईदिधा देदियों हैं ।
(६ छश )
युद्ध का रृश्यई है। उस दृश्य के प्रारंभ में एक ओर अयोध्या और दूसरी ओर तक्षशिला नगरी है। दोनों के घीच में वेल का दिखाव बनाकर दोनों को जुदा जुदा अ्रदर्शित किया है। उसमें इस प्रकार नाम वगरद लिखे हैं।--
_ प्रथम सीकर ऋषभदेव मगवान् फे भरत-बाहुबलि आये एकसी पुत्र और प्राह्मी तथा सुन्दरी ये दो पुत्रियोँ थीं। दीक्षा अज्जीकार करते समय भगवान् ने भरत को अयोध्या, बाहुबलि को तकशिला और शेष धुन्नों को भिन्न भिन्न देशों के शासक नियुक्त किये । आदिनाथ भगवान के. चवारिश्र-दीक्ा ग्रहण करने के बाद भगवान् के ६८ लघु पुत्र सथा माही पु सुन्द्री ने भी सवे विरति चारित्र स्वीकार किया था | तस्पश्चात् किसी अधान कारण से भरत और बाहुबलि इन दोनों में परस्पर महा युद्ध आरम्भ हुआ। ल्ोगों-लैनिकों का संहार न हो, इस वस्तु तत्व को ध्यान में लेकर उन दोनों भाइयों ने सैन्यों की लड़ाई बन्द करदी । और दोनों ने स्वयं परस्पर छः प्रकार के दन्द युद्ध किये। भरत, 'चक्वर्ति होते हुफू भी, बाहुबलि के शरीर का बल विशेष होने से बाहुबलि ने सब युद्धों में विजय प्राप्त की। तो भी भरत चह्वर्ति ने विशेष युद्ध करने की इच्छा से घुनः बाहुबलि पर एक वार सुष्टि प्रदार किया। इस पर बाहुबलि ने भी अरत को सारने के लिये सुद्ठी ऊँची की । परन्तु विचार हुआ (के--५ है यद्द क्या अनर्थे कर रहा हूँ? ज्येष्ठ आता का दध करने को उद्यत हुआ हूं!” इस प्रकार चैराग्य उत्पन्न होने से उन्होंने उसी समय दीक्षा अन्जी- कार की। अर्थात् उठाई हुई सुद्दी द्वारा अपने मस्तक के केशों का लुख्चन कर किया ' जल्ल राजा ने, डनको नमस्कार कर प्रशंसा की और उनके-- बाहुबालि के बड़े लड़के को गादी पर बैठा कर आप अयोध्या पाते. । ऋत्द
( छछ६ )
(६ 4 ए ) पहिले अयोध्या नगरी की तरफ “ शरीमरभे- अरसत्का विनीतामिधाना राजधानी ' ( श्रीमरत चक्रवर्चि की अयोध्या नाम की राजघानी )।! “भप्मी वांसी ” ( बहिन बाह्ी )। “माता सुमंगल्एं ( धुमंगज्ञा माता )। परालकी में बैठी हुई स्वियों पर “समस्त सतःपुर” ( सारा जनान खाना )। पालकी में बैठी हुई स्नी पर * सुन्दरी ख्रीरत्ना ( ख्रीरत्न सुन्दरी )। दरवाजे पर “प्रतोली” ( दरवाजा ) | पदथ्मात् लड़ाई के लिये अयोध्या से सेना रबाना होती है ।
५५ 5
बाहुकले को विचार आया कि छोटे ६८ आताओं ने पढिले दीक्षा अइ्ण की है। इसालिये उनकों बदन फरना होगा। श्रत केवल छान पाप्त करके ही भगवान् के समीप जाऊँ, जिससे छोटे भाइयों को धंदन करना जव पढ़े । इस विचार से बाहुबलि म॒नि मे उसी स्थान पर एक चर्ष तक कायोत्सते किया। हमेशा उपत्रास् के साथ ही साथ नाना भकार के कष्ट सदन किये। परन्तु फ्रेंड ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई! तत्पश्चात् उनकी खांसारिक भांगिनियाँ साध्यी-य्राकद्षी और सुन्दरी आकर उपदेश देने लगीं फक्ि- हे भाई ! हाथी पर सवार होने से केवक ज्ञान नहीं होता है।” चाहुवनि घुरन्त ही समझ गये और छोटे भाइयों को बन्दुना करने के ्षिये, भमिमान स्वरूप द्वाथी का त्याग करके ज्योह्टी पर भागे बढ़ाया, कि छसी समय केवल ज्ञान की यासि हुए। फिर ये भगवान् के समवसरण में गये भौर चहा पर केव्लियों की पर्षदा में बैडे। तत्पश्चात् भगवान् के साथ ही शिवमन्दिर-मोछ में गये। यहुत यो तक भरत चकदर्ति के राज्य को भोगने के याद धुझ दिम
अरत राजा समप्र धस्कामूएणों से सुसालित होइर आरीसासयन में पधारे।
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(६७ )
इस दृश्य में एक हाथी के उपर 'पाट्हस्ति विजयगिरिं (प३- इस्ति विजयगिरि ) इसके ऊपर लड़ाई के बेप में सझ होकर चैठे हुए मनुष्य पर 'मद्यमात्य मतिसागर (महामेत्री मति- सागर )। लड़ाई के चस्ध घारण करके दृथी पर बैठे हुए पुरुष पर 'सैनापति सुसेन (सुपेण सेनापति) ओर युद्ध की पोशाक पहन कर रथ में बैठे हुए मनुष्य पर 'शीभरथेश्वरस्प (श्रीमरत चकऋषती ) बगेरह नाम लिखे हुवे हैं। तत्पथात् हाथी, घोड़े और सैन्य की पंक्वियां खुदी हुई हैं। .«
(६ ४ थी ) तब्ञशिला नगरी की ओर 'वाहुबलिसत्का तक्तशिल्ञाभिधांना राजधानी' ( बाहुबाले की तक्षशिला नाम की राजधानी), और 'पुत्री जपतोमती' (यशोमती पुत्री) लिखा है। इसके बाद तक्षशिला नगरी में से सैन्य युद्ध करने के लिये बाहर निकलने का दृश्य है। उससे “सिंहरथ सेनापति?
उस भवन में अपना रूप देखते समय उनके हाथ की डैंगली में से झँगुठी (मींटी) के ऐिरनाने से उंगली शोभ्ाह्वीन भतीत हुई। ऋमाजुसार से आमपरों के उतारने पर शरीर फी शोभा में न््यूनता प्राप्त हुई। उसे समय चेरास्प रंगर्म तत्लीच होकर यह सच बाह्य शोभा है' इस प्रकार शुम भावना करते २ फेंदल ज्ञान प्राप्त हुआ । शांसनदेवी ने आकर साधु का देप दिया। भरत रजर्पि ने उस चेष को अहण कर के वर्षो तक विचरय किया और अनेक भाखियों को भतिद्रोध करके, आयुष्य पूर्ण- होने पर मोह में गये | उनके अन्य ६८ घन्धु चु दोनों सगनियाँ भी मोक्ष में गई
( धु८ )
(सेनाएति सिंहरथ )। लड़ाई के वस्र पहन कर हाथी पर बैठे हुए मनुष्य पर 'कुमर सोमजस' ( कुमार सोमयश ) | युद्धके कपड़े पहन कर हाथी पर बैठे हुए आदमी पर "मंत्री बहुलमति' (मंत्री पहुलमदि )। पालकी में बैठी हुई खियों पर 'अन्वः पुरा (जनाम खाना )। पालकी में बेटी हुई स्री पर 'सुभद्रा सौरता (स्री रत सुभद्रा)। इसके बाद हाथी घोड़ांदे सनन्य की पह्ियाँ खुदी हुई हैं। कोई आदमी लड़ाई के बेष में मुसजित होकर र॒य में चेठा है, उसपर लिखा हुवा भाम पद्मा नहीं जाता है । परन्तु बह शायद धाहुबालि खं बैठे हों, ऐसा मालूम होता है | (६ 0 सी ) पथाव् रणतक्षेत्र में एक झत मलुष्य पर अनिलबेगः” । लड़ाई के वेष में थोड़े पर बेटा हुआ मनुष्य पर 'सेमापति सीहरय | युद्ध की पोशाक में रथ में चेठे हुए मनुष्य पर 'रयारूठों भरयेश्वरस्प विद्याधर अनिलवेग” (मरत राजा का रथ में बेठा हुआ अनिलवेग विद्याधर) विमान में बैठे हुए आदमी पर 'अनिलवेगः” । हाथी पर 'पाटदस्ति विजय- गिरि!। उस हाथी पर चेठे हुए मनुष्य पर “आदित्यजशः। घोद़े पर बैठे हुए मनुष्य पर 'सुवेग दृत४। इत्यादि लिखा है। (६ 9 डी ) उसके वादकी दो पंक्वियों में मरत-बाहुबलि का छ; प्रकार का इन्द् युद्ध ख़ुदा हुआ हैं। उसमें इस भ्रकार लिखा हैः--
(६६ )
४परपेश्वर बाहुबालि द॒ट्टियुद्ध! भरथेश्वर वाहुबाल वाकयुद्ध | भरपेश्वर बाहुबलि बाहुयुद्ध । भरयेश्वर बाहुबलि मुष्टियुद्ध । भरथेश्वर बाहुबलि दंडयुद्ध। भरयेश्वर बाहुबलि चक्रयुद्ध /!
(६ ४ है) प्मात् काउसर्ग-ध्यान में स्थित ओर बेल से लिपटी हुई बाहुबलि की मूर्त्ति पर 'काउसग्गे स्थित चाहुबलि' (कायोत्सग किये हुए बाहुबालि)। त्राह्मी-सुद्री के समझाने से मान का त्याग करके छोटे भाइयों को बंदना्थ जाते हुए पैर उठाते ही बाहुबलि को केवल ज्ञान होता है। उस दृश्य की मूर्ति पर 'संजात केवलज्ञाने धाइुबलि' और उसके पास ही आ्ाह्षी तथा सुन्द्री की मूर्ति है, जिस पर तिनी बांभी तथा सुंद्री' लिखा है।
(६7 एफ) एक ओर के कोने में तीन गठ और चौमुखजी सहित भगवान् ऋषभदेव के समवसरण की रचना है। भग- घान् की पर्षदा में जानवरों को सूर्सियों पर 'मंजारी मूखका ( बिल्ली और चूहा ) सप्पे नकुल' ( सांप और नौला ) 'सवच्छगावि सिंह! ( अपने बच्छड़े के सहित गाय और सिंह ), तथा आविकाओं की पर्षदापर 'सुनंदा ॥ सुमैगला॥ समस्त श्राव( वि )कानी परिखधाः ॥' पुरुषों की पर्षदा-
( ७० )
पर 'हये हि समस्तभावकानां परिखधाः ॥ खड़े खड़े विनय पूवेक नम्न होकर विनति करने वाली ज्राह्मी और झुन्दरी पर 'विज्ञप्तिक्रियमाणा ब्ांभी सुंदरी ॥[... ...---«०- हाथ जोड़ फर प्दक्षिणा करते हुए भरत महाराज की मूर्ति पर अदक्षणादीयमानमरथेश्वरस्य ॥! इस प्रकार लिखा है।
, एक ओर भरत चक्रबात्ति को केवल ज्ञानोत्पत्ति संबंधी इश्य है। उसमें अंगुटी राहित हाथ की उंगली की ओर इंष्टिपात करती हुई भरत महाराज की मूर्ति पर “अंगुलिक- स्थाननिरीक्षमाणा भरथेश्वरस्प संजातकेवलज्ञानं | अरे मरथेथरः॥” मरत चकवर्त्ती को रजोहरण ( जैन साध्ठुओं का जंतुरक्कक उपकरण ) प्रदान करती हुई देवी की मूर्ति पर “मरथेश्वरस्थ संजातकेवलज्ञाने रतोहरणसभरपणे सानिध्य- देवता समायाता ॥.... ....रजोहरण .... ...-सानिध्यदेवता ।।”
इत्यादि लिसा हुआ दे । इस शुम्बज के नीचे वाले रंग मंडप के तोरण में दोनों ओर बीच में मगवान् की एक एक मूर्ति खुदी है ।
(७ ) उपयुक्त भरत-त्राहुबलि के दृश्य के पास के ( मंदिर में श्रवेश करते समय अपने वांयें हाय की ओर के ) शुम्बज के नीचे की चारों दिशाओं की चार पंक्षियों में से
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( ७२ )
(१०) उपर्युक्त दृश्य के पास के द्वितीय गुम्बन्ञ में खाम (बाँये ) हाथ की ओर हाथीयों की पंक्ति के ऊपर की थोक में आह कुमार-हस्ति प्रतिबोध का दृश्य है | एक हाथी बड़ और अगले दोनों पांव झुका कर साधु मद्दाराज
| झादेकुमार ने पूवे भव में अपनी छी सहित दीत्ानमंत भज्ञीकार अकेया था। दीक्षा ग्रहण करने के बाद पूर्वोपार्जित ऊमे के उदय से किसी समय अपनी साध्वी-स्री को देखकर उसम्तके प्रति उसका अब्ुराशन्प्रेम अत्पन्न हुधा। जिससे मन द्वारा चारित्र की विराधना हुईं। उसका प्रायश्ित पक्रेये बेर ही रत्यु पाकर बढ देव॑जोक में उत्पन्न हुआ । वहां का झायुष्य चूर्ण करके झआाद्ेक नामक अनायें भदेश में आद्ेक राजा का आदेकुमार नामक घुश्र हुआ। किसी समय मगध मदेश के राजर श्रेशिक के पुत्र अभयकुमार के साथ उसकी पत्र ब्यवद्वार होने से मिश्रता हुईं। मित्रता छोने पर अभयकुमार ने आर्देकुमार को तीर्थंकर मगवाद् को भूर्तति सेजी । उस मूर्सि के दशंव से अआदेकुमार को जाति स्मयो ज्ञान (पूरे च्मारक छान ) उत्पन्न हुआ | निज पूर्दमव के दर्शन से वेराग्य की प्राप्त झुददं । मिससे वह अपने भनायेंदेश को घोड़कर झायेदेशा में आया और अवर्ष दीपा लेती । भगवान् सद्दावीर को चंदन करने के जलिये प्रस्थान पक्रेया। सासे में ०० चोर मिले । उनको उपदेश देकर दीक्षा दी । धहां खे भागे ज्ञाते हुए मार्गे में तापसों रा एक आश्रम मिल्ला। इस झाश्रमन चासी तापलों का ऐसा सत था कि--अनाज, फक्चष, शाक, साजी खरद खाने सें यहुत से जीवों की विराघना (हिंसा) करनी पढ़ती हैं । डुसालिये इत सचच्दी घपेष्ठा हाथी जैसे पुक ही महान् प्राणी को मशने से
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( ७३ )
को नमस्कार कर रहा है। साधु उसको उपदेश दे रहे हैं, उनके चीछे दो अन्य नि्नेथ-साधु हैं। और कोने में भगवान् श्री महावीर स्वामी कायोत्सगे ध्यान में खड़े हैं। हाथी की वाजु में एक मनुष्य सिंह के साथ मन्न कुश्ती करता है ।
उसके मांस से यहुत लोगों को यहुत दिनो तक भोजन चल सकता है और इससे असंख्य प्राणियों की हिंसा से विमुक्त हो सकते हैं। ( इसी कारण से इस झाभ्रम का नाम “हस्तितापसाभ्रम ? पढ़ा था | ) उस हेतु से ये खोग जंगल में से एक हाथी को मारने के उद्देश्य से पकष्ठ कर लाये थे और उसको अपने भाभ्रम के पास यांधा था ।
उस भागे से गमन करनेवाले आद्रेकुमारादि सुनियें! को देखकर उनको नमस्कार करने की उस हाथी की इच्छा हुई। यस, इस शुभ 'भाषना से और महर्पि के प्रमाव से उस हाथी के बंधन खंदित हो गये। उनेरंकुश द्वाथी मुनिराजोकों वंदन करने के किये एकदम दौदा | सब पोग अय से भागरूर दूर जा खड़े हुए ओर विचारने लगे कि--..हाथी भगी हाल ही आद्रकुमार सुनि की जीवनयाप्रा का नाश कर देगा । परत आह - कुमार मुनि जरा भो विचल्लित नहीं हुए। और उसो स्थान में काउसगा यान में खड़े रहे। हाथी, घीरे से उनके निकट आया और उसमे भगज्ले दोनों पैर तथा सूंड झुछाकर अपना कुम्भस्थल नवाकर नमस्कार डिया | 'एुवं अपनी सूंड से सुनिराज के पवित्र चरणों का स्पर्श किय। | स॒नि पुकद ने ध्यान पूरा किया और “यद्द कोई उत्तम जोच है? ऐसा जानकर खूब उपदेश दिया । द्वाथी धर्मोपदेश सुन शान्त हुआ और सना जमस्कार कर जंगल में चल्ता गया। तप्पआव झद्रकु पार मुनि से तमाम
( ७४ )
(११) देहरी नं० २, ३, ११, २४, २६, ३८, ३६५ ४०५ 9९, ४३, ४४, ५९, ५३५ और ५४४ के द्वार के बाहर दोनों ओर के रंश्यों में भावक-आविका हाथ में पूजा की सामग्री लेकर खड़े हैं। ०७, १२॥ ५३ और ५७ इन चार देंहरियों में इस माफिक विशेष दृश्य है) देहरी ने० ४४ के दरवाज़े के बाहर दाहिनी तरफ की ऊपरी पांक्ति के बीच में एक साधु खड़ा है। ५२वीं देहरी के दरवाजे के बाहर बांई तरफ ग्रधम त्रिक (तीन आदमी ) बांएँ घुटने: खड़े करके बैठे हुए चेत्यबंदन कर रहा है। और दाहिने हाथ की तरफ का प्रथम त्रिक घुटने भर बैठ कर वानित्न बजा रहा है। ४३ वीं देहरी के दरवाज़े के थाहर भी दोनों तरफ का यम प्रथम युग्म (दो आदमी ) एक एक घुटना खड़ा करके बैठा है। ओर ५४ वीं देहरी के दरवाजे के बाहर वांयें दथ की तरफ का प्रथम त्रिक (तीन व्यक्लियों)
5
सापसों को उपदेश दिया, मिससे सब छ्ोगों ने श्रतियोध पाकर दीघ्ा छी। थ्रद्टां से सब साधुमो को लेकर ध्मार्दृकु मार भागे जा रद्े थे। उस समय उपयुरु वात की खबर वीरवर मगधाधिप्रति राजा श्ोणिक व अमयकुमार को मिली। यह समाचार सुनकर वे बड़े हरित हुए और '्याद्रकुमाए झुनि को बन्दन करने के किये गये। पश्चात् आयाट्र कुमार सुनि ने सगवाक मद्दाचीर छ& शरप्य स्वीकार झी। वहाँ झाजीदन निर्मेस्त चारित्र पाक्षऋूढ केवछ शान प्रास किया और घन्त में मोक्ष के अतिथि हुए ।
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( ७४ )
का, द्वितीय त्रिक साधुओं का, तीसरा त्रिक साधुओं: का, चतुर्थ त्रिक श्रावकों का और पाँचवां त्रिक श्राविका्ों का है। इसी प्रकार दाहिने हाथ की तरफ भी पाँचों त्रिक हैं * ।-
(१२) सातवीं देहरी के दूसरे गुम्बन की नीचे की” लाईनों की नकासी में (क) एक ओर की लाइन के एकः कोने में दो साधु खड़े हैं। उनको एक श्रावक पंचाह्लः नमस्कार करता है। अन्य तीन श्रावक हाथ जोड़ कर खड़े हैं । दूसरी ओर एक काउसरिगया है। (ख) तीसरी तरफ की पंक्षि के एक कोने में सिंहासन पर आचार्य महाराज चैंठे हैं। एक शिष्य उनके पर दाबता है । एक नमस्कार फरता है और अन्य श्रावक व मुनिराज खद़े हैं ।
३ आज कल जैन लोग पाम घुथना खड़ा रस कर बैठे २ जिस प्रकार
चैत्यवन्दन करते हैं, इसी प्रकार इस भाव की नकशी में चैत्यवन्दन करने
चाक्ते लोग चैढे हैं । साम्ग्रतिक क्रिश्चियन लोग, जो कि घुटने के आधार पर खड़े रद्द कर प्रार्थना करते हैं, उसी प्रकार घामित्र बजाने वाले घुटने के वल पर रद्द कर बानिन्न बजा रहे हैं ।
२५ दीं देहदरी के याइर दोनों तरफ के सब से ऊँचे त्रिको में रहा हुओ- भाव यराबर सम में नहीं आया। सम्भव है कि थे सब जिनकल्पी साधु: के । दोनों ओर फे दूसरे च त्तीसरे प्रिकों में स्थविरकव्पी जैन साधु हैं। उच्च * लोगों ने दाहिना हाथ खुला रख कर आधुनिक श्रथा के भ्नुसार पिंडली- तक नीचे कपड़े पहिने हैं । उनके सबके बगल सें रजोहरण, एक हाथ में” मुँदपत्ति और दूसरे हाथ में डंढा है।
६ ७६ )
(१३) देहरी आठवीं के प्रथम शुम्बज के दृश्य के व्मध्य में समवसरण व चौसुखनी की रचना है । दितीय » एवं तृतीय चलय में एक एक व्याक्षि सिंहासनारूढ हैं।
अवशेष भाग में घोड़े ओर मनुष्यादि का समावेश है | पूर्व “तरफ की सीधी लाइन में एक तरफ भगवान् की एक बैठी -मूर्ति और दूसरी तरफ एक काउसरिगया खुदा है । और “पश्चिम तरफ की सीधी पांक्ति में एक कोने में दो साधु हैं । पश्चात् एक आचार्य आसनारूढ होकर देशना दे रहे हैँ। उनके पास स्थायनाचार्यजी हैं और श्रोतरा लोग उपदेश श्रवण कर रहे हैं।
(१४) आठवीं देहरी के दूसरे सुम्बज के नीचे की (क)
पश्चिम ओर की पांकि के मध्य भाग में तीन साधु खड़े हैं । एक श्रावक अपना हाथ नीचे रख कर (लकड़ी की तरह सीघा हाथ रख कर) उनको अब्भुट्ठिओ खमा रहा है (वंदन कर
“शहा है ), ओर अन्य भ्रावक हाथ जोड़े खड़े हैं, (ख) घूवे दिशा की पंक्कि के बीच में दो शुनिराज सड़े हैं, उनको एक साध धरती से मस्तक लगा कर पश्चाह्ञ नमस्कार पूवेक अब्भुट्टिओ खमा रहा है। दूसरे श्रावक्र हाथ जोढ़ कर खड़े हैं । इस दृश्य के पास ही एक तरफ एक ऐसा “दृश्य दिसलाया गया है, जिसमें एक हाथी मनुष्यों का 'पीछा कर रहा है, और लोग भाग रहे हैं ।
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( ७७ )
(१४) & वीं देहरी (मूलनायकजी श्री नेमिनाथजी)- के पहिले शुम्बज में पाँच कल्घाणक आदि ध्श्य की रचना है *। उसके बीच में तीन गढ वाले समवसरण में भगवान् की एक घूर्चि है । दूसरे वलय में (च्यवन कल्याणुक में) भगवान् की माता पलंग पर सोते हुए १४ स्वप्न देखती हैं। (जन्म कल्याणक में) इन्द्र महाराज भगवान् को गोद: में बैठा कर जन्माभिपेक-जन्म-स्नात्र महोत्सव फराते हैं । (दीचा कल्याणक में) भगवान् खड़े २ लोच कर रहे हैं। (केवल ज्ञान कल्याणक में) बीच में बने हुए समवसरण में बैठ कर भगवान् धर्मेपदेश दे रहे हैं। (निवोण कल्याणक में) दूसरे वलय में भगवान् काउसरग ध्यान में खड़े हैं, यानि मोक्ष गये हैं। तीसरे वलय में राजा, हाथी, घोड़ा, रथ और मनुष्यादि हैं ।
$ समस्त प्राणियों के लिये तीर्थकरों के पांच कल््याणक, सुखदायक अथवा मांगलिक प्रसड्ग माने जातै हैं । ये पांच कक््याणक इस प्रफार है. $ स्यवन कल्याणक (गर्भ मे आना), र जन्म कल्याणऊ, ३ दीक्षा कल्या- श्वक, ४ केवल ज्ञान कल्याण (सर्वेज्ञावस्था) आर £ नियोण कल्याण॒क (मोह-गमन ) । इनमें से श्रथम चयचन कल्याणक के दृश्य में माता क्ले८ पलंग पर सोते सोते ही (३) हाथी, (२) इपभ, (३) केशरों ग्सेह, (४) लच्मी - देवी, (३) पुष्पमाला, (६) चन्द, (७) खूब, (८) मद्दाध्वज, (६) पूहंर
कलश, (१०) पत्म सरोवर, (३१) रस्नाकर (सम्र॒द), (१३) देव विमान: ५५
( छठ )
( १६ ) देहरी १० वीं (मूलनायक श्री नेमिनाथजी) के पहिले गुम्बज में श्री नेमिनाथ चरिस्न का दृश्य है | इसके पादिले वलय में श्री नेमिनाथ के साथ श्री कृष्ण और
(११ ) रतन राशि चौर (१४ ) निर्धूम भरग्नि ( धूंझों राहित आग। ) इन $४ रथों फे देखने का रश्य दिखाया जाता दे | द्वितीय जन्म फल्यागर्क में इस्द मद्दारान, जिस दिन भगवान् का जन्म हुआ हो, उसी दिन सब- घान् को मेर पदत पर सेजाकर झपनी गोद में लेकर अम्म रनान्न (स्नान) अभिषेक सद्दोस्सव करते दें; इसकी, झपवा ४६ दिगयू कुमारियों चालंक सद्दित माता या स्नान मर्देनादि सूतिकर्म करती हैं; उसकी रचना ड्ोती “है। तासरे दोपष्ता कस्याणक में दीक्षा का जुलूस और शाषान् का >अपने हाथी से केश लुझन करने के दृश्य की रध्वना होती है । चतुर्थ केवल क्षान फल्याणक में भगवान् के केवल शान (सर्वेज्ञता) आाप्त धोने “पर समपसरण (दिव्य स्याप्थान शाला) में चेढ कर देशना देते हैं, हसकी रचना होती द ! प्रंचरव निर्धारण कव्थाणक में समस्त कर्मो के छ्य होने से शरीर को त्याग कर मोत्ष गमन के दरय में भगवात्र् कायोत्समे (फाउसगा) में खड़े हो अथवा बैठे हो ऐसी आकृति की रचना हगेती है । उपयुक्त कपनावुसार अथवा उसमें कुछ ज्यादा कम रचना होती है। इसे “धृंच कह्य!ण॒क का एश्य कहते है ।
३ भाचीनकाल में यमुना नदी के किनारे पर बसे हुए शौरोपुर नामक नगर में यादवकूल में अधकफल्रुष्णि नामक राजा हों गया । उसके इस घुत्र थे। दे दस पुत्र दृशादे कइलाते थे। उनमें सबसे बढ़ा समुद्ध- विजय और कानेष्ठ धखुदेव था । काल ऋमाजुसार समुद्रविजय शौरी- नयुर का शासक नियुक्त हुआ | समुद्राक्जिय १६ लड़कों का विता था। उन
(६ ७६ )
“उनकी खतियों की जल ऋ्रीद़ा का दृश्य, दूसरे वलय में श्री न्ेमिनाथ भगवान् का कृष्ण की आयुधशाला में जाना, शंख बजाना आर श्री नेमिनाथ एवं श्री कृष्ण की वल
शक में पक अरिष्टने मि नामक पुश्र था, जो कि पीछे से नेमिनाथ नामक २२ दें तीयंकर हुए। चसुदेव के राम तथा कृष्णादि पुत्र थे। जो दोनों चलदेव तथा चाखुदेव हुए । श्रीकृष्ण, अवस्था में नेमिकुमार से करीय बारह यर्ष यद़े थे। वासुदेव होने के कारण भ्रीक्षप्णु, प्रति बासुदेव जराखंध को यमराज का अ्रतिथि बनाकर तीन खंड के स्थामी हुए ज्यौर द्वारिका को राजधानी नियुक्र की। वैराग्य भाव से भूपित होने के नकारण नेमिकुमार ने पाणिप्रहण नहीं किया था और राज्य से भी विमुख नये। पुक दिन मित्रों की प्रेरणा से नेमिकुमार ऋमण फरते करते श्रीकृष्ण की आयुधशाल्ा में गये। धहां पर उन्होंने अपने मित्रों के सनोरंजन के दिये ओीक्षप्णु की फौमुदी नामक गदा उठाई। शारंग घलनुप को चढ़ाया सुदशन चक्र को फिराया और पांचजन्य शंख को बलपूर्वे खूब ताकत से अज्ञाया | शंख ध्वनि सुनकर भ्रीकृप्णु को दिचार हुआ कि-कोई मेरा श्ु “छत्पन्न हुआ है कया ? (क्योंकि उस शंख को बजाने के लिये श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कोई भी व्यक्नि समर्थ नहीं था )। शीघ्न ही श्रीकृष्ण आयुधशाज्वा “में भाकर देफने लगे, तो घहां नेमिकुमार को देखकर उन्हें आश्रय हुआा। अरीकृष्ण के सन से इस भाव का संचार हुआ कि -थी नेमिकुमार बहुत त्वललशाल्ली है । तथापि उनके बल को परीक्षा तो करनी हो चादिये । ड्स भरकार का विचार करके उन्होंने नेमिकुमार को कहा कि --'चल्लो, अपने “झखाड़े से जाफर इन्द युद्ध करके बल की परीक्ता करें ।? श्रीनेमिकुमार “जे उत्तर दवा $- झपने को इस प्रकार भूमि पर आल्ोटन करना उचित
( ८० )
परीक्षा का रश्य दिसलाया है । तीसरे बलय में उग्रसेन राजा, राजीमती, चोरी, पशुओं का निवात्त-स्थान (बाड़ा), श्री नेमिनाथ की बरात, थ्री नेमिनाथ का पाणिग्रहण किये
नहीं है। यदि शक्ति की परीक्षा ही करनी है तो अपने दोनों में से िसी शुक को अपना एक द्वाथ त्ग्वा करना चाहिये और उस हाथ को दूसरे से झुकवाना चारदथये | जिपका हाथ कुक जाय धद हार गया और विसका ट्वाथ न झुफे उसकी विजय है /! इस प्रस्ताव को दोनों ने ही मंजूर फिया छझौर नियमाजुसार यक्ष परीक्षा की। नोमिक्तमार ने श्रीकृष्ण का हाव अहुत ही झालानी से कुका दिया।। परन्तु नोमि कुमार का हाथ श्रीकृष्ण के लटक जामे पर भी दस से मस्त नहीं हो सका। थीकृष्ण, नेमि कुमार के- बल्ल से परिचित हुए चौर उनको “नेमिकुमार मेरे राज्य के स्वामी झासानी से यम जायगे' ऐसी चिंता ड्वोने लगी । श्रीनेम्रिकुमार को तो प्रारस्स से ही ससार पर प्रध्यन्त अरुचि थी। इसो कारण से थे अपने माता-पितादि का भत्यन्त भागमह होने पर भी पाणिगप्रहण नहीं करते मे ।
एक समय राजा समुद्रुप्रिजय ने थीक्ृष्ण को कहा कि-निमिकुमार को पाणिप्रहण के क्षिये मनाया जावे ।' इस कारण से श्रीकृष्ण, शपनी' समस्त ख्ियों और गोमेदुमार को साथ लेकर जल क्ीडा के दिये गये । चह्दा पुर बढ़े जलकुड के अन्द्र नेमि कुमार, भ्रौकृष्ण और उनकी समस्त किया स्रान करने द परस्पर एक दूसरे पर सुगधी जल ओर पुष्पादि ऋंकने लगीं। स्नान करके कुड के बाहर आने के बाद श्रीरृष्ण की समस्त ख्षिया, ग्रेमप्र्वेक नेमिकुमार को उपालभ देकर पाणिप्रहण करने के लिखे प्रेरणा करने लगीं; नेमि कुछ मुस्कराये ; इस एरेमतहास्य पर से उसने ओजाइयों ने जाहिर किया कि-नेमिफुमार विवाद करने को राजी हो गये 8
(छ)
बगैर “ही 'लोट जाना, श्री मेमिनाथ की दीक्षा का जुलूस» दीत्ा, एवं केवल ज्ञानादि की रचना युक्त दृश्य दिसलाया है।
(१७) दसवीं देहरी के द्वार के घाहर बाई ओर दीवार में, व्तेमान चौबीसी के १२० कल्याणक की तिथियों,- चौबीस तीथ्थकरों के बर्ण, दीक्षा तप, फेवल ज्ञान तप तथा
श्रीक्षष्ण ने तत्काल ही उम्रसेन राजा की पुत्री राज़ीमती के साथ लग्न करने का निश्चय किया भौर समीप में ही दिन निकलवाया । दोनों भोर से वियाद्द की तैयारियां होने लगीं । लप्न के दिन श्रीनमिकुमार बरात लेकर श्सुर के भवन फो पहुंचे । परन्तु उन्होंने वहाँ पर देखा कि लप्त अंग के भोजन के निमित्त एक स्थान में हजारों पशु पुकप्नित किये गये हैं । डस दृश्य को देखने से नामिकुमार के हृदय में दया भाव का संचार हुआ | परिणास स्वरूप उन समस्त जीदों को धहां से मुक्त कराकर, अपना रथ पीछा जोरा लिया और विवाह नहीं किया।। घर झाकर माता-पिता को युक्निय्युक्नि से समरूये और नेमिकुमार ने बड़े आडम्बर के साथ जुलूस चूवेंक घर से निकल कर गिरिनार पवेठ पर जाकर दीक्षा ला। अपने ही ड्ाथ से केशों का लुंचन करके शुद्ध चारित्र अंग्रीकार क्िया। थोढ़े समय बाद ही समस्त कर्मों का उय करके केवल क्षान प्रांत किया और पाणियों को उपदेश देने के लिये विचरने लगे। काल क्रम से झायुष्य' पघुशे होने पर श्रीनेमिनाथ भगवान् नश्वर शरीर को छोड़कर मुझ हो गये
+ दिस्तारं के साथ जानने की भभित्वापा रखने घाले, 'ग्रेपां्ट शलाका शुरुष चरिश्र' का आठवां पे अथवा “शीयशोदिज्य सैन अंथमाला, भाव
नगरें' से प्रछाशित *धीनेमिनाप चरित्र सहा काय! झादि अन्य देखें ।' **
( एरे )
लिवोण तप खुदा हुआ है। इस देहरी के दरवाजे के ऊपर दि० सं० १२०१ का, इसके जीयणोंद्धार कराने वाले हेसरथ च दशरथ का खुदवाया हुआ बड़ा लेख है। इस लेख से विमल मंत्री के कुटम्व सम्बन्धी बहुत जानने को मिलता है।
( १८) देहरी न॑० ११ के पहिले गुम्बज् में १४ हाथ चाली देवी की एक मनोदर मूर्ति खुदी है ।
(१६) देहरी नं० १२ वीं के पहिले गुम्मज में भ्री शान्तिनाथ भगवान् के पूत्त भव के सेघरथ राजा के चरित्र से सम्बन्ध रखने वाले एक प्रसज्गञ का एवं पंच- कल्पाणक आदि का दृश्य है | | उसमें सेधरथ राजा का
+ सोलदें सीर्यकर श्रीशान्तिनाथ भगवाद् अपने झन्तिम स्व € शान्तिनाथ ) के पह्चिले के तोसरे मद में मेघरथ नामक अवधि ज्ञानी शाजा थे | पुक समय इशानेन्द ने अपनी समा में मेघरथ राजा की प्रशेघा करते हुए कह्टा कि-“राजा मेघरथ को उसके धरम से चल्रायमान करने केपल्षिये कोई भी समर्य नहीं है” । ख़ुरूप नामक देव से यह प्रशंसा सइत नहीं हुईं। वह सेघरथ की परीद्ा करते के लिये झा रहा था कि मार्गे सें डसने याज पद्वी ओर कबूतर को परस्पर लड़ते देखकर उनमें भ्रधिष्टित हो गया। सेघरथ राजां पौषधंशाह्ा-डपाधय में पौपधन्रत ( एक दिन के लिये साधुत्रत ) धारण करू बैठे थे । इतने द्वी में बद कबूतर, मलुष्य को भाषा में यट्ट बोक्षता टुआ कि--'मेरी रछा करो, सेरा शड्ड मेट्ा पीछा कर रहा है” झाया भर मेघरथ राजा डी योद में बैड गया। मेघरथ
विमल-चसहि, दृश्य-१ ६.
9 3 व कलक, कैजाकि 7
( छहे )
हि डे कबूतर के साथ तराजू में पेठ कर तोल कराने का दृश्य है, तथा साथ ही साथ १४ स्वभादि पंच कल्याणक का भी देहरी मं० ६ के गुम्बज के अलुसार दृश्य खुदा है। उसी गुम्बज के नीचे की चारों तरफ की लाइनों के बीच २ में भगवान् की शाजा ने उत्तर दिया कि-- तू डरना नहीं, ऊ तेरी रचा पक हु रुप कि कि त ुरना नहीं, मे तेरी रपा करने को तपर हूं।” इतने में यद्द घाज पच्ो आया और कट्दा कि-- दे राजन ! यह मेरा >अक्ष्य है, में बहुत तुपात हैं, भूख से मर रद्म हूं, इसाक्षिये इसको मुझे, *दो 7 राजा ने उत्तर दिया--'तुमे चाहिये उतना भन््य साथ पदार्थ देने को 'सस्यार हूँ, तू इसको तो छोड़ दे ।! उसने उत्तर दिया-- में माँसादारी ब्राणी हूँ। इसालिये इसी को खाना चाहता हूँ। फिर भी यदि आप दूसरा ही मॉँस देना चाहते हैं तो ठसी के वजन प्रमाण (जितना ) मनुष्य का सॉप दीजिये।” राजा ने यह वात स्वीकार फरली भोर छुस्त तोलने का , नकॉटा ( तराजू) संगवाया । एक पक्षद्रे में कबूतर को रबखा, दूसरे में मजुष्य का मास रखने का था, परन्तु मनुष्य का माँस, भनुष्य फी हिंसा किये चर नहीं मिल सकेगा, और मनुष्य की हिंसा करना सद्दापाप हट, ऐसा विचार उसपन्न हुआ। राजा जीवदया का पोपर था और झाज तो पीषधग्रत में था, इसलिये ऐसा विचार उत्पन्त होना स्वासाषिझ था। दूसरी और चद कबृतर को बचाने का वचन दे चुका था। इसलिये दुविधा में पढ़ गया कि क्या करना चाहिये। अन्त में उसने अपने शरीर पर के मोह को सर्वेदा इटकर भपने हाथ से हो अपनी पिंदक्षियों-जांघें। का मास काटकर दूसरे पलढ़े में रखने खगा | जैसे जैसे राजा सेघरथ पछके में मात रखता दै, वैपे दी वैसे वह देवाणिष्टत कबूतर अपना वजन बढ़ाने झूगा। इतना इतना मास रखने पर भी सशाजू ने पकड़े बराबर नहीं होते दे । यद्ट देखकर राजा को आये हुआ। सन
(८४ )
एक '२ भूर्चि खुदी हुई है, और इसके आस पास पूरी चारों पंक्षियों' में श्रावक हाथ में पप्पपाला, कलश, फेल, चामर आदि पूजा का सामान लिये सढ़े है।
(२० ) १६ दीं देहरी के पहिले गुम्बन में भी उपयुक्त अनुसार पंच कल्पाणक का भाष है । जिन-प्ताता सोते सोते १४ स्वप्न देखती हे । जन्मामिपेक, दीक्षा का बर- घोड़ा) भगवान् का सोच करना और काउसरग ध्यान में मे राजा ने विचारा कि *' मैंने इसके बचाने के लिये प्रतिशा की है, मुक
को झपता चचन भवश्य पालना चाहिये और छेले भी दो सके, शरण्यागत कब्रूतर को बचाना चाहिये। बस, छेला विचार करके राजा तुरन्त ही अपने शरीर का बालिदान देने के लिये पलढ़े में बेठ गया। इस घटना से अआारे नगर व राज द्रबार में हम्हाकार दागया। राजा जेरा भी चलायमान
नहीं। हुआ घोर शातिपूर्वछ बाजपक्षी का कहने लगा क्रि-- मे
मेरे शरीर के सारे मास को खाकर तू अपनी चुधा का शान्त कर और इल कबूतर को खोढ़ दे 7
खुरूपदेव खूमरू गया कि--यह राजा सचमुच ही इन्द की प्रशंसा के योग्य ही दैं। खुरूप देव ने श्रपता असली रूप धारण्य करके राजा के कटे हुए अंग को अच्छा किया। राजा पर एुष्पश्नष्टि की । एव स्तुति करके शरवर्यान त्द्री ओर च्वल्ला गया ॥ तब मघरथ राजा का लय जयपकार डुभा |
इस कथा को विस्तृत रूप से देखमे की इच्छा रखने वालों को 'प्रिप्॑ि-- शब्ाका पुरुष घरिश्र' के £ दें पये के अतुर्धे सथे को अथवा ध्ान्तिनाथ- अगवाब् का कोई सी चरिश्र देखभः खाद्दिय । « + 'ए फडड्रापर छा
( प४)
जड़े रदने आदि की रचना है. पहिलेवलय में एक समः 'चसरण है, जिसमें भगवान् की एक मूत्ति ह। ५ : « (२० ४०) १६ थीं देहरी के दूसरे गम्बज के नीचे चाली गोल पंक्लि में बीच बीच में भगवान् की पांच सूर्त्तियों . खुदी हैँ । इन भर्तियों के आसपास के थोड़े भाग के सिवाय सारी लाईन में चत्यवंदन करते हुए श्रावक हाथों में कल्षश, फल, पृष्पपाला ओर चामरादि पूजा की सामग्री सथा नाना प्रकार के वार्जित्र लेकर बेठे हैं।
(२० ४ थी ) १५वीं देहरी के पहिल शुम्बज में अंतिम गोल लाईन के नीचे उत्तर और दक्षिण की दोनों सीधी लाईनों के बोच २ में भगवान् की एक २ मूर्त्ति खुदी हुई है। उन मूत्तियों फे आसपास आवक पृष्पमालादि लेकर खड़े हैं। अवशेप भाग में नाटक ओर वार्जित्रादि हैं |
(२१ ) २६ थीं देहरी के पहिले गुम्बज में करी कष्ण-फालिय ध्महि दमन का दृश्य है | बीच फे वलय
| जैन प्रन्थाजुसार कंस यादवऊुल में उत्पन्न हुआ था और मथुरा नगरी के राजा उम्रसेन का पुत्र, चत्तिकावती नगरों के देवक राजा का भतोजा, दवक राजा का पुत्रा दवका का फाक्का का लड़का भाई डाने के कारण श्रोकृष्णु का मामा भार तान खंड भर तत्तत् (् आप ह्वन्न्दु-
स्थान ) के स्वामी राजमूद्द नगर के राजा ज़राखंध प्रति वासुदेव का जमाई - द्ीता था। कल अपने पिता उम्रतेस को कद करके मथुरा का राजा
5
( ८६ )
में नीचे कालिय नामक सर्यकर सपे फ्न फैला कर खड़ा है। क्रीकृष्ण ने उस सपे के कंघे पर बैठ कर उसके सुँद में नाथ डाल कर यमुना नदी में उसका दमन क्रिया। थक
डुभा था। कंस की श्रीकृप्णु रे पत्ता चस्युदेय के साथ बहुत मित्रता थी । इसी कारण से राजा 'वमुर्देव', कंस के भागप्रह से आपेक्तर मथुरा मे ही रहते थे। कस ने अपने काका देवक राजा ही पुत्री देवकी का विदाह बस्तुदेंव से कराया था। इसकी खुशी में कंस ने मथुरा में मद्दोत्सव प्रारंभाकिया। उस समय फंस के भाई झतिमुक्त ुमार, जो कि- खाए द्वोगये थे, कंस के वहाँ गोचरी ( मिछ्ठा ) के किये पधारे | फंस की खऋरी जीवयशा उस समय मदिरा के नशे में थी । उसमे उस मुनि को कदयेना ( आरातना ) की । मुनि यह कह कर चख्र दिये कि--'म्रिस यखुदेय देवकी के विवाइ के आनन्द में य् खुशी सना रही है, उसी का सप्तम गर्भ तेरे पति और पिता छा यथ करेगा ॥” यह सुनते ही जींचयशा- के काम खुल राये, नशा उतर गया। उसने तुरंत ही कंस को इस वात की सूचना दी । कसर ने यह सुनकर अपनी पत्नि से कट्टा-- “साधु का वसन कदापि मिध्या नहीं हो सकता”। सयभीत केस यखुदेद क पास यया घोर देखकी के सात यर्भो की ग्राचना छठी | मुनि दचन से- अज्ञात बसुदेच मे भोलपन से यह यात स्वीकार करली। देवकी ने मी, कँस भपना भाई होने के छारण, उपयुक्र कथन पर बगैर विचारे ही स्वीकृति देदी। पश्माद देयकी को जब कमी भी यर्भ रहता, तय फंस्स दसके- सकान पर अपना चौकी पहरा नियुक्त करता था, और देवकी से उत्पन्न डूई सस्तान को स्वये पत्थर पर पचाढ़ कर मार टाब्ता था। इस प्रकार उसने देवको के छू ज॒त्रो के म्ाय्यों का अपहरण किया । बखुदव अत्यन्त दुलूी रइते थे। सेकिन प्रतिज्ञा पाजक होने के कारय्य, दे अपने दचन का पालक
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विमरछ-चसहि, दश्य-२१५ श्रीकृष्ण-कालिय अहि दमन
( ८७ )
ने से वह दाथ जोड़ फर खड़ा रद्द है। उसके आस स् उसकी साद नागिनें दवाथ जोड़ कर ना उसकी सात नागिनें द्वाथ जोड़ कर खड़ी हैं । बाजू ते हुए उस दुरा को सहन द्रव थे। सातवें गये के जन्म के समय देयकी आप्रद से सखुदेय नवजात शिकष (भीहप्ण) को केकर, रातों रात गोफुल 'जंद' और उसकी सत्र यशोदए के पास पुश्न के सौर पर छोड भाये भौर शोदा की पुश्री, जो उसी समय उत्पन्न हुई थी, उसको लाकर देवकी के स॒ छोड दिया। फँछ से देखा कि-इस गये से सो कम्या उपपन्त हुई है, (्ट सुमे कैसे मारेगी ? घुसा विचार फरके फंशत ने उस कन्या की पुक तरफ ८ नापिका काट फर देवकी को सापिस देदी। गौकुल में आीकुप्णु 'भानन्द से बढ़ रद्दे हैं। तथापि उसकी रक्षा घे लिये घख़ुदेव ने भपने पुप्त राम (बलभव ) को गोकूल में भेजा । चे देएनों भाई यहां पर भानन्द चूवेकत निवास करते हहं। योग्य अवस्था होते ई श्रीकृष्ण ने बलभदर से घ॒लजुर्विद्या भादि समस्त विद्याओं का ज्ञान संपादर किया, इस प्रकार करीय यारह व्षे म्यतीत हुए । इसी अतर में फंस ने किसी नैमित्तिक से पूछा कि--'सुनि के फथनः झुसार देवकी का सातवां गये मेरा यघ करेगा क्या ? ! उसने उत्तर दिर #मुतरि का वचन अवस्य सिद्ध होगा! यह सुनकर फंस ने भैमित्तिक से पूछ मुझे ऐसे चिह्न दिखिलाइए जिससे में अपने घातक को पट्चान सर्क: ।! उस कह्टा-- तुस्दारे उत्तम रत्न सह जातिवंत भरिष्ट बैल को, केशी अश्चव शर्देश फो, भेष ( बकरा ) को. पतद्मोत्तर तथा चपक नामक दो हाथियों ' और चाणर नामक सद्ध को जो सारेगा सथा काक्षिय सपे छा जो दूर करेंगा पद्दी तुमको मारेगा। कर कंस ने परीक्ता करने के लिये यथाकम जेल, घोड़ा, गर्देभ और से / को गोकुछ की झोर छूटे कर दिये। थे मदोन््मत्त होने से गोफुल के गाय
( छक )
हि&॥थ. 00० 20 मक..... पु कफ
के एक कोने में श्रीकृष्ण - अगबान् पाताल लोक मे शप- नाग की शब्या करके उस पर सो रहे हैं। श्री लक्ष्मी देवी अध्॒रों को पीड़ा पहुंचाने खगे । गवालों की फरियाद सुनकर भ्रीकृष्णु ने . उन घारों पशुश्रों को यमद्वार में पहुंचा दियां। स्व समाचार सुनने से फंस को मामृम हुआ कि-मेरा बैरी नंद का घुत्र है, यह जानकर कृष्ण को मारने के लिये केस ने पपन्द रचा । उसने सैन्यादि साममरियां तेयार करके पृक दरबार भरा, जिसका मुण्य दतु मह्युद्ध या । इस दरबार में अ्यनेक राजा श्रौर राजकुमार थाये। धझु देव ने भी थपने समुद्राविजय भादि समस्त झआाताओं तथा धुत्र परिवार को भी इस प्रसंग पर बुलाया था। ग्रोकुल में चलभद्र को इस बात की खबर पढ़ी । उसने इस असंग को शरुक अमृर्य श्वसर जामकर “अपने छूः भाइयों को मारने वाला फंस अऋपला शजु है! इत्यादि सारी बात कृष्ण को कट्टी । यद सुनते ही श्रीकृष्ण अत्यन्त कुद्ध हुए और उसी समय दोनों भाई मधुरों की झर चले। मास में यमुना नदी आवे पर दोनों भाई-श्रीकृष्प और वलभद्ग उस मे स्रान करने के लिये कुदे । (मद्ामारतादि ग्रन्थी में लिखा है कि-थरीकृष्णु अर बलभद्गय अपने मित्रो सहित यमुना के किनारे गेंद दंडा खेलते थे छनकी गेंद नदी में गगेर गई । उसको निः्तलने के लिये श्रीकृष्ण यमुना नदी में गिरे ।) चद्य॑ कालिय नामक से अपनी फ़ण के ऊपर के मणि के अकाश को भ्रीकृप्णु पर डालकर कृष्ण को डराने लया | श्रीकृप्ण, तुरंत छसको पकड़ कर उसकी प्रीठ पर सवार होगये + पश्चात् उसके सुख मे ड्वाय डाला भोर कमलनालन से नाथ डालकर उसको “यमुना! नदी में बल की. भांति खूब फिराया।िसले वद शकिदीत होगया ओर भ्रकरर आक्षाण के सामने दाप जोदकर खज़्य रह गया भोर झास “पास में
( ८८६ ),
पंखा डाल रही है । एक सेवक पैर दाव रहा है। इस रचना के; पास ही श्री कृष्ण और 'चाणूर मन्न का युद्ध दिखाया
उसकी सात नागनियाँ भी हाथ जोढ़ खदी रहकर पतिभिक्ता मांगने रूगीं, इससे कृष्ण ने उसको छोद दिया। यहां से दोनों भाई मथुरा की भोर चले। मथुरा के प्रवेश द्वार पर कंस ने अपने पद्योत्तर और चेपक नामक दोनों द्वाथी तैयार रक्खे थे आर महावततों को आज्ञा दी थी कि--नेंद के दोनों पुत्र आर्वे तो उन पर श्वाथियों को छोड़कर उन दोनों को सार डालना । जब थे दोनों भाई दर- चाजे पर झाये तो मद्गावतों मे श्पने स्वासी की झ्राज्ञा का पौलन किया दोनों हए्यी मस्तक नवां कर दंत शूल्त से उनको सारना चाहते ही थे इके--भीक्ृष्णु और घलभद्नू ने पुक २ हाथी के दंतशूत्र निकाल लिये और सुष्टि प्रद्दार से डन दोनो को यमद्वार में पहुंचा दिये । चहां से ये दोनों भाई मन्न कुश्ती के दरबार में गये। दरवार में
वद्यासन पर बठे हुए किसो राजकुमार को उठाकर उनके आश्नन पर ये दोनों भाई बठ गये | चास्युर और मुष्टिक नामक दो मन्ले ने मन्न कुश्तो के इलेये उन दोनों भाइयों को आहान फकिया। श्रीकृष्ण साणुश के साथ व चलभद्ग मुष्टिक के साथ युद्ध करने लगे | श्रीकृष्ण चोर चलभद्ग ने त्तण- मात्र में ही चारणूर थार मुछ्टिक नामक दोनों मह्लो को खत्यु के अधीन कर दिये ! यद्द देख फेस अत्यन्त क्रोभित हुआ और उसने अपने सेनिक को आज्ञा दी कि--इन दोनों भाइयों को मार डालों। यह सुनकर कृष्ण ने फेस को सेवोधन करके कहा कि--'मेरे छः भाइयों को मारने चाला पाषी ! तेरे दो मन्न रत्नों को झत्यु के शरण किये, तो भी बेशरम तू मुमे सारने की आज्ञा करता है? ले, पापी ! में तुम्के तेरे पाप का प्रायश्रित्त देता हूं, ऐसा कहकर एक छुल्ग मारकर, श्रीकृष्ण ने उसको चोटो से
( ६० )
गया दहै। दूसरी ओर श्रीकृष्ण वासुंदेव व राम बलदेव” और उनके साथी गेंद-दृंडा खेल रहे हैं ।
( २२-२३ ) ३४ वीं देहरी के पहिले गुम्बन कः नौचे पूष्र दिशा की पंक्ति के मध्य में एक काउस्सग्गिया है, और द्वितीय मुम्बज के नीचे की चारों तरफ की पंक्वियों के चीच २ में मगवान् की एक २ मूर्चि है । एवं उसके चारों ओर श्रावक् पूजा की सामग्री लकर खड़े हैं ।
( २४-२५ ) ३४ वीं देहरी के पहिले गुम्बज के नीचे की चारों ओर की कवारों के बीच २ में एक एक काउस्सग्गिया है । उनके आस पास लोग पूज्ञा की सामग्री हाथ में लेकर खड़े हैं और दूसरे भ्ुम्पज में १६ हाथ वाली देवी की सुंदर मूर्ति खुदी हुई है। परूदकर सिद्दासन से धर्सरट कर नोचे गिरा कर मार डाला। फंख भौर जरासंघध के सैनिक श्रीकृप्य से लड़ने को भामादा हुए, से किन समुद्र- विजय ने उन सवको हट दिया। शमुद्गरुविजय बखुदेव भादि ने थीकृष्ण दयसमद्ग को छाती से छगया लिया। सवकी भनुमति से कारायारस्थ राजः उभसेन को निकाज फर सथुरा के राम्य सिंद्यासन पर बैठाया और समुद्र- विजय, चच्चुदेध, यलछदेव, घाछुदेव आदि सव लोग शौरीपुर गये
विशेष विवरण जानने के लिये प्रिपष्टि शलारा पुरुष चरित्र! के पर्य ८ के सगे २ को देखा जाय ।
( ६१ )
( २६-२७ ) देहरी नं० ३८ वीं के पहिले शुम्बज के: नीचे फ्री चारों लाइनों के मध्य २ में मगवान की एक २ मूर्ति है। एक तरफ भगवान् की मूर्चि के दोनों ओर दो- काउस्सगिगये हैं | अत्येक भगवान् के आस पास श्रावक- पूजा की सामग्री लेकर खड़े हैं। इसके दूसरे गुम्बज में” देव-देवियों की सुंदर मूर्तियां खुदी हैं ।
( १८ ) देहरी ने» ३६ वीं के दूसरे गुम्बज में” देवियों की मनोहर मूर्तियां बनी हैं | इन में हँसवाहनी” सरस्वती देवी तथा गजवाहनी ल््सी देवी की मूत्तियाँ: मालूम होती हैं।
( २६ ) देहरी नं० ४० वीं के हितीय गुम्बज के मध्य में लक्ष्मी देवी की मूर्ति है। उसके आसपास दूसरे” देव-देवियों की मूर्तियां हैं । गुम्पज के नीचे चारों तरफ- की कतारों के बीच २ में एक २ काउस्सग्गिया है। प्रत्येक - काउस्सरिगया के आस पास हँस अथवा मयूर पर बैंढे- हुए विद्याघर अथवा देव के हाथ में कलश या फल हैं | थोड़े पर बैठे हुए मनुष्य या देव के हाथ में चामर हैं।
( ३० ) देहरी नं० ४२वीं के दूसरे भुम्बज के नीचे: दोनों तरफ हाथियों के अभिषेक सहित लक्ष्मी देवी की* सुंदर मूर्तियां खुदी हुई हैं ।
( हू )
६ ३१-३२-३३ ) देहरी न॑ं० ४३, ४४ व् ४५वीं के “चदूसरे-२ ग्ुम्बजों में १६ हाथ वाली देवी की सुंदर एक २ मूत्ति खुदी हुई है।. * हे ( ३४ ) देहरी न० ४५ वीं के पहिले गुम्बज के नीचे की चारों पंक्तियों के बीच २ में भगवान् को एक २ मूचि है। पूर्व दिशा की श्रेणी में भगवान् के दोनों ओर एक २ काउस्सग्गिया है और अत्येक भगवान् के दोनों तरफ हँस सथा घोड़े पर बैठे हुए देव या मनुष्य के हाथ में फल अथवा कलश ओर चामर हैं । ( ३५-३६ ) देहरी न॑० ४६ के पहिले मुम्बन के नीच की चारों तरफ की श्रेणियों के बीच २ में भगवान् की - शक २ मूर्ति हैं, एपं उत्तर दिशा की पंक्लि में भगवान् के दोनों तरफ़ काउस्सग्गिये हैं, और प्रत्येक मगवान् के आम पास श्रावक पृष्पमाल हाथ में लकर सड़े हैं । इसी देहरी के दूसरे गुम्बज में श्री कृष्ण मगवान् ने मरसिंह अमव- लार धारण करके हिरण्यकंश्यप का वध किया था, उसका इबहू चित्र आलेणित किया है | * 3 अद्टामारत में लिखा दे छि-- द्विरिण्यकारोएु नामक देश्य से अति
सपस्या करके हद्याजा को शस्तश्र कर वरदान सामा था। ( दित्दु धरम के एन्य प्रम्यों में ऐम्टा भी उद्लेख पाया जाता है [कि--दिरिद्यकारिपु, शिवजों
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प्सद्दि, धतय-३०
पिमल-
छ 3. व ड:करद-
( छैरे )
(३७ ) देहरी नं० ४७ वीं के प्रथम शुम्ब॒ज में ५६- दिगकुमारियों-देवियों के किये हुए भगवान के जन्मामि-- ह च्ज्ड 2 | ० पेक का भाव है। प्रथम वलय में भगवान् की गूर्ते हे । द्वितीय एवं तृत्तीय चलय में देवियों कलश, धृपदान, पंखा,
छा जड ज हे च्ड त॒र्द दर्षणादि सामग्री हाथ में लेकर खड़ी हैं। तृतीय वलय में यह दिखलाया गया है कि-भगवान् की माता को अथवा का सक्त था, इसलिये शिवजी से उसने वरदान प्राप्त किया था ।) उसने यह घरदान मांगा था कि--तुरद्वारे निर्माण किये हुए किसी भी प्राणि से मेरी स्टध्यु न हो | अयोच् देव, दानव, मनुष्य, पशु आदि से मेरी रूत्यु न हो । मकान के दाहर व अंदर न हो । दिन में घरात्त में नहो। एख्नसे व अख से न हो । एथ्दी में न हो आकाश में न हो । प्राण रहित से न हो भाय सहित से न हो (? इत्यादि | इस प्रकार घरदान देने की बद्मयाजी
की इच्छा नहीं थी, परन्तु देत्य के भआभ्रह व तपस्या से चश होकर बह्माजी मे वरदान दिया ॥
दिरण्यकशिपु का प्रह्मद नामक घुत्र विष्ठ का भक्न हुआ। सारे दिन विष्णु के माम की साज्ला जपा करता था । उसके पिता ने शिव) भक्त होने के लिये चहुत समझाया, परन्तु अनेकों प्रयत्न करने पर भी चह न साना। इसलिये द्रिण्यकश्यप उसको खूच सताने लगा । विष्णु भगवान् ने अपने भक्त प्रद्धाद को दुखी देखकर हिरण्यकश्यप को सारने के लिये नरसिंहः अवतार धारण किया। ग्रह्माज़ी के वरदान में किसी प्रदार की स्खलना मे आये; इसलिये घेसा विदिश्न रूप धारण किया, जिसका आधा भाग ततों- मनुष्य का झर मुखादि भाधा शरीर सिंद का था! इस प्रकार का नराखिह अवतार ध्यारण कर 'पिप्छु सगपान मे सन के झदर भी नहीं औरे_
( ६४ )
-अगवान् को सिंहासन पर बैठा कर देवियों मर्देन कर रही “हैं और दूसरी ओर सिंहासन में बैठा कर स्तान कराती “हैं। इस गुम्बज के नीचे चारों ओर की श्रेणियाँ के बीच २
में एक एक काउस्सगिगया है। पूर्व दिशा की पंक्षि में “दोनों ओर दो काउस्सगिगये आपिक हैं। कुल छः काउस्स- 'फैगये हैं और आस पास में कई लोग पुष्पम्ाला लेकर खड़े हैं।
( ३८ ) देहरी नं० ४८ वीं के दूसरे गुम्बज में बीस स्ंड में सुन्दर नक्षशी काम है ! उन खंडों में के एक खंड _ मगवान् की मार्च है। एक खंड में एक आचार्य्य मद्वाराज
पाटे पर पैर रुख कर सिंहासन पर बेडे हैं । उन्होंने अपना एक हाथ, एक शिष्य जो कि पश्चाड़ नमस्कार फर रहा बाहर भी नहीं, अर्थात् दरवाने फो देदलो में; जड़े रद्द कर; ४थवी पर नहीं ओर झाकारा में नहों, भयांत् स्वर एष्दी पर खड़े रद कर झोर दिरएयरूश्यप को अपने दोनों पैरों के दीच में दवा कर; शब्म से नहीं और भस्र से नहीं धुर्दे सजीव से नहीं भौर निर्शाद से नहीं, भ्रधोद भपने नाखूनों के द्वारा गदिन में नहीं और रात में लहीं, अपौव् संघ्या समय हे मार दाका ६
विष्णु भगवाब् जिय समय म राखिद अवतार में के, उस समय दे देव, न्दूग्गव, मजुध्य भौर पशु कोई भी मी थे। भौर रस नरपिंद रूज के ज्वत्पादक ग्रद्माजी भी नहीं पे १ इुप्जिये बे अस्छाश्षित रीते से एद्वेर्य्यकरिदु को मार से | इस्र झदत्या की उत्तम शिरप कल्ा से युश सूचि ुरी हुईं है +
( ६५ )
है, उसके सिर पर रक़्खा है। दो शिष्य दाथ जोड़ कर पास अं खड़े हैं । दूधरे खडों में छदी जुदी तजे की खुदाई है ! गुम्बज के नीचे की एक तरफ की लाइन के मध्य भाग में एक काउस्सर्गिया है ।
( ३६ ) देहरी ने० ४६ के प्रथम शुम्बज में भी उप- सुक्काजसार बीस खंडों में खुदाई है | एक खंड में मगवान् की मूत्ति है। एक खंड में काउस्साग्गिया है। एक खंड में देहरी न॑० ४८ की तरह आवचाय्ये महाराज की मूर्त्ति है । 'एक खंड में भगवान् की मात्ता, भगवान् को गोद में लेकर बेठी है । शेष खेडो में मिन्न २ तजे की खुदाई है।
( ४० ) देहरी ने० ५३ के पहिले गुम्बज के नीचे की गोल लाइन में एक और भगवान् काउस्सग्ग ध्यान में स्थित हैं। उनके आस पास भ्रावक खड़े हैं। दूसरी ओर आचा्ये मद्दाराज बैठे हैं, उनके पास में ठवणी ( स्थापना- चार्य्य ) है और श्रावक दाथ जोड़ कर पास में खड़े हुए हैं !
(४१ ) देहरी ने० १४ के पढहिले गुम्बज के नीचे चाली दाथियों की गोल लाइन के बाद उत्तर दिशा की लाइन के णक भाग में एक काउस्सगिगया है, उसके आस पास
आवक द्वाथ में कलश-पृष्पमाल्ल आदि पूजा सामग्री लेकर
खड़े दें ।
( ६६ )
: ' (४३ -) इस मंदिर के मूल गम्मारे के पीछे ( बाहर की ओर ) दीनों दिशा के प्रत्येक ताकों ( आलों ) में अगवान् की एक एक मूें स्थापित है और प्रत्येक ताक के ऊपर भगवान् की तीन तीन सूत्तियां व छः छः काउस्सग्गिये हैं। तीनों दिशाओं में कुल २७ मूर्तियाँ पत्थर में खुदी छुड्टे हैं । ' , पिमल-चसाहि की -ममाते ( प्रदुक्तिणा ) में देहरियाँ ४२. ऋषपभदेव भगवान् ( मुनिस्युत्॒त स्वामी ) का गम्भारा | और अंबिकादेवी क्री देहरी १-इस श्रकार छल ५४ देहरियां हैं। दो खाली कोठउड़ियां हैं । जिसमें परचुरण सामान रक्खा जाता है । एक कोठड़ी में तलघर बना है | * जो आजकल बिलकुल साली हैं! इसके अतिरिक्त विमल-बसदही और लूश-बसहि में अन्य ३-४ तलघर हैं । परन्तु थे सच आजकल खाली हों, ऐसा मालूम होता है ।
«। ) इस कोठरी में और तलघर की सीढियों पर, बहुत कचरा कूढ़ा चढ़ा भा, इसको साफ कराकर इस ज्ञोग अंदर गये थे। देखने से पुक खड्डे में ददी हुईं धातु की १४ प्रतिमाएं मिल्वी । जिसमे शक सूर्त्ति अंबिका
देवी की थी और शेप सूर्चियाँ मगवान् दी थीं। वे लगभग २०० से ६०० अप की पुरानी सूर्त्तियाँ थीं। कई मूर्तियों पर लेख हैं। इस तज्नर्धर में:
पा के थो | ई:-७आ
संगमरसर की बढ़ी सखेड्धित मूर्तियां के थोड़े टुकड़े पढ़ें हैं ।
( ६७ )
विमल-बसहि में गृढ़ मंडप, नव चौकी) रंग मंडफ आर समस्त देहरियों फे दो दो शुम्बजों फा एक २ मण्डप उंगेनने से सारे सन्दिर में ७९ सण्डप होते हैं और गूढ़ मण्डप, नव चोकी, गूढ़ मण्डप के बाहर की दोनों तरफ की दो चौकियां, रंग मण्डप, श्रत्येक देहरी के दो २ मंडप और दो देहरियों के नये मणडप बगेरा मिलाकर छल ११७ मंडप दोते हैं ।
विमल-घसहि में संगमरमर के कुल १२१ स्थंभ हैं १ उनमें से ३० अत्यन्त रमणीय नकशी वाले और बाकी के
जड़ी नकशी चाले हैं । इस मंदिर फी लम्बाई १४० फीट ओर चौड़ाई ६० फीट है।
(६ धर ) ५ #॥72-#२६#२-:+२:४से: शेड कै
१९४2 ५ विमल-वसहि की हस्तिशाला $ के
...
* ५-5२-४:%:#३-४:९-४7३:४९:४२९:८
«/ यह हस्ति-शाला विमल-बसह्दि मंदिर के मुख्य द्वार के सामने बनी हुई है। विमल मंत्री के बड़े भाई मंत्री नेढ/ उनके पुत्र मेत्री घन, उनके पुत्र मंत्री आनंद और आनंद के पुत्र मंत्री शथ्योपाल' ने प्िमल-बसहि की कतिपय दैदरियों का जीर्णोद्धार करएने के समय स्पकीय कुड॒म्ब के स्मरणाथे से० १२०४ में यद्द दस्ति-शाला बनाई है ।
हस्तिशाला के पश्चिम द्वार में प्रवेश करते ही पिमल- अमहि के मूलनायक भगयान के सम्पुस एक बड़े घोडे पर मंत्री पघिमल शाद बैठे हैं। उनके मस्तक पर मुकट दे । दाहिने हाथ के कटठोरी-रकत्री आदि पूज़ा का सामान है और वां हाय हें घोडे की लगाम है। विमल मंत्री की घोड़े सददित मूर्ति पद्दिले सफेद संगमरमर की बनी थी, किन्तु आजकल तो मांत्र मस्तक का भाग ही असली-संग्रमरमर का है। गले से 200:
«५ ३--पष्रीपाल आदि व ये दखिय इस पुस्तक का पिदका एह
वश्सेश्८।
फी हस्तिशाला, अश्वारूद विभर मग्रोश्वर
री
विमल-चबसहि
( ६ )
नीचे का भाग और घोड़ा नकली मालूम होता है। अर्थात् आय तो किसी ने इस मूर्त्ति को खंडित कर दी हो, बिससे “फिर नई बनवा कर खड़ी की हो; या अन्य किसी हेतु से “उस पर चूने का पलस्तर कर दिया हो, ऐसा मालूम होता है। मसाकृति सुंदर है। घोड़े के पीछे के भाग में एक आदमी, पत्थर का सुदृदद छत्न विसल शाह के मस्तक पर धारण पकेये हुए खड़ा है ।१
डे
इसके पीछे तीन गढ की रचना वाला सुंदर समवसरण है। उसमें चौमुखीजी के तौर पर तीन तरफ सादे परिकर बाली और एक तरफ तीनतीर्थी के परिकर वाली ऐसे कूल चार मूर्तियां हूं। यह समवसरण सं० १२१२ में 'कोरंटगच्छीय नज्नाचाये संतान के ओसवाल धांथु रू मंत्री जे बनवाया. ऐसा उस पर लेस है
एक तरफ कोने में लक्ष्मी देवी की मूर्ति है।
) १“-दन््तकथा है कि-इद्धारक व्यक्ति विमल मत्री का भानेज है | चपरन््तु इस कथन छी पुष्टि करते बाला प्रयाण किस्री प्रन्थ में उपकृब्ध नहीं हुभा है। होरथिजयस रे रास में लिखा है वि--इशप्नधारक स्यक्ि चिमस्त की सतीजा है। इससे अनुमान किपा जाता है सि--यायद यद विमल के उ्येष्ठ आता नेट रा दशरथ नग्मरु प्रतोध हो | «
( १०० )
इस हस्तिशाला के भीतर तीन लाईनों में संगमरमर केः सुंदर कारीगरी युक्र कूल, पालकी और अनेक प्रकार के- आशभूपणों की नकाशी से सशोभित १० हाथी हैं; इन सके पर एक २ सेठ तथा महावत बैठे थे। परन्तु इस समय इन में फे दो दाधियों पर सेठ और महावत दोनों बैठे हैं । शक हाथी पर सेठ अकेला बैठा है। तीन हाथियों पर मात्रा मदहावत ही बेठे हैं। शेप चार हाथी विलकुल खाली हैं । उन हाथियों पर से ७ सेठों ( श्रावंकों ) की और ५ महावतों' की मूचियां नष्ट दो गई हैं। श्रावकों के हाथ में* पूजा फ्री सामग्री है। आवकों के सिर पर श्रकुट। पड़ी अथवा अन्य ऐसा ही कोई आभूषण है ।
प्रत्येक द्वाथी के होदे के पीछे धत्रधर अथवा चामर- अर की दो दो खड़ी मूर्त्तियां थीं, किन्तु थे सब्र संडित हो गई हैं । उनके पाद चिह्न कहीं कहीं रह गये हैं ।
मात्र एक ठक््कुर जगदेव के हाथी पर पालकी (होदा)' नहीं थी और उसके पीछे उपर्युक्त दो मूर्त्तियां भी नहीं
३--द्वायियों पर मैडे हुए आव्कों को सृक्तियँ छार चाट भुमाशों
साकी है 3 मेरी कक्पनानुसार चार चार भुजाएँ, ड्वाय में मिन्न म्रित् पूजा बड़े सामग्री दिखलाने के इतु से बनदाई गई होंगो। दूसरा कोई कारण-
“जईयी दोगा । क््योंकि--दे मूर्तियां मनुष्यों झी अर्थात् विमलशाद्ट केः झुदुमियों को हो हैं
५६०१)
जीं। सिफे भूल पर ही 5० जगदेव की मूर्ति बैठाई गई थी ( इसका कारण यह मालूम होता है कि-वे महा अंत्री नहीं थे )। इस हाथी की सेंड के नीचे घुड़ सवार 'की एक खंडित छोटी मूर्ति खुदी हुई है। इन हाथियों की रचना इस ऋम से है।-- हस्तिशाला में प्रवेश करते दाहिनी तरफ के क्रम से ध्यहिले तीन हाथी, बांइ ओर के क्रम से तीन हाथी और सातवां समबसरण के पीछे का पहिला एक हाथी, इन सात हाथियों को मंत्री एथ्वीपाल ने वि० सं० १२०४ में बनवाया था। आठवां दाहिने हाथ की तरफ का अन्तिम, नववां समवसरण के पीछे का आखिरी और दसवां चाम हाथ की तरफ का अंतिम) ये तीन हाथी मंत्री चथ्वीपाल के पुत्र मंत्री घनपाल ने बि० से० १२३७ कं बनवा कर स्थापित किये । ये हाथी निम्न लिखित नामों से घनवाये गये हेंः-
झ्ाथी का क्रम
किसके लिये बना
संवत् परिचय पड महभंत्रो नीना ््ा (विमल मंत्रों के कुछ दृद्ध ) करा | » लहर (यु शकीना का घर)
.शि/26 ४८९०७
( १०२ )
डाथी का ्ं बिग मी कम | फिसके लिये वना | संवत्
परिचय
महामंत्री चीर
चौथा | +, नेढ +) पांच »% घल | + छठा | , आनंद।| + सातवा| ,, एथ्ची-
पाल क आंठवा| ( पउंतार ? ) ।
जगदेव | १२३ नववां |महामत्री धन- || ]
पाल
दसवा | ..... «««
१२०४ ।( लहर का वंशज )
(चीर का पुत्र और विमल का बड़ा माई )
(नेंढ का पुन्न )
(घबल का पुत्र )
( आनंद का उत्र )
(म्नी पथ्वीपांस का बडा पत्र ओर घनपाल का बड़ा माई ) ( एथ्वीपाल का छोट पुत्र भौर जगदेव का छोटा भाई )
इस हाथी की लेख बाली पट्टी खंडित हो जाने से लेख नष्ट हो गया हे। परन्तु यह हाथी भी: सें० १२३७ में मंनी घनपाल ने उसके छोटे माई, पुत्र अथवा अन्य किसी निकट के सम्बन्धी, के नाम से बनवाया होगा।
हद १5 है]
विमरू--धसहदि की हस्तिशाला में, गजारूढ़ महामंत्री नेढ़,
0, ३. एच्ल5, 3]०ल०
( रेण्दे )
/* (१) हस्तिशाला की पूषे दिशा के तरफ की खिड़की के बाहर की चौकी के दो स्थंभों पर भगवान् क्री १६ सू्तियां बनी हुई हैं ( एक २ स्थंभ में आठ २ भूत्तियां हैं )। इन स्थेभों के ऊपर के पत्थर के तोरण में रास्ते की तरफ (बाहरी तरफ ) भगवान् की ७६ मूर्तियां बनी हुई हैं। इन ७६ के साथ दोनों स्थेभों की १६ मूर्तियां मिलाने पर कुल ६२ सूत्तियां हुई। इनमें की ७२ मूर्तियां अतीत उपनागत व वत्तेमान चौबीसी की ओर अवशिष्ट बीस मूर्तियां, बीस विहरमान भगवान की होंगी, ऐसा ग्रतीत्त होता है । इसी तोरण में अंदर के भाग में ( दस्ति-शाला की तरफ) भगवान् की ७० मूत्तियां खुदी हैं । किन्तु असल में ७२ होंगी। संभव है दो मूत्तियां दीवाल में दब गई हों। अथोत् यह तीन चौबीसी हैं, ऐसा समझना चाहिये ।
( २ ) उपयुक्त चौकी के छल्ले के ऊपर के पत्थर चाले तोरण में दोनों तरफ भगवान् की मूत्तियाँ व काउ- स्सग्गिये मिलकर एक चौबीसी बनी दे ।
( ३) सारी हस्तिशाला के बाहर के चारों तरफ के छल्जे के ऊपर की पके में, भगवान् की मूर्ति व काउ- इसगिगिये मिला कर एक चौवीसी बनी है । ; | 33228 अप की भर हस्तिशात्ा
» उसका निर्माय काल
( १०४ )
और निर्माता के विषय में कुछ मी सामग्री उपलब्ध नहीं हुई। यह सभा मंडप हस्तिशाला के साय तो नहीं बना कै क्योंकि-होर सौभारय महाकाब्य से ज्ञात होता है कि- पबे. से. १६३६ में जगत्पूज्य श्रीमान् हो रविजय सरीस्वर जी यहां पर यात्रा करने को पघारे, उस समय विमल चसहि के मुख्य द्वार में प्रवेश करते हुए जड्गले वाली सीटी थी। परन्तु उपर्युक्त सभा मंडप नहीं था। उक्त महाकाव्य में मंदिर के अन्य विभागों के वर्णन के साथ ही साथ उपर्युक्त सीढ़ी का भी घर्णन है फिन्तु इस सभा मंडप का बेन नहीं है । इससे यद्द मालूम होता है कि--इस समा मंडप
की रचना वि. सं. १६३६ के बाद हुई है।
हस्तिशाला के बादर के उपर्युक् समामंडप में सुरमी
4 सुरदी )-अछड़े सहित गायों के चित्र च शिलालेख चाले
सीन पत्थर विद्यमान हैं| उनमें से दो पत्थरों पर ति. से.
१३७२ और एक के ऊपर १३७३१ का लेख है। ये तीनों लेख सिरोही के वर्चमान महाराव के पूर्वन चाह्मण
मदहाराव छ्लुमाजी (लूंढाजी ) के हैं। इनमें 'विमल-वसद्दी
च् लूण-वसही मंदिरों, उनके पूजारियों व यात्रालुओं से
प्रकेसी भी प्रकार का टेक्स-कर न लिया जाय इस आशय
के फर्मान लिखे हैं।
( १०५ )
इसी रंग (सभा) मंडप के एक स्थ॑भ के पीछे पत्थर के *णक छोटे स्थंभ में इस प्रकार का दृश्य बना है ;-- एक तरफ एक पुरुष घोड़े पर बैठा है; एक छत्रधर उस 'यर छत्र धर रहा है। इस दृश्य के दूसरी तरफ वही मलुष्य “हाथ जोड़ कर खड़ा है, इन पर छत्न रखकर एक छत्नधर खड़ा 'है। पास में स्री तथा पुत्र खड़े हैं। उसके नीचे संवत् राहित सेख खुदा है, जिसमें बारहवीं शतादि के सुप्रसिद्ध राज्यमान्य आवक श्रीपाल कांबे के भाई शोझित का बरणन है। इस स्थंभ के पास ही दीवाल के नजदीक संगमरमर “के एक सूर्तिपइ्ट * में भगवान् के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हुए श्रावक-थाविका की दो मूर्चियाँ घनी हैं। राज्य- नमन्य सुप्रसिद्ध महामंत्री कवडि मामक श्रावक ने ये दोनों “सूत्तियाँ अपने माता-पिता 5० आमपसा तथा 5० सीता देवी की बनवा कर आचाये श्री धमपोपस्तरिजी के पास उसकी प्रतिष्ठा कराई है। उसके नीचे वि० सं० ११२६ अच्य तृतीया का खेख है। $ भ्रष्ट मूर्त्तिपद्द, खणिइत पत्थरों के गोदाम में पढ़ा था। हमारे सूचना पर ध्यान देकर यहां के कार्ये-पाहकों ने इस सूर्तिपष्ट को इस जगई स्थापित कराया । माहुम होता है कि-यह सूर्त्तिपद् कुछ वर
थद्दिसे दिमज-दसहि के श्री ऋषमदेव (श्री मुनिसु्रत) स्वामि के गम्मारें “मे था। इसकी मरम्मत होनी चाहिये ।
हि (् जै्ई ) 5/0/£१/७/४२/७॥४४२/२७४८२/७/४४२/८४
ओऔ महावीर स्वामी का मन्दिर हैं जज के छह छ/ 3 0 हर
विमलबसहि के बाहर हस्तिशाला के पास श्री महाबीर स्वामि का मंदिर हैं। यह मंदिर और हस्तिशाला के सिकट का बड़ा सभा मंडप किसने और कब बनवाया यह ज्ञात नहीं हुआ । परन्तु इन दोनों की दीवारों पर वि सं० १८२१ में यहाँ के मंदिरों में काम करने बाले कारीगरों के नाम, लास रंग से लिखे डुये हैं। इस से ज्ञात होता है कि-ये दोनों स्थान सं० १८२१ से पहिले और सं० १६३६ के बाद बने हैं। क्योंकि-भीहीर सौभाग्य सह काव्य में इन दोनों का वर्णन नहीं है। श्री महाघीर स्वामि के मंदिर में मूलनायकजी सहित १० जिन बिंदा हैं। ग्रह मंदिर ओटा और सादा है ।
तक
( शर्०७ )
हु भर हे ् कृणकरसाहि डा # हे
४
मंत्री वस्तुपाल-तेजपाल के पूवैज--शुजर हालत की राजधानी अणहिलपुर पाठण में बारहवीं शताब्दि में प्रा्याद ( पोरवाल ) ज्ञाति के आभूषण समान ब्वयडडप नामक एक गृहस्थ, जिसकी पत्नी का नास घांपलदेवी था, रहता था। वह गुजरात के चौलुक्य ६ सोलंकी ) राजा का मंत्री था। राज्यकाये में अत्यन्त चतुर होने के साथ ही प्रजावत्सल एवं धमं काये में भी तत्पर था। उसका चेंडप्रसाद नामक पुत्र था; जो अपने पिता का अनुगामी और सोलंकी राजा का मंत्री था। उसकी स्त्री का नाम चांपलदेबी ( जयश्री ) थाग इसके दो लड़के थे, जिसमें बड़े का नाम शूर (घर) और छोटे का नाम सोम ( सोमसिंह ) था। दोनों बुद्धिशाली, शूर-- चीर ओर धर्मात्मा ये। दूसरा जैनधर्म में अत्यन्त इढ़ था और गुजरात के सोलेकी महाराजा सिद्धराज जयसिंह का मंत्री या। इसने यावजीवन देवों में तीथकरदेव, गुरुओं-
( १०८ )
में नामेन्द्र गच्छ के भ्रीमान् ह रिभद्र सूरि तया स्वामीस्वरूप “महाराजा सिद्धराज को स्वीकार किया था। इसकी घर्मपत्ती का नाम सीतादेवो था, जो महासती सीता के जैसी “पतिवता और धर्मकर्म में अत्यन्त विश्वल थी। सोमसिंह - का आसराज ( अश्वराज ) नामक पुत्र या; जो बुद्धि शाली, उदार और दाता था। परम माठ्मक्क ही नहीं था। - बल्कि जैनघर्म का कट्टर अनुयायी भी था। मात्भक्कि को उसने अपना चसीवन ध्येय चना लिया थां। उसने महा महोत्सवपूवंक सात वार अथवा सात तीर्थों की यात्रा की थी। उसकी कुमारदेवी नामकी पतित्रता मायी थी। यह भी अपने पति के समान ही उदार व जैनधर्माठुयायिनी भी | कुछ समय के बाद ध्यासराज किसी हेतु से अपने -कुटुम्बी जन और राजा आदि कौ अनुमाति लेकर अणय- छिलपुर पाठन के समीपवर्ता झुंहालक नामक गांव में अपने पुत्र कसत्र के साथ सुखपूर्वक रह कर व्यापारादि कार्य करने लगा। वहां प्यासराज फो कूमारदेवो की कुछि से लूणिग, मलदेव, चह्तुपाल और तेजपाल मामक चार पुत्र तथा जाल्ह,-माऊ, साऊ, घनदेवी, सोडया-
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लूण घसददि की हस्तिशाला मे, महा मन््त्री वस्तुपाल-तेजपाल के माता पिता
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( १०६ )
सातों बहिनें, स्थृलि भद्र स्वामी की सात बहिनों की तरह: बुद्धिशालिनी और घमे कार्य में रत ऐसी आविकाएँ थीं ।
मंत्री लुणिग राज्य कार्य पड़, शूरवीर व तेजस्वी युवक या। किन्तु आयुष्य कम होने के कारण युवावस्था के” आरम्भ में ही वह काल कबालित हो गया। उसकी पत्नी का नाम लूणादेवी था। मंत्री मललदेव भी राज्य कार्य में निपुण, महाजन शिरोमणि और धार्मिक कार्यों में तत्पर " रहने वाले लोगों में मुख्य था। उसके लीलादेवी और प्रतापदेयो नामक दो घमपत्नियाँ थी। मछदेव लीला देवी का पूर्ण सिंह नामक पुत्र था | इसकी पहिली भाया का नाम अल्हणादेवी था। पर्णसिह-अल्हणादेवी के पुत्र का नाम पेथड़ था। पेथड़ इस मन्दिर की प्रतिष्ठा के समय विद्यमान था। पूर्णसिह की दूसरी स्लो का नाम महणदेवी या। पूणेसिह के दो बहिने थीं, सहजलदे ओर सदमलदे; और चलाखंदे नामकी एक पुत्री भी थी।«
महामात्य श्री वस्तुपाल-तेजपाल---महामात्य चस्तुपाल-तेजपाल; शूरवीरता, घार्मेक काये पराययता,. राम्यकाये दचता, प्रजावत्सलता, सब घ्मे पर समान रष्टिता, बुद्धिमचा, विद्वरा और उदारत आदि अपने सुर्यो-
६ ११० )
“से आवाल-इद्ध में असिद्धं हैं। अत उनके विषय में खेवेचन करना, सिर्फ़ पिष्पेषय ही करना है इसलिये उनके गशुर्णों का वर्णन न करके, मात्र उनके कुडुंबादि का प्रिचय
- संक्षप में कराया घाता है।
मंत्री वस्तुपाल राज्य कार्य में हमेशा तत्पर रहने पर भी अपूर्व विद्वान थे। उनके समकालीन कवि उनका परिचय * सरस्वती देवी के धर्मपुत्र” इस अकार कराते हैं! क्योंकि-उनके घर में सरस्वती व लद्मी दोनों का नियास था। ऐसा अन्य स्थानों में बहुत ही कम दिखाई देता है ।
मंत्री चस्तुपाल के ललितादेवी और वेजलदेंबी नाम की दो धर्मपत्नियों थीं। ललितादेवी गुण भएडार और बुद्धिमती होगी, ऐसा मालूम होता है। क्योंक्रि-मंत्री घस्तुपाल, उसका बहुत आदर-सम्मान करते थे और घर के खास खास कार्मो में उसकी सलाह लिया करते थे । ललितादेवी की क्क्ति से उत्पल्त जयस्तसिंह ( जैद्च- सिंह ) नामक चस्तुपाल का पुत्र था। जो खर्यपुत्र जयन्त से किसी प्रकार कंम न था। चंद मी अपने पित के साथ
ध स्वतंत्र रीत्या राज्य कार्य में दिलचस्पी लियों करता था इसके जपततवदेवी, जम्मणरवी ओर रूपदियों नामक
तीन सियां भा 4 5५३ «3.73 इक वि | ४35
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है. - के 50७ 75%) लूण यदि की दस्तिशाला में, महा मसन््त्रा वस्तुपाल और उनकी दोनों ख्धिया
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चुश-घखद्दि भद्रि के निर्माता
पैजपाल और उनझी पत्नी अजुफ्म देवों 8 | जत्नथ 4पणकत
(१११ )
महामात्य तेजपाल की दो पत्रियाँ--अलुपमदेवी और खुहडादेवी--थीं। अशुपमदेवी की कुल्िस मंदा अतापी। बुद्धिशाली, श्रबीर और उदार दिल लूण्सिंह ( लावण्यसिंह ) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ | यह राज्य काये में भी निपुण था । पिता के साथ व स्वर्य अकेला मी युद्ध, संधि, विग्नदादि कार्यो में भाग लेता था। इसकी रघणादेवी और लखमादेबी नामक दो स्लिया व गठर- देवी नामक एक पुत्री थी। (लेजपाल के) खुहडादेवी की कूल से सुहडसिह नामक एक दुमरा पुत्र हुआ था । उसके सुह्ड़ादेवी और सुलखगणादेवी ये दो ख्त्रियाँ थीं । मन्त्री लेजपाल को बउलदे नामक एक पुत्री भी थी | ,
मंत्री वस्तुपाल-तेजपाल अपने पिताकी विद्यमानता में अपनी जन्मभूमि सुंहालक में ही रहे, परन्तु पिताजी का स्वगेबास होने के बाद दिल नहीं लगने से, छुजराल के संडलि (मांडल) गांव में सकुहुम्ध रहने 'लगे। कालुक ऋमानुत्तार उनकी भाता भी पंचत्व को भ्राप्त हुई। मात वियोग का शोक दोनों भाईयों के लिये असाधारण थां। “उस समय। पस्तुपालं-तेजपाल के माहपंत के गुर मलधार नाच्छीय श्री नरचन्द्रसरीश्वर. विचरेते पिच॑रते” मंडल
आएंदाें पथ । उन्होंने उपदेश डांस कम सहंप संपद्धी
( हर)
कर दोनों भाईयों का शोक दूर कराया और तीर्थयात्रादि: अमे कार्ये में तत्पर रहने के लिये ग्रेरणा की |
नागेन्द्र गच्छीय श्री आझ्यानन्द्सरि-अमरस्रि के प्रइघर भ्रीमान् हरिभद्वद्तूरि के शिष्य श्री विजयसे नस रि,- जो वस्तुपात-तेजपाल के पिठपक्ष के गुरु थे, उनकेः उपदेश से उन दोनों भाईयों ने शब्ल॑ंजय तथा ग्रिरिनार सी का ठाठ बाठ से बड़ा भारी संघ निकाला और संघपति” होकर दोनों तीर्थों की शुद्ध भाव पूर्वक यात्रा की ।
चोलुक्य ( सोलंकी ) राजा---छजरात की राजधानी पझणदिलपुर पाठन के सिंहासन के श्रधिपाति” सोलंकी राजाओं में के कुमारपाल मद्दाराज तक के कतिपयः नाम विमलवसद्दि के प्रकरण में आगये हैं। महाराज कुमार- पाल के बांद उनका पृत्र अजयपाक्ष गद्दी पर आरुद हुआ | ' ध्यवयपाल की गद्दी पर सूलराज ( द्वितीय ) भोर सूलराज को गद्दी पर भामदेव (द्वितीय) गुजरात का महाराजा: डुआ। उस समय गुर्जर राष्ट्रान्तर्गत घघलकपुर ( घोलका 9 में मद्ामंडलेश्वर सोलंकी ध्य्योराज का पृत्र लवणप्रसाद राजा था और उसका पुत्र चोर धचल युवराज था। येर गुजरात के महाराजा के झख्य सामंत थे। मशराजाः
६ ११३ )
ओभीमदछेय उन पर बहुत प्रसन्न था। इस कारंण से उसने अपनी राज्य-सीमा को बढ़ाने का व संभाल रफने का कार्य लवशप्रसाद को सौंपा और वीरधवल को अपना युवराज बनाया | वीरघवलछ की, कुशल मन्त्री के लिये याचना होने पर भीमदेव ने वस्तुपाल और तेजपाल को घुलाया और उन दोनों को महा-सन्त्री बनाकर, दीर- घबल के साथ रहते हुए कार्य करने की सचना दी। मन्त्री चस्तुपाल को घोलका और खंभात का अधिकार दिया गया और मन््त्री लेजपाल को संपूर्ण राज्य के महा-सन््ज्री पद पर निवोचन किया गया। युवराज वीरधवल व् मंत्री वस्तुपाल-तेजपाल ने शुजरात की राज्य-सत्ता को खूब विस्तृत बनाया। आस पास के मातहत राजा, जो खतंत्र होगये थे, अथवा स्वतंत्र होना चाहते थे, उन सब पर विजय प्राप्त करके, उनको गुजैराधि- प्रति के आधीन किये। इसके उपरान्त आस पास के देशों पर सी विजय घ्वजा फहराकर गुजरात की राज्य-सत्ता मेँ बुद्धि की। महामंत्री चस्तुपाल-तेजपाल ने कई समय लड़ाईयां लड़ी थीं। कभी बुद्धिबल से तो कमी लड़ाई से, इस प्रकार उन्होंने शब्युओं पर विजय ग्राप्त की। इसने बड़े
शरबीर ओर सत्ताधीश दोने पर भी उनको किसी पर् प्प
( हुए)
अन्याय करने कौ पृद्धि कभी भी नहीं छकी। हमेशा राज्य के ग्रति बफादारी व प्रजा पर वात्सल्य भाव रखते थे । 'विकट असंगों में भी उन्होंने धरे और न्याय को अपने से दूर नहीं किया। उन्होंने अपने व अपने सम्बंधियों के कल्याण के लिये तथा शजाहित के लिये सारे देश में जगह जगह पर झनेक जैन मंदिर, उपाभ्रय, धर्मशालाएँ, दानशालाएँ, हिन्दू-मन्दिर, मसनिदें, बावड़ियें। छू, वालाब, घाठ, पल और ऐसे ऐसे अनेक घर्म व छोकोप- योगी स्थान नये बनयाये। तथा ऐसे स्थान जो पुराने होगये थे, उनका जीणोडद्धार कराया । उन्होंने धर्मकाये में ऋरोड़ों रुपये व्यय किये, जिनकी संख्या सुनते ढी इस समय के लोगों को बढ घाव माननी कठिन होजाती है । उनके किये हुए धर्म कार्यों का कुछ चर्णन इसके दूसरे भाग में दिया जायगा ।
आबू के परमार राजा---शाजपएतों की सान्यता- सुसार आयू पर तपस्या करने बाले वशिष्ठ ऋषि के दोम के अग्नि-कुण्ड में से उत्पन्न हुए परमार नामक पुरुष के वंश में धूमराज नामक पढ़िला राजा हुआ । उसके वंश में घेंबूक नामक राजा हुआ. जिसका नामोल्लेप विमलवसदि के वर्णेन में झुका दे। आए के इन परमार राजाओं की
( १३१५ )
राजघांनी आयू की तलेटी (तलइटी ) के निकट चंद्रावत्ती नगरी में थी। ये लोग शुजरात के महाराजा के महामंडलेशर (मुख्य सामंत राजा) थे । धंघूक के पंश में भ्रुवभटादि राजा हुए | पश्चात् उसके वंश में रासदेव नामक राजा हुआ। इसके पीछे इसका यशो घवल त्तामका शूरवीर पुत्र राजा हुआ+ जिसने चौलुक्य मद्दाराजा कुप्तारपाल के शब्रु सालया के शजा यट्ञाल को युद्ध में मार डाला था। यशोघवल के बाद उसका पुत्र धारावर्ष राजा हुआ। यह भी अत्यन्त पराक्रमी था। इसने फॉकण देश के राजा को लड़ाई में मार डाला था । घाराव् का प्रह्मदन नामक छोटा भाई था। यह भी महा पराक्रमी, शाखवेत्तर एवं कवि था। “पालणपुर” नामक नगर का यह स्थापक था । मेवाड़ नरेश सार्मतसिंह के साथ युद्ध में त्षीणबल होने वाले शुजरात के भद्दाराजा ध्मजपपाल के सेन्य की इसने रक्षा की थी। धारावष के चाद उसका पूत्र सोमसिंह राजा हुआ। इसने पिता से शस्त्र विद्या, ओर काका से शास्त्र विद्या अहण की थी। उसका पुत्र कृृष्णराज़ (कान्हड़ ) हुआ। घह महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल के समय में युवराज था।
लूए-वसहि---महामात्य चस्तुपाल-तेजपाव ने इस एथ्वी पर जो अनेक तीथ्थस्थान व धर्मस्थान बनवाये ये;
( शह६ )
उन सत्रमें आध्व पर्वतस्प यह लुण वघ्तहि नामक जैन मन्दिर विशेष उल्लेखनीय है। मंत्री वस्तुपाल के लघु भाई लेक्षपाल ने अपनी घर्मपत्ती अलुपमदेवी व उसकी कुपि से उत्पन्न हुए पुत्र लावय्यसिंह के कल्याण के लिये," शुजरात के सोलंकी महाराजा भं।मदव (द्वितीय) के महा- मंडलेखर झ्मान् के परमार राजा सोमसिंह की अनुमति स्तेकर आद्ू पर्वतस्थ देलवाड़ा गांव में बिमल बसही मंदिर के पास ही उसीके समान; उत्तम कारीगरी-नकशी- बाले संगमरमर का; मूल गंभारा, गृढ़ मंडप, नव चौकियाँ, रंग मंठप, बलानक (द्वार मंडप-द्रवाजे के ऊपर का मंडप )| खचक (ताक-आाले), जगति (भमती) की देहरियों तथा हस्तिशालादि से अत्यन्त सशोभित श्री नेमिनाथ मगयात् का। भीलूएसिंह (लाययपसिह)-वसहि नामक भव्य अंदिर करोड़ों रुपये खचे करके तैयार कराया। इत्त मंन्दिरि में श्री नेमिनाथ भगवान् की कसौटी के पत्थर की अत्यन्द रमणीय व बड़ी सूर्त्त बनवा कर मूलनायकरजी फे तौर पर पिरावमान की। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा, भरी नागेन्द्र गच्छ के अहेन्द्रचरि के शिष्य शान्तिछ्तरि, उनके शिप्य प्मानंद्ू- साररि-शझमर रि, उनके शिष्य हरिभद्र सूरि, उनके शिष्य ओऔ विजयस्ेन सूरि द्वारा भारी आाइंवर और महोत्सव पूर्वक
लुण-पर्सादि का अति घएव
की के 28
(११७ )
बे, सं, १२८७ के चैत्र बदि ३ (गुजराती फागुन बदि ३) (विवार फे दिन कराई इस मंदिर के गृढ गेडप के मुख्य द्वार के बाहर नव चौकियों में दरवाजे के दोनों तरफ बढ़िया नकशीयाले दो तास (आलि) हैं, (जिनकी लोग देराणी-- जेठानी के ताख कहते हैं )। ये दोनों आले मंत्री तेजपाल ने अपनी दूसरी स्री छुदडादेवी के स्मरणाथे तैयार कराये हैं। में, तेअपाल मे ममती की फई एक देह्रियों अपने आहयों, छुजाइपों, बहिनों, अपने व 'माहयों के पुत्र, पुन्न-चधुओं ओर पुत्रियों आदि समस्त कुडुंच के ऋल्पाणाथ ख्नवाई हैं। कुछ देहरियें। उनके श्रसुर पत्र के घ अन्य परिचित लोगें। ने बनवाई हैं। इन सब देहरियों की अतिष्ठा वि, से. १४८७ से १२६३ तक में और उपयुक्त दोनों त्ताखो की प्रतिष्ठा वि. से. १९६७ में हुईं थी। इस मंदिर का नकशी काम भी विमलवसही जैसा ही है। विभल-बसद्दी ओर लूश-बसही मंदिरों की दीचारें, डार। बारसाख, स्तंभ, मंडप, तोरण ओर छत के गुम्बजादि में न मात्र फूल, भाड़, बेल, बूंटा, हंडियों और कुमर आदि भिन्न भिन्न प्रकार की विचित्र वस्तुओं की खुदाई ही की है; अल्कि इसके उपरान्त हाथी, घोड़े ऊँट, व्याप, सिंह, मत्स्य, बची, मतुष्य और देव-देविमों की माना प्रकार की मूर्चियों फे
( शृश्द )
साथ दी साथ, मनुष्य जीवन के जुदे जदे अनेक प्रसंग, जैसे कि-राज द्रवार, सवारी, वरघोड़ा, वरात, विंबाह प्रतग में चोरी बगैरह, नाटक, संगीत, रणसंग्राम, पथ्च चराना; सप्रद्यात्रा, पशुपालों ( अद्दीरों ) का ग्रह-जीवन, साधु और श्रावर्कों की अनेक प्रसंगों की घार्मिक क्रियाएँ, व तीयेकरादि मद्दा पुरुषों के जीवन के अनेक ग्रसंगों की भी इतनी मनोहर खुदाई की हैं कि-यादि उन सब अंगों पर वत्तम रीति से झष्टिपात किया ज्ञाय तो मंदिर को छोड़ कर