रामाननद-सम्प्रदाय तथा हिन्दी-साहित्य पर उसका प्रभाव

( एक गपोपणएयक अध्ययन )

आगरा विश्वविद्याज्यय की पीएच० डी० उपाधि के लिए स्वीकृत प्रबन्ध

डॉ० बद्रीनारायण श्रीवास्तव एम० ए०, पीएच० डी०, यू० पी० एस०, सहायक प्राध्यापक, हिन्दी-विभाग, काशी नरेश गवनमेन्ट कॉलेज, ज्ञानपुर

हिन्दी परिषद्‌

ग्रयाग विश्वविधालय

प्रकाशक-- हिन्दी परिषद्‌ विश्वविद्यालय .. प्रयाग

प्रथम संस्करण, १६५७ ई०

मूल्य “८)

मुद्रक--- आज़ाद प्रेस, प्रयाग

ऋषितुल्य स्वर्गीय पिताजी श्रीमान्‌ महाबीर प्रसाद श्रीवास्तव तथा तपरत्थाग-प्रतिमा श्रद्धेया माताजी श्रीमती रामदुलारी देवी को सादर समर्पित

परिचय

.. प्रस्तुत अन्थ लेखक के डी० फिल० थीसिस का परिवद्धित और संशोधित रूप है। आगरा विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने इस कार्य का निरीक्षण मेरे सुपुद किया और मुझे भी अ्रपने पुराने, प्रिय और दोनहार विद्यार्थी को खोज के काय में दीक्षित करने में विशेष प्रसन्नता हुईं | श्री श्रीवास्तव का ध्येय प्रारम्म से ही केव्रल डिगरी प्राप्त करना नहीं था, बल्क प्रस्तुत विषय का सर्वागीण अध्ययन करना था। संयोग से अयोध्या आरा जाने के कारण आपको अपने काय को अ्रग्नसर करने में विशेष सहायता प्राप्त हुई

. रामानन्द सम्प्रदाय का यह एक प्रकार से प्रथम विस्तृत और वैज्ञानिक अध्ययन है जिसे हिन्दी, संस्कृत तथी भारतीय इतिहास के विद्यार्थी समान रूप से उपयोगी पाव॑गे। रामानन्द स्वामी की जीवनी, रचनाओं, सम्प्रदाय के इतिहास तथा दर्शन, भक्ति श्रौर कर्मकांड के विवेचनों में डॉ० श्रीवास्तव ने प्रचुर मौलिक सामग्री दी है तथा अनेक संदिग्ध स्थलों पर नया प्रकाश डाला है। थीसिस के इस पूर्वार््ू भाग के अ्रंधिक विस्तृत हो जाने के कारण मैंने उत्तराद्ध भाग, श्रथांत्‌ हिन्दी साहित्य पर रामानन्द सम्प्रदाय के प्रभाव वाले अंश का संक्षित्त विवेचन करने की श्री श्रीवास्तव को सलाइ दी। तो भी थीसिस का आकार ५०० पृष्ठों से श्रधिक हो गया।

श्री बदरी नारायण श्रोवास्‍्तव की इस महत्व पूर्ण कृति को हिन्दी के विद्यार्थियों और विद्वानों के समच्ष रखने में मुझे गव और संतोष श्रनुभव हो रहा'है डी० फिल० की डिगरी के बहाने डॉ श्रीवास्तव हिन्दी को एक महत्वपूर्ण भक्ति घारा का उच्च स्तर का अध्ययन उपस्थित करने में समर्थ हुए हैं मुझे! भविष्य में डॉ० श्रीवास्तव से खोज के क्षेत्र में बहुत कुछ आ्शाएँ हैं |

हिन्दी विभाग ) धीरेन्द्र वर्मा

वि४० विद्ध“4, प्रयाग कात्तिक, सं २०१९४

निवेदन

प्रस्तुत प्रबन्ध में रामानन्द-सम्प्रदाय तथा हिंन्दी-साहित्य पर उसके प्रभाव का अध्ययन किया गया है। मध्ययुगीन हिन्दी राम-भक्ति-साहित्य के मूल प्रेरणा-सोत स्वामी रामानन्द जी ही थे, इसमें सन्देह नहों। आचार्य प्रवर ५० रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी-साहित्य का इतिहास! नामक अ्न्थ में “कबीर! का परिचय देते हुए लिखा है, “इसमें कोई सन्देह नहीं कि कबीर को “राम-नाम? रामानन्द जी से ही प्राप्त हुआ ।?? इसी प्रकार तुलसीदास का भी परि- चय देते हुए आचाय शुक्ल ने लिखा है, “यद्यपि स्वामी रामानन्द जी की शिष्य- परम्परा के द्वारा देश के बड़े भाग में राम-भक्ति की पुष्टि निरन्तर होती रही थी और भक्त लोग फुटक॒ल्न पदों में राम की मद्दिमा गाते रहे थे पर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में इस भक्ति का परमोज्ज्वल प्रकाश विक्रम की सत्नह्टवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में गोस्वामी तुलसीदास जी की वाणी द्वारा स्फुरित हुआ |... रामभक्ति का वह परम विशद्‌ साहित्यिक संदर्भ इन्हीं भक्तशिरोमणि द्वारा संगठित हुआ जिससे हिन्दी काव्य की. प्रौढ़ता के युग का आरम्भ हुआ |” आचाय शुक्ल के इन कथनों से स्पष्ट है कि हिन्दी-साहित्य के दो महान्‌ कवियों-- कबीर और तुलसीदास-का उचित मूल्यांकन करने के लिए! स्वामी रामानन्द कली की विचारधारा से परिचित होना अत्यावश्यक है। खेद है, स्वामी जी की इस महत्ता से परिचित होते हुए. भी उनके जीवन-बृत्त, उनकी रचनाओं तथा उनकी विचारधारा का कोई समुचित अध्ययन अब तक नहीं किया गया था" फलतः कच्रीर और तुलसीदास ने किस सीमा तक उनसे प्रभाव ग्रहण किए' थे इसको वैज्ञानिक जांच नहीं हो पाई थी। एक ओर रामानुजाचार्य की शिष्य- प्रम्परा में मान कर उन्हें विशिष्टाह्वेत का पक्का अनुयायी कह दिया गया श्र दूसरी ओर उनके जीव॑नवृत्त तथा उनकी रचनाश्रों के सम्बन्ध में पर्याप्त खोज नहीं की गई, जिसके फलस्वरूप विद्वानों को 'कुछ आनुषंगिक बातों का सद्दारा! ही लेना पड़ा है प्रस्तुत अध्ययन इन्हीं कमियों की पूर्ति का अपने

डे का एक प्रयासमात्र है

र्‌ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

प्रबन्ध को दस अ्रध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रारम्भ में रामानन्द सम्प्रदाय की धामिक पृष्ठभमि को स्पष्ट करने के लिए एक भूभिका भी जोड़ दो गई है। रामानन्द की विचारधारा का उचित मूल्यांकन करने के लिए, भूमिका में वैष्णव घमं का विकास, दक्षिण के आलवार भक्तों एवं रण्दत'चःः को विचारधारा, मध्ययुगीन धार्मिक वातावरण तथा प्रमुख भक्ति-सम्प्रदायों--निम्गक, मध्य तथा विष्णुस्वामी--के दाशंनिक सिद्धान्त एवं तत्कालीन राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का एक संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने इस सम्बन्ध में विभिन्न विशेषशों के मतों का अपने दंगा पर संकलन एवं संग्रह किया है। ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में रामानन्द स्वामी के जीवन, उनकी रचनाओ्रों तथा रामानन्दी सम्प्रदाय के श्रध्ययन की आधारभूत सामग्री को पूरी खोज करके उसका उचित मूल्यांकन किया गया है | इस सम्बन्ध में रामानन्द- सम्प्रदाय के निकट सम्पर्क में श्राकर लगभग समस्त प्राचीन एवं अर्वांचीन ग्रन्थों की खोज तथा संकलन, उनसे प्राप्त सूचनाओं की प्रामाशिकता की जाँच एवं हिन्दी-साहित्य के प्रमुख विद्वानों के मतों की आलोचना आदि लेखक की अपनी देन है। द्वितीय श्रध्याय में रामानन्द स्वामी का जीवनवृत्त प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है | इस सम्बन्ध में प्रचलिन मतमतान्तरों की पूरी आलो- 'चना करके लेखक ने प्राचीन उपलब्ध सामग्री तथा. सम्प्रदाय में प्रचलित मत के आधार पर स्वामी जी के जीवनबृत्त की एक रूपरेखा प्रस्तुत की है इसके पूर्व इस तरह का कोई प्रयास नहीं किया गया था| इस दृष्टि से प्रस्तुत प्रयास अपनी विशिष्ट मौलिकता रखता है-। तृतीय अध्याय में रामानन्द स्वामी के गन्थ और उनकी प्रामाणिकता पर विचार किया गया है| लेखक ने स्वामी जी के नाम पंर प्रचलित प्रायः सभी ग्रन्थों की बड़े परिश्रम से खोज की है ।॥ इसके लिए उसे रामानन्द-सम्प्रदाय के विद्वानों एवं उनकी कृतियों के निंकटतम सम्पक में आना पड़ा है। अयोध्या के कितने ही व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक पुस्तकालयों की उसे पूरी छानबीन करनी पड़ी है। सम्प्रदाय के वृद्ध एवं मान्य भक्तों के भी मत का इस सम्बन्ध में संकलन किया गया है। रामाज़न्द के नाम पर प्रचलित विभिन्न हिन्दी पदों एवं संस्कृत स्तोत्रों का संकलन भी बहुत ही परिश्रम से किया गया है| इस प्रकार कुल मिला कर स्वामी जी के अन्थों के सम्बन्ध में यह अध्ययन अ्रपनी विशेष मौलिकता रखता है। स्वामी जी के अन्थों को प्रामाणिकता की जांच के लिए. लेखक ने प्रकाशित ग्रन्थों की एकाधिक प्रतियों को विस्तृत तुलना की है और साथ ही विभिन्न विरोधी मतों की इस सम्बन्ध में उसने विस्तृत आलोचना भी की है। श्रनेक पुष्ठ प्रमायों

के अभाव में उसने स्वामी जी के नाम पर प्रचलित कुछ ग्रन्थों को छोड़ कर शेष सभी को अप्रामाणिक ही माना है | प्रस्तुत प्रबन्ध की रचना के लगभग एक वर्ष चांद सभा ने रामानन्द की हिन्दी रचनाएँ? नामक पुस्तक प्रकाशित की थी | उसमें आई श्रधिकांश रचनाओं के सम्बन्ध में मैंने जो विचार अपने ग्रन्थ में व्यक्त किए हैं, उनमें श्रब और इृढ़ता आगई है। वस्तुतः ये सभी रचनाएँ नितान्त ही अग्रामाणिक हैं | संप्रदायों के साहित्य की छानबीन करने वाले विद्वान्‌ इस बात से अपरिचित नहीं कि ज्यों-ज्यों साम्प्रदायिक धारणाओं में परिवर्तन होता जाता है, स्पो-त्यों अनेक नए, ग्रन्थ परवर्तों विद्वानों द्वारा लिखे जाकर संप्रदाय के मूल प्रवत्तेक के नाम पर प्रचलित कर दिए जाते हैं। “रामानन्द की 'हिन्दी रचनाएँ? संभवतः तपसी शाखा? तथा कबीरपंथी विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं और रामानन्द को योगी सिद्ध करने के लिए उनके नाम पर प्रचलित की गई हैं | चंतुथ अध्याय मे रामानन्द-सम्प्रदाया का इतिहास तथा उससे सम्बद्ध शाखाश्रों का विस्तृत अ्रध्ययन किया गया है। यह अध्ययन लेखक की अपनी वस्तु है स्वयं रामानन्द-सम्प्रदाय में भी इस प्रकार का कोई श्रध्ययन लप़लब्ध नहीं हे। विभिन्न प्रामाणिक सामग्री के आधार पर इस अध्याय में रामानन्द-सम्प्रदाय की उत्पत्ति, उसके विकास एवं अन्य सम्प्रदायों के उस धर पड़े प्रभाव का विघ्तृत अध्ययन किया गया है। साथ ही कुछ प्रसिद्ध गादियों को गुरुपरम्परा तथा कुछ प्रसिद्ध भक्तों के जीवनचरित एवं उनकी रचनाओं पर भी प्रकाश डाला गया है रामानन्दी-अ्रखाड़ों का भी इस सम्बन्ध में विशेष अध्ययन किया गया है और उनके सम्बन्ध में जो कुछ भी सामग्री प्रकाशित ग्रथवा मौखिक रूप से मिल सकी है,लेखक ने उन सभी का संकलन किया है। इस प्रकार यह अध्ययन धार्मिक दृष्टि से भी बहुत अधिक महत्व रखता है। पंचम अध्याय में राद्धानन३-ास्प्रदाथ्व की दार्शनिक विचारधारा का विवेचन किया गया है इस सम्बन्ध में आमाणिक ग्रन्थों के आधार पर स्वामी जी के मत का अध्ययन किया गया है, साथ ही आनन्दभाष्यः का मत भी दे दिया गया है इस प्रकार का कोई अध्ययन रामानन्द-सम्प्रदाय में भी अब तक नहीं हुआ था इस दष्टि से यह श्रध्ययन लेखक की अपनी विशिष्ट मौलिकता है। संभव है, लेखक की अल्पविद्याबुद्धि के कारण इसमें कुछ त्रुटियाँ रह गई हों, फिर भी , उसका यह प्रयास कम महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता | षष्ठ अ्रध्याय में रामानन्द-सम्प्रदाय की भक्ति-पद्धति का विवेचन किया गया है। इस सम्बन्ध में भी लेखक ने सम्प्रदाय के मौलिक ग्रंथों के आधार पर त्वामी जी की विचाश्थ्यरा तथा अन्य प्रमुख विद्वानों के मतों का विस्तृत अध्ययन किया है। साथ ही

रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

आनन्दभाष्यः का भी मत दे दिया गया है। यह अ्रध्ययन भी लेखक - मौलिक विशेषता है | सप्तम श्रध्याय में सम्प्रदाय के पूजा-सिद्धान्त तथा कर्मकाण्ड के महत्व और स्थान का संक्षेप में अ्रध्ययन किया गया है | यह का पूरा अध्ययन लेखक की अः- मौलिकठा है।

अ्रष्टम अध्याय में हिन्दी कवियों पर रामानन्दी दाशनिक सिद्धान्तों के प्र का बहुत ही पूर्ण एवं विस्तृत अध्ययन किया गया है| इस सम्बन्ध में तुल दास, कबीर और मैथिलीशरणगुप्त को ही विशेष रूप से चुना गया है| कवियों का अध्ययन विस्तार भय से छोड़ दिया गया | इस सम्बन्ध में ल्लेर की मौलिकता का निणय सधीजन ही कर सकते हैं | इसी प्रकार नवम अछ में हिन्दी कवियों पर रामानन्दी भक्ति-पद्धति के प्रभाव का विस्तृत अ्रध्ययन दि गया है | यहाँ भी तुलसी, कबीर ओर मैथिलीशरण गुप्त को ही विशेष रूप इस प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए चुना गया है | इस प्रकार का अ्रध्य हिन्दी में पहली बार ही हो रहा है | यह लेखक की अपनी मौलिकता है | दः अध्याय में रामानन्द स्वामी तथा उनके सम्प्रदाय का संक्षिप्त मूल्यांकन ६ि गया है। यह प्रस्तुत भ्रध्ययन का निष्कष है।

इस अध्ययन के सम्बन्ध में मैं सव॑ प्रथम प्रो० ए.० सी० बनजीं का कृ हूँ, जिन्होंने मुझे प्रयाग विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग के श्रध्यक्ष डॉ० धीं वर्मा, एम० ए०, डी० लिट० ( पेरिस )की देखरेख में इस शोध कार्य सम्पादित करने को अनुभति कृपया प्रदान की थी | पूज्य डॉ० वर्मा जी तो मुख्य पथ-प्रद्शक होने के साथ ही “मेरे गुरु भी हैं। यह उनकी अर उदारता का ही परिणाम है कि मैं इस कार्य को इतने अल्पकाल में ही सम्पा। कर सका हूँ मैं पूज्य डाक्टर वर्मा जी के ग्रति किन शब्दों में झृतशता-प्रव करू, समभे में नहीं आता ! मैं डॉ० हज़ारीप्रसाद द्विवेदी तथा डॉ० रामकु: “र्मा का भी कृतझ्ञ हूँ, जिनके बहुमूल्य सुझावों से मैंने पर्याप्त लाभ उठाया. डॉ० मुंशी राम शर्मा तथा पं० अयोध्यानाथ शर्मा जी ने प्रस्तुत शोघकार्य में : अत्यन्त सहायता की है, मैं उनका भी अभारी हूँ। श्री साकेत महाविद्यालय, फ़ेज़ाः के आचाय डॉ० हरिहर नाथ हुक्‍्कू, एम० ए०, डी० लिठ० का मैं विशेष रूप आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे अपने अध्ययन को सुच र्रूप से सम्पादित करने लिए. अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की थीं। वस्तुतः उनकी इस मा उद्छूता के बिना फ़ैजाबाद जैसे स्थान में रह कर यह कार्य हो ही नहीं सब था | प्रो० रघुवर मिट्ट्‌ लाल शास्त्री जी ने “अध्यात्मरामायणा? पर ऋण्ना जि.

देकर मुक्के बहुत ही उपकृत किया है, मैं उनका विशेष रूप से आभारी हूँ आचाय॑ ज्षितिमोहन सेन तथा रेबरेंड फ़ादर डॉ० कामिल ब॒ल्के, एस० जे० भी मेरे पथ में सहायता की है, मैं उनका भी आभारी हूँ।

मद्दात्मा अंजनीनन्दनशरण को मैं इस सम्बन्ध में कभी भूल नहीं सकता, जिन्होंने रामानन्द-सम्प्रदाय की प्राचीनतम एवं अप्राप्य पुस्तकों को ममे प्रदान कर इस अध्ययन में मेरी अपू सहायता की है | यदि उनकी कृपादृष्टि होती तो मैं नहीं कह सकता कि यह अध्ययन पूरा होता भी | मैं उनका बहुत ही आभारी हूं पं* रामकुमारदास रामायणी? ने भी अनेक साम्प्रदायिक पुस्तकों ' को प्रदान करने की उदारता दिखलाई थी, मैं उनका भी कृतज्ञ हूँ | इनके श्रति- रिक्त जिन अन्य विद्वानों की कृतियों एवं पराम्शों से मैंने लाभ उठाया है, मैं उनका भी कृतज्ञ हूँ। संभव है, किन्हीं विद्वानों के मतों को आलोचना करने में मुझे कुछ अ्रप्रिय सत्य भी कहना पड़ा हो, किन्तु यह उनके प्रति मेरी सम्मान- भावना को किसी प्रकार कम नहीं करता |

में अपने परीक्षकों का अत्यन्त आमारी हूँ, जिनके बहुमूल्य सुझावों को

यथासंभव अपनाकर मैंने इस ग्रन्थ 'को श्रधिंक उपयोगी बनाने की चेष्टा की है।

प्रस्तुत प्रबन्ध को टंकित करते समय मेरे प्रिय शिष्य पं० राधेश्याम त्रिपाठी , श्यार्मा ने जिस श्रदूभुत कार्य-तत्पस्ता का परिचय दिया, वह बहुत ही प्रशंस- नीय है मेरी समस्त शुभकामनाएँ उनके साथ हैं | ग्रन्थ के प्रकाशन की मेरी प्राथना स्वीकार करने में हिन्दी परिध्द्‌, प्रयाग विश्वविद्यालय, ने जो उदारता दिखलाई है उसके लिए मैं उसका चिरऋणी हूँ। मुद्रण की सुन्दर व्यवस्था, के लिए आज़ाद प्रेस, प्रयाग, के अधिकारीगण का भी मैं हृदय पे कृतज्ञ हूँ।

पुस्तक में जो भी त्रुटियाँ रह गई हों, लेखक उनके लिए क्षैमाप्रार्थी है रामभक्ति-साहित्य के अध्ययन में यदि इस प्रबन्ध से हिन्दी तथा अन्य भाषा - भाषी विद्यार्थियों का कुछ भी लाभ हो सका, तो मैं अ्रपने परिश्रम को सफल: समष्तगा |

वाराणसी श्री गांधी जयन्ती, सं० २०१४ बदरी नारायण श्रीवास्तव

पृष्ठ

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बा. विषय-सूची . भूमिका--धार्मिक पृष्ठ-भूमि ग्रथम अध्याय--अध्ययन की सामभ्री तथा उसकी परीक्षा...

द्वितीय अध्याय--रामानन्द स्वामी का जीवन वृष्त हे चयल तृतीय अध्याय--रामानन्द स्वामी के अंथ ओर उनकी

प्रामाणिकता ७४2. चतुर्थ अध्याय--सम्प्रदाय का इतिहास तथा सम्बद्ध शाखाएँ.. १४४ पंचम अध्याय--दाशे निक सिद्धान्त २३७ धृष्ठ अध्याय--भक्ति-पद्धति »»».. रेछ८ सप्तम अध्याय--पूजा-सिद्धान्त तथा कर्म-कांड का महत्त्व

ओर स्थान “« ३१६

कि अष्टम अध्याय--हिन्दी कवियों पर रामानन्दी दाशेनिक- सिद्धान्तों का प्रभाव : रामानन्द-सम्प्दाय और तुलसीदास --रामानन्द और कबीर--रामानन्द-सम्प्रदाय और मैथिली- शरण गुप्तू--रामानन्दी दार्शनिक क्िद्धान्त ओर अन्य कवि... ३३६

. नवम अध्याय--हिन्दी कवियों पर रामानन्दी भक्ति-पद्धति का प्रभाव : रामानन्द-सम्प्रदाय और तुलसीदास--रामानन्द और कब्रीर--रामानन्द-सम्प्रदाय और मैथिलीशरण शुं्त-- *

रामानन्दी भक्ति-पद्धति से प्रभावित अन्य कवि “०... 8०० _ दशम अध्याय--निष्कष ..... ४८४ परिशिष्ट १--सहायक-पुस्तक-सूची ..... ८६ परिशिष्ट २--रामानन्द-सम्प्रदाय के केन्द्र ... ४०३ परिशिष्ट ३--नामानुक्रमणी 20 अर

परिशिष्ट ४--स्वामी भगवदाचार्य का पत्र ... ४१६

संक्षेप और संकेत

आ[० भा०--अआनन्द भाष्य

उ० भा० सं० प०--उत्तरी भारत की संत परम्परा

कृ० प्र०--कबीर ग्रन्थावली

ह० अ्र० ट्विवेदी--हज़ारीप्रसाद द्विवेदी

कवितावली, उ० का०--कवितावली, उत्तर काण्ड

जे० आर० ए० एस०--जर्नल श्रव दि रायल एशियाटिक सोसायटी श्रव बंगाः

ना० प्र० स० रिपो्ट--नागरी प्रचरिणी सभा की खोज-रिपोर्ट

बीजक प्रे० च०--बीजक, स॒' प्रेमचंद

भ० पु० ठृ० प्र:--मभविष्यपुगण तृतीय प्रतिसर्ग पर्व

समानस--श्रीरामचरितमानस

मानस, बा० का०--श्रीरामचरितमानस, बालकांड

सानस, झअ० का२--श्रीरामचश्तिमा-रू, अयोध्याकांड

सानस, अ० का०--श्रीरामचरितमानस, अरशण्यकांड

मानस, कि० का०--श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकांड'

छु० का?--श्रीरामचरितमानस, सुन्द्रकाणड'

ल० का०--श्रीरामचरितमानस, लंकाकाण्ड

3० का०--भ्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड

श्री रा० प० पं० रा० 2० दास--भ्रीरामाचनपद्धति?, सं० प० रामटहलदास

रा० ना० दास--रामनारायणदास

विनय--विनयपत्रिका

श्री वे० स० भा०--श्री वेष्णवमताब्जभास्कर

रा० 2० दास--रामटइलदास

सं० स० कबीर, वर्मा--संक्षिप्त संत कभीर, डॉ० रामकुमार वर्मा

हि० का० नि० सम्प्रदाय, बथ वात “हिन्दी काव्य में निगेण सम्प्रदाय डा० पीतांबर दत्त बथ वाल

हिं० सा० - आ० ३०, वर्मा--हिन्दी पाहित्य का आलोचनाव्मक इतिहास,

डॉ० रामकुमार बर्मा हि सा० इ०, शुक्ल--हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल

| आाआ भामका डा धामिक एृष्ठ-भूमि रामानन्द स्वामी मध्य-युग के एक प्रसिद्ध वैष्णव सुधारक थे। अ्रपने उदार दृष्टिकोण के कारण उन्होने भक्ति का द्वार ब्राह्मण-शूद्र, शक्त-अशक्त, कुलीन- अकुलीन, पुरुष-छ्री समी के लिए. उन्म्रक्त कर दिया था। उनके शिष्यों में कबीर जुलाहा, घना जाट, सेन नाई, पीपा क्षत्रिय, रैदास चमार तथा सुरसुरी और पद्मावती आदि र्तरियाँ भी थीं। वैष्णब घर्म के इतिहास में यह एक घटना ही कही जायगी, क्योंकि रामानन्द के पूव के वैष्णव शआाचार्यों ने शुद्ध विचार की दृष्टि से तो भक्ति के ज्षेत्र में किसी भी प्रकार के बन्धन को स्वीकार नहीं किया था ( स्वयं आलवार संतों में श्रनेक शूद्र भी थे ), किन्तु व्यवहार के क्षेत्र में उन्होंने खान-पान छुआ-छूत सम्बन्धी समस्त आचार-विचार को प्रधानता दी थी। 0 रामानुज प्रपत्ति के क्षेत्र में जातिगत, कुलगत अथवा, गंगत बन्धन को नहीं मान केन्तु उनके सम्प्रदाय में खान-पान सम्बन्धी श्रनेक बन्धन स्वीकार किए. गए, जो इस बात के प्रमाण हैं कि स्वयं रामानुजाचार्य भी अपने उपदेशों के तक को पूणतया स्वीकार नहीं कर सके थे ।*| रामानन्द का महत्व इस दृष्टि से और भी अधिक बढ़ जाता है कि उनसे प्रेरणा पाकर उनके शिष्यों ने हिन्दी भाषा को ही अपने भाव-प्रकाशन का माध्यम बनाया जिसके फलस्वरूप मध्य-युगीन उत्तर भारत में एक अद्भुत जनजाशति गईं। रामानन्द के पश्चात्‌ भी उनके सम्प्रदाय को जनता का इतना अधिक बल, प्राप्त हुआ कि उत्तरभारत के लगभग समस्त वैष्ण॒व-सम्प्रदायों में रामानन्द-सम्प्र- दाय सबसे अधिक सुसंगठित एवं जनप्रिय हो गया फिर भी रामानन्द स्वामी का उचित मूल्यांकन करने के लिए वैष्णव-धरम के विकास की संक्षिप्त रूपरेखा सम्मुख होनी आ्रावश्यक है

१--शण्डियन फ़िलासफौ-राघाक्ृष्णनू , ए० ७०८०६ ' &

'१० रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

वैष्णुब धरम का विकास विद्वानों का मत है कि विष्णुभक्ति का मूल रूप वैदिक काल में ही मिल

जाता है | कुछ ऋचाशओों में 'विष्णुलोक के प्रति कामना”, “विष्णु की कृपा के 6 'लिए प्राथना” जैसी भावनाएँ भी व्यक्त की गई हैं ।*कुछ अन्य विद्वानों ने नवधा-; भक्ति, ब्रह्म के नराकार रूप तथा अबतारवाद के कुछ संकेत भी वेदों में पाए हैं।* वहाँ पिषणु की शक्तियों का उल्लेख करते हुए उन्हें त्रिविक्रम कहा गया | है। वामनावतार का मूल यही कल्पना है ।* उन्हें सूर्यदेवता भी कहा गया है |* भग की कल्पना-शुभाशीवांदों का प्रदाता-भी वेदों में मिलती है, जो श्रागे चल कर भगवान्‌ या भगवत्‌ को परमोपास्य मानने वाले भागवत धर्म का आधार. 'बनी * | विध्यु वेदिक-युग के एक प्रधान देवता हैं

उपनिषत्काल में ब्रह्म के निगुण-रुगुए रूप की विवेचना अ्रधिक हुई, किन्तु, निगुण की अपेक्षा सगुण का महत्व क्रमशः बढ़ता गया विष्णु में. मानवता के गुणों का आ्रारोप हुआ और उन्हें चरम प्राप्य माना गया | उनकी प्राप्ति के लिए अहिंसात्मक यशों का भी विधान हुआ।” बाल्मीकीय' रामायण में अवतारबाद की पूरी प्रतिष्ठा हो गई, यद्यपि विद्वानों के मत से यह अंश उसमें बाद में जोड़ा गया महाभारत! के पांचरात्र मत में वैष्णव- धर्म की निश्चित्‌ रूपरेखा बन जाती है |" तर आर० जी० भरणडारकर के मत से 'ईसा से ३००-४०० वर्ष पूर्व वासुदेव नामक देवता को उपासना का प्रचार था और इस धर्म के अनुयायी भागवत कहे जाते थे ।* विदेशियों ने भी इस घर्म को अपनाया था | यूनानी राजा एन्टिश्रलकिडास के राजदूत हेलियोडोरस को परम भागवतो हेलियोडोरस” कह कर पुकारा जाता था ।*

१-वही, ए० ६६७ तथा _भागवत-संप्रदाय'-बलदेव उपाध्याय, पृ७ १-८७

२--वैश्शव धर्म का विकास और विस्तार', कृष्णदत्त भारद्वाज, एम० ए०, कल्याण, वर्ष १६ अंक ४, पं० नंददुलारे वाजपेयी द्वारा 'महाक वे लरदास'धंथ में पृू० पर उद्धृत

२३--वही, पृ० | |

४--भारतीय सस्क्ृति-शिवदत्त ज्ञानी, २०७ |

४- इसणिडियन फिलासफ्ी-राधाकृष्णनू, पृ० ६६७

६---वही, ६४० ६६७।

यव धर्म का विकास और विस्तार, कृ० द० भारद्वाज, कल्याण, वर्ष १६, श्रंक ४। 5 ड्यन फ़िलासफ़ी, पृ७ ६६७

. $--वैष्णविज्ञम आदि-भण्डारकर, पृ० *०--भारतीय संस्कृति, शिवदत्त शञानी, पृ० २३६-बेसनगर शिलालेख

नारायणीय सम्प्रदाय

भण्डारकर ने महाभारत” के वेष्णुव-सम्प्रदायों के सम्बन्ध में विस्तृत सूच- नाएँ भी दी हैं ।* 'शान्तिपर्व! के अन्तर्गत नागयणीय-अश्रेश से पता चलता है कि मेरु पर्वत पर सर्वप्रथम इस घर्म का उद्घाटन हुआ, स्वायम्भुव से इस शास्त्र की उत्पत्ति हुईं और भगवान्‌ की उपस्थिति में इसका प्रख्यापन हुआ्रा | भगवान्‌ के अन्तर्धान हो जाने पर चित्र-शिखणि्डियों ने इस धर्म का प्रचार किया। कालां- तर में यह धर्म बृहस्पति को मिला और बृहस्पति से पुनः वसुठपरिचर को | इसी अंश में वासुदेव धर्म के मूल तत्वों का विवेचन भी किया गया है। वासुदेव को वभी आत्माश्रों का अन्तरात्मा और सबका खष्टा? कहा गया है | संकर्षण, प्रद्युग्न ओर अनिरुद्ध को क्रमशः जीवों का प्रतिनिधि, मस्तिष्क और आत्मज्ञान का प्रतीक माना गया है और कहा गया है कि ये सब आदिशक्ति के ही रूप हैं। वाराह, हृर्सिह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण आदि वासुदेव के ही अवतार कहे गए हैं |

भौतिक पापों के नष्ट हो जाने पर जीव अनिरुद्ध रूप में प्रवेश करता है और फिर मस्तिष्क बन कर प्रद्युम्न रूप में, उसके पश्चात्‌ वह संकर्षण रूप में प्रवेश करता है और फिर त्रिगुणों से युक्त होकर परमात्मा वासुदेव में कहा गया है कि यह वही धर्म है जिसका उपदेश वासुदेव से नारद को मिला, 'हरिगीता? में जिसका निर्देश किया गया है और कृष्ण ने जिसका उपदेश अजुन को किया था। इस धर्म का मूल है “श्रहिंसाः | वसुउपरिचर के यज्ञ में आरण्यक-प्रणाली का अनुसरण करते हुए. पशुबलि भी नहीं दी गई थी ।* अतः सष्ट है कि यह धर्म बौद्ध श्रोर जैन धर्मों की ही भाँति एक सुधार-शआन्दोलन था, यद्यपि इसकी पूरी आस्था आरण्यकों एवं परमात्मा में थी। आगे चलकर . सात्वतों ने इस घ्म को अपना लिया

नारायणीय-अंश से यह भी स्पष्ट है कि पहले वासुदेव और उनके चतुब्यहों की उपासना अज्ञात थी परमात्मा को हरि? कद्टा गया और यज्ञों से पूजापद्धति एकदम मुक्त नहीं रही कालान्तर में वासुदेव ने भगवद्गीता में वैष्णव-धर्म को एक निश्चित्‌ रूप दिया। उन्होंने एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय ही चला दिया। उनके भाई, पृत्र-पौत्रादि ने भी इसमें सहयोग दिया और वे परमात्मा के रूप तथाः विभिन्न मनोवैज्ञानिक स्तरों के प्रतीक कहे गए | सात्वत जाति ने आगे चलकर इस घम को पूर्णतया अपना लिया | १--वैष्णविज््म आदि, भंडारकर, १० ६-११। २--संभूताः सवसंभारास्तस्मिन्‌ राजन महाक्रतौ

तत्र पशुधातो प्मूत्‌ राजेवं स्थितोप्रभवत्‌ ( शांतिपवे, ३३६ १० '

१२ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

सात्वत-धम | महाभारत, विष्णुपुराणं, भागवत तथा पातंजल 'महाभाष्यः के अनेक क्‍ क्‍ प्रमाणों द्वारा भरडारकर ने सिद्ध किया है कि वृष्णि जाति! का ही दूसरा नाम साखत था; वासुदेव, संक्षण, अनिरुद्ध और प्रश्यम्न आदि इस जाति के सदस्य थे | बासुदेव इनके प्रधान देवता थे | मर्डारकर के अनुसार इस वातुदेव धर्म के प्रवत्तक कंदाचित्‌ वासुदेव नाम के कोई आचार्य रहे होंगे 'परातंजल महा-' भाष्य! और “काशिका? में बासुदेव को वृष्णि-कुल का एक सदस्य कहा गया है वेदों में भी कृष्ण ऋषि का नाम आया है जो कृष्णायन गोत्र के प्रवर्तक थये। संभवतः आगे चल कर वासुदेव से उनका तादात्य हो गया और इसी आधार पर उनका संबंध वृष्णि जाति से भी मान लिया गया। क्रमशः कृष्ण की सारी गरिमा वासुदेव में जोड़ दी गई | अन्य देवों से भी वासुदेव की अ्रभिन्नता धीरे- 'घीरे स्थापित की गई और गोकुल-कृष्ण से भी उनका सम्बन्ध जोड़ा गया। सम्भवतः चतुब्यूहों कौ कल्पना बाद में की गई भगवद्‌गीता में मस्तिष्क, बुद्धि, ज्ञान, अहंकार, जीव आदि वासुदेव की प्रकृतियों की व्याख्या की गई है | चांद में विद्वानों ने परमात्मा की इन प्रकृतियों को अनिरुद्धादि में साकार कर दिया। गीता में विराट्स्वरूप का वर्णन करते समय वासुदेव को विष्णु कहा गया है 'बासुदेव ओर नारायण में अभिन्‍नती

. अनेक प्रमाणों से भण्डारकर ने यह सिद्ध किया है कि नारायण बासुदेव के पूरवबर्ती थे | महाभारत काल में जब वासुदेव की पूजा का प्रचार हुआ, दोनों में अभिन्नता स्थापित की गई | 'महाभारतः के बन पर्व में अ्रजंन और वासुदेव कृष्ण की समता नर-नारायण से की गई है। हु चासुदेव और विष्णु

_रभ रत-काल तक आते-आते विष्णु परमात्मपद तक पहुँच गए थे और इसी काल में, भण्डारकर के मत से, वातुदेव की उनसे अभिन्नता स्थापित की गईं | भीष्मपर्ब? में परमात्मा को नारायण और विष्णु के नाम से पुकारा गया हर श्रौर उनकी अभिज्नता वासुदेव से की गई है। “शान्तिपव? में भी युधिष्ठिर ने कष्ण को विष्णु कह कर पुकारा है।

: * स्पष्ट है, वासुदेव को प्रधान देवता मानने वाल्ला वासुदेव धर्म सालवतों द्वार!

( 9५५ सवेक्त घमं था, महाभारत काल में है भारत की विभिन्न जातियों एवं प्रान्तो

में प्रसरित था; पौराणिक युग में यह सैनिक धर्म रहा श्रौर इसमें वैदिक देवता

भूमिका १३

विष्णु से बहने वाली धारा; नारायण--व्यापक तथा दाशंनिक ईश्वर--की धारा ओर वासुदेव--ऐतिहासिक देवता--की धारा श्रादि मिल गई इन तीनों ने मिल कर उत्तर वैष्णव-धर्म का निर्माण किया |

वासुदेव ऋष्ण और भोपाल #प्णु१०

भण्डारकर के मत से इन धाराओं में एक और घारा आकर मिल गईं,

जिसने आधुनिक वैष्ण॒व-घर्म को बहुत अश्रधिक प्रभावित किया वासुदेव कृष्ण ओर गोपाल कृष्ण में अभिन्नता भी कालान्तर में स्थापित हो गई | भमण्डारकर के _मत से आभीर जाति में बाल-ईश्वर की उपासना प्रचलित थी, कदाचित्‌ क्राइस्ट? नाम का भी प्रयोग होता था। ईसा से लगभग २००-३०० बाद उन्होंने उत्तर भारत में अपने राज्य स्थापित कर लिये थे। सम्भवतः '्राइस्ट” नाम के कारण वासुदेव कृष्ण का तादात्य बाल ईश्वर से हो गया | गोपियों की कथा बाद में आई होगी। सम्भवतः: उनकी सुन्दर स्त्रियों को आर्थां ने पसन्द किया श्रौर गोपी-कृष्ण की लीलाएँ गढ़ दी गईं। किन्तु, भए्डारकर के इस मत से अनेक विद्वान सहमत नहीं हैं | वे वेष्ण्व धर्म पर ईसाई प्रभाव सिद्ध करने की चेष्टठा को श्रप्रामाणिक एवं असंगत समझते हैं। इनके -तर्कों में पर्याप्त सार भी हे | 9

भागवत-प्रणाली ओर उत्तरकालीन वेष्णव धर्म

ईसवी पूर्व प्रथम शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी ईसवी तक इस धर्म का कोई पता नहीं चलता इसके पश्चात्‌ ही गुप्त बंशी राजाओं को परम- भागवत” कहे जाने का उल्लेख मिलता हैं। उदयगिरि पर चतुर्भज भगवान्‌ की एक मूर्ति भी है जो कदाचित्‌ विष्णु की ही है इसका समय ४०० ई० है | गाज़ीपूर में मितरी नामक आम में पाए गए, एक स्तम्भ पर साडिन्‌ की एक मूर्ति है, जिसका समय स्कन्द का शासनकाल है। साह्न विष्णु ही थे | पर्णंदत के पुत्र चक्रपालित ने ४५६ ई०में एक विष्यु-मन्दिर की स्थापना की,

थी, जिसके एक शिलालेख में वामन की प्रार्थना की गई है

दक्षिण में वासुदेव-धर्म या वेष्णव-घर्म

. आलवार भक्त--भागवत पुराण के अनुसार कलियुग में भक्ति द्रविड देश में ही पाई गई। भागवत की रचना अधिक से अधिक आनन्दतीथ से २०० वर्ष पूब हुई होगी | अतः द्वाविड संत भी ११वीं शताब्दी के पूव हो जदे.... होंगे | कृष्ण॒स्वामी आयंगर ने इन द्राविड भक्तों के नाम समय की दृष्टि से इस

२४. रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिन्दी-साहित्य पर उसका प्रभाव

प्रकार दिए हैं :--पोयगे श्रालवार, भूतत्तार, पेय आलवार, नम्मालवार ( परांकुश मुनि ) ,परि-आलवार, आए्डाल, (रंगनायकी ), तोए्डरडिप्पोलि ( विप्रनारायण ) तिरुपपन श्रालवार, तिरुमड़िसे आलवार | संस्कृत में इन्हें सरोयोगिन्‌, भूतयोगिन्‌, महदूयोगिन्‌, शठकोप, विष्णुचित्त, गोदा, भक्तांधरेशु, योगवाइन और पर का- लालवार ( भक्तिसार ) आदि नामों से पुकारा गया है। इनके अतिरिक्त मधुर- कवि और कुलशेखर दो श्रन्य प्रसिद्ध आलवार भी हो गए हैं। परम्परा से संयम आलवार का समय ४२०३ ईं० पू०--२७०६ ई० पू० माना गया है, पर यह नितान्त काल्पनिक है | भण्डारकर के मत से प्रथम आलवार का समय ईसा की $ वीं या वीं शताब्दी था तु

आलवारों की विचारधारा

आलवारों के गीत ्रबन्धम्‌! में संग्रहीत किए गएः हैं | शठकोप के गीतों का संग्रह 'सहख्त॒ गीति! नाम से किया गया है। इन आ्रालवारों ने विष्युु या नारा- यण को ही अपना श्राराध्य माना था | डॉ० राधाकृष्णन के मत से इन आ्रालवारों ने ईश्वर को प्रेमी मान कर उपासना की है। नम्मालवार ने लिखा है--'ओरो स्वयं के महत्वपूर्ण प्रकाश, तुम मेरे हृदय में हो और मेरे आत्मा का भोग कर रहे हो मैं तुमसे कब एक हो जाऊँगा !”! ((डॉ० दीनदयालु गुप्त के मत से “आलवार भक्त सांसारिक विषयों को अनित्य कहते थे। उनका बिचार था कि भक्ति के साधन और प्रपत्ति-पूर्ण श्रक्रमसमर्पण-द्वार संसार के आवागमन से मुक्ति तथा विष्णु भगवान्‌ का सम्मिलन मिलता है| वे केवल विष्णु के ही उपासक ऐकांतिक धर्म को माननेवाज्ले थे | वे विष्णु को वासुदेब, नारायण, भगवद्‌, पुरुष आदि नामों से भी पुकारते ये। उनके मतानुसार भगवान्‌ विष नित्य, अनन्त और अ्रखएड हैं, वे सतू-चित्‌ और आ्रानन्दस्वरूप हैं, और जीथों कग और अवतार भी लेते हैं| परन्तु अबतार लेने पर भी उनको श्रनन्त, अ्रनादि ओर सतत सत्ता ज्यों की त्यों रहती है। वे मूर्ति रूप में भी अवतार लेते हैं। राम और कृष्ण उन्हीं के रूप हैं। कृष्ण की आनन्द क्रीड़ाओ्रों के रूप में वह विष्णु जीवों को आनन्द दान देता है। गोपियों के साथ की लीलाओं द्वारा वह पूर्शानन्द्‌ की अनुभूति कराता है। श्रालबार भक्त विष्णु तथा उसके अवतार" कृष्ण श्रोर राम की भक्ति स्सिल्य, दास्य तथा कांता-भाव से करते थे, जिन भावों पर उन्होंने श्रनेक गीत लिखे हैं। उनके बिचारानुसार भगवद्भक्तों की पैवा भी भगवान्‌ की सेवा का एक श्रंग है। भक्ति के अन्तर्गत प्रपत्ति को उन्होंने रक्त,

१--राधाकृष्णनू-इणिडियन फ़िलासफ़री, पृ० ७०८

१५४,

बड़ा स्थान दिया था। उनका विश्वास था कि विष्णु भगवान्‌ की कृपा, उनके प्रति प्रेम ओर आत्मसमपंण से मिलती है | सबसे बड़ी बात इस धर्म की यह थी कि आलवारों का यह धर्म सभी जाति और सभी श्रेणी के मनुष्यों के लिये खुला हुआ था।” ९) भागवत-सम्प्रदाय का मूलाधार पाँचरात्र संहिताए? हैं | शंकरा- चार्य ने इनकी उच्दना ह०नि के पाँच भेद बतलाए हैं-“/-१--अभिगमन-सनसा, वाचा, कर्मणा आराध्य में केन्द्रित होकर उसके मंदिर में जाना। २--उपादान “पूजा के लिए, सामग्री एकजित करना। ३--इज्या--पूजा। ४--स्वाध्याय- मंत्रोच्चार +---योग--साधना, ध्यान आदि | ज्ञानामृतसार” में स्मरण, नामो- वार, नमस्कार, पादसेवन, भक्ति से पूजा और आत्मसमपंण “हरिपूजा? के ६प्रकार कहे गए. हैं। “भागवत पुराण” में श्रवण, सेवा और सख्य तीन ओर जोड़े गए | दक्षिण के आचाये

आलवारों के उपरान्त दक्षिण भारत में कुछ ञआराचार्य हुए,, जिन्होंने आलवारों के प्रबन्धम में व्यक्त विचारों का प्रतिपादन बेद, उपनिषद्‌, ब्रह्मसूत्र, गीता आदि के प्रमाणों से किया। ऐसे आचार्यों में नाथमुनि प्रथम (८२४ई०-६२४ई० ) थे। उनके पश्चात्‌ इस धर्म में पुण्डरीकाक्ष, राममिश्र तथा यामुनाचाय तीन प्रसिद्ध प्रचारक हुए यामुन के आदेश से ही रामानुजाचार्य ने महर्षि वादरायण के '“ब्रह्मसूत्! पर श्रपनी टीका लिखी थी | यादवप्रकाश' ने इस दिशा में उनका मार्ग प्रशस्त कर दिया था रामानन्द-सम्प्रदाय की दाशनिक चिन्ताघारा को रामानुज के विशिष्टा- द्वैत दर्शन ने पूर्णतया प्रभावित कियाँ है, अतः उसका विशद्‌ विवेचन यहाँ आवश्यक सा प्रतीत होता हैं

रामानुजाचाये के दाशनिक सिद्धान्त* तल अल कल जम ले तन

ब्रह्म--रामानुज के अ्रनुसार ब्रह्म स्वगतभेद से चिद्चिद्विशिष्ट है। सत्‌, चित्‌ और आनन्द उसके तीन प्रमुख गुण हैं, जो उसे एक रूप तथा एक «व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। ब्रह्म सर्वज्ञ है। उसका ज्ञान इंद्रियाधीन नहीं है। ईश्वर का व्यक्तित्व अपने आप में पूण है, मनुष्य केवल अपूर्ण रीति से ही व्यक्ति है व्यक्तियों के लिए आ्रावश्यक विभिन्‍नताएँ ब्रह्म के स्वगत ही हैं «० ब्रह्म शान, शक्ति और करुणा का समुद्र है। करुणावश उसने जगत्‌ की सृष्टि की है, नियमों का विधान किया है, और इसी के कारण वह पूर्णत्व- कामी मानवों की सहायता करता है। परस्पर भिन्‍न होते हुए भी ये गुण एक

* अअष्टछ्ाप और बतलभ-सम्प्रदाय, डा० दीनदयालु गुप्त; भाग १, ए० शे८। 'इण्डियन फ़िलासफ़री-वालूम २, पए० ३८५२-७१२--ले० डॉ० राधाकृष्णन

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चुलिक ९०

ही सत्ता के अधीन हैं और एकत्व को विभक्त नहीं करते ये गुण माव- मय्र हैं तथा चित्‌ और अचित्‌ आदि परमेश्वर,के विशेषणों से भिन्न हैं ईश्वर का निर्माण तो प्रकृति से हुआ है और वह कर्माधीन ही है, तो वह ग्राण-शरीर है और सुख ही है | इह लोक तथा परलोक के उपभोगों का प्रदाता ईश्वर ही है। ब्रह्म रूप आकार-हीन है, चित्‌ की व्यथा ओर अचित्‌ के विकार से वह प्रभावित नहीं होता चित्‌ और अचित्‌ ब्रह्म से उसी प्रकार सम्बद्ध हैं, जिस प्रकार किसी पदार्थ से उसके गुण अथवा किसी वस्तु से उसका अंश या आत्मा से शरीर। ब्रह्म अकारि, नियनन्‍्ता ओर शेषी है; चिदचित्‌ प्रकार, नियाम्थ और शेष हैं। नित्य एवं वास्तविक होते हुए. भी ये अपने विकास में ब्रह्माधीन हैं जगत्‌ ब्रह्म ही अपनी सत्ता प्रात्त करता है और उसकी इच्छा का अनुचर है। ईश्वर से सम्बद्ध होने पर भी जीव ओर जगत्‌ की अपनी प्रवृत्तियाँ, शक्ति और क्रियाएँ: आदि होती हैं | स्वरूप भेद के कारण चित्‌ अर्थात्‌ भोक्ता, अचित्‌ अर्थात्‌ भोग्य और ईश्वर अथांतू प्रेरक ( सर्वान्तर्यामी ) वस्तुतः तीन हैं, किन्तु प्रकार और प्रकारि ऐक्य के कारण वे एक ही है | ब्रह्म ही जगतू का कर्ता, पालक और लय कर्ता है। वह कारणों से परे तार की अपूर्शताश्रों से अस्पृश्य है | रामानुज ने परमात्मा को “विष्णु? नाम अभिहित किया है। शिव तथा ब्रह्मा मी विष्णु ही हैं।

श्रतियों में ब्रह्म को जहाँ 'निंगुणः कहा गया है, वहाँ वस्तुतः उसमें प्राकृत हैय गुणों! का ही अभाव कहा गया है। ( निगणवादश्च परस्य ब्रह्मणो हेय गुण सम्बन्धादुपपद्यते--भ्री भाष्य पु० ८३ ) तत्वमसि? की व्याख्या करते हुए रामा- नुज ने कहा है कि वस्तुतः ईश्वर ओर जीव दो भिन्न सत्ताएँ हैं, क्विर भी ब्रह्म श्रोर जीव में शरीर-शआत्मा तथा विशेष्य-विशेषण सम्बन्ध है | ईश्वर वस्तुतः सर्बान्तरात्मा है। विशेषणों से युक्त अद्वेत ब्रह्म की कल्पना के कारण ही इस

प्रत क्यू विशिष्टाद्वेत नामकरण हुआ |

बह्म पाँच रूपों में प्रकट होता है--१--अर्चा-मूतिख्य | २--विभव-अव- तारादि | ३--व्यूइ-संकषणु, वासुदेव, प्रद्युम्न ओर अनिरुद्ध ४--अन्तर्यामी अन्तःकरण का प्रेरक रूप | ५--7र-नारावण रूप ( तत्वत्रय पु० ११२---१४१ ) नारायण का निवास-स्थान बैकुण्ठ है; थे शेष-पर्यक पर शयन करते हैं; लक्ष्मी... ओर लीला उनकी चरणसेवा करती हैं; लक्ष्मी ब्रह्म की क्रिया-शक्ति हैं, वही

हद से

श्द्य रामानन्द-सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

परुषकार-रूपा हैं | ब्रह्म न्याय और लक्च्मी क्षमा के प्रतीक हैं। लक्ष्मी के क्रिया और भूति ( विकास ) नामक दो रूप हैं |

ब्रह्म ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीयं, शक्ति और तेज आदि पडैश्वय युक्त है। बासुदेव में ये छ्टों ऐश्वर्य हैं; शेष तीन विभवों में केवल दो-दो ऐश्वय ही मिलते हैं | संकर्षण व्यक्तिगत आत्मा के, प्रद्युम्न मस्तिष्क के और अ्रनिरुद्ध अहंकार के नियन्ता हैं | ब्रह्म के अवतार रूप के दो भेद हैं। मुख्यावतार तब होता है जब स्वयं विष्णु ही अवतरित होते हैं, जब व्यक्तिगत श्रात्मा श्रावेश में त्रा जाता है, तब गोण अवतार होता है |

इस सम्प्रदाय के परमोपास्य लद्दभी-नारायण हैं। नारायश का तिग्रह

सदा एक रस, अचिन्त्य, दिव्य, अद्भुत, नित्य, निर्मल, उज्ज्वल, सुगंधित, सुन्दर, सुकुमार, लावण्य और योवनादि गुणों से युक्त है

जीव--रामानुज के मत से जीव सत्‌, अरचित्य, नित्य, शानाश्रय, निरवयव, निर्ति- कार, अव्यक्त और अ्रगु है (तत्वन्नय, पृ० ५)। यह शरीर, इंद्रिय,मन, प्राण एवं बुद्धि से विलक्ष॒ण है; यह कर्ता, भोक्ता एवं ज्ञाता है मानवीय स्तर पर यह स्थूल शरीर, प्राण, पंचशानेन्द्रियों श्रौर पंच कमेन्द्रियों तथा मन से सम्बद्ध है मन की श्रध्यवसाय, अभिमान ओर चिन्ता आदि तीन क्रियाएँ हैं | अ्रणु जीव हृत्पिएड में निवास करता है; निद्रावस्था में यह वहीं विश्राम करता है, निद्रा आत्मा की चिरन्तरता में कोई बाघा नहीं उत्पन्न करती | अगुजीव अपने शान के संकोच एवं विस्तार की शक्ति से सुख-दुःख को अनुभूति उसी प्रकार करता है जिस प्रकार संकोच एव॑ विस्तार गुण वाली दीपशिखा अपने प्रकाश से बहुत सी वस्तुओ्रों को प्रकाशित कर देती है। स्थान और समय की दृष्टि से दुरस्थ वस्तुओं का ज्ञान भी आत्मा के लिए सम्भव है| यह शान नित्य एवं निरपेक्ष है, सम्पूर्ण वस्तुओं में व्याप्त एवं सत्य है। पूव जन्म के कर्मानुसार यह ज्ञान सीमित हो जाता है।

आत्मा अनेक है। मुक्ति मिलने की अवस्था के पूरब तक यह प्रकृति से नंघा रहता है। प्रकृति जीव का वाहन है, जिस प्रकार अश्व मनुष्य का। शरीर-बन्धन के कारण आत्मा ब्रह्म से अपना सम्बन्ध जोड़ नहीं पाता है। जीवन और मृत्यु के क्रमों में आत्मा अपरिवर्तित ही बना रहता है। प्रलयावध्था प्र. आत्मा के विशेष रूपों का नाश हो जाता है, यद्यपि वह स्वयं अविनाशी है। फिर भी, जीव के पूव कृत कर्मों का विनाश नहीं होता और ज्यों ही सृष्टि प्रारम्भ होती है, वह अपनी-अपनी शक्तियों से विशिष्ट होकर जगत में आा जाता है; जीव _हान वर्तमान तक ही सीमित है, अतः वह श्रपने भूत को देख नहीं सकता

अहंकार जीव की स्वाभाविक विशेषता है | बन्धन और मुक्ति की अवस्था

भूमिका १६

में जीव ज्ञातास्वरूप ही बना रहता है। आत्मा क्रियाशील है, किन्तु जब तक कम द्वारा वह शरीर से सम्बद्ध है, तब तक उसके कम निर्धारित ही रहते हैं, शरीर से मुक्त होने पर वह संकल्प से ही अपनी भावनाओं को जान लेता है | जीव और ईश्वर अभिन्न नहीं हैं। जीव ब्रह्मांश श्रवश्य है, किन्तु यह ब्रह्म से निकला हुआ एक भाग नहीं है, क्योंकि ब्रह्म अविभाज्य तथा अखंड है। यह जहा का परिणाम है, क्योंकि यह ब्रह्म से परे नहीं रह सकता, फिर भी आकाशादि की भाँति उत्पन्न परिणाम नहीं है। आत्मा की स्वाभाविक बृत्ति अपरिवतेनीय है, किन्तु जिन परिवर्तनों से श्राकाशादि की उत्पत्ति होती है वे 'स्वरूपान्यथाभाव- लक्षण” हैं | दुःख आत्मा की ही प्रकृति है, ईश्वर की नहीं | ईश्वर के अन्तः स्थित होने के फलस्वरूप जीव का इच्छा-स्वातन्त््य नष्ट नहीं हो जाता है, यद्यपि जीवात्मा का प्रयास-मात्र क्रियाशीलता के लिये आवश्यक नहीं है, विश्वात्मा का सहयोग भी आवश्यक है। केवलमात्र ईश्वर ही प्रकृति ओर कर्म के बन्धनों से मुक्त है। ईश्वर की सर्वप्रमुख विशेषता है शेषित्व; जीव उसका शेष है | रामानुजाचाय के अनुसार जीवों के नित्य, मुक्त ओर बद्ध तीन भेद हैं। नित्य जीव कर्म और प्रकृति से मुक्त होकर आनन्दोपभोग करते हुए बैक्ुण्ठ में निवास करते हैं। भुक्त जीव उन्हें कहते हैं, जो अपनी बुद्धि, पुणय और भक्ति के बल पर मुक्ति-लाभ करते हैं। बद्ध जीव वे हैं जो अपने अज्ञान एवं स्वार्थ के कारण संसार यें ही भ्रमण करते-रहते हैं। बद्ध जीवों के बुभुक्षु और मुमुक्षु दो प्रमुख भेद हैं | ये चार प्रकार के होते हें--दिव्य, मनुष्य, पशु और स्थावर | मृत्यु के उपरान्त मुक्त देवयान से और पुण्यात्मा पितृयान से जाते हैं किन्तु, दष्ट चन्द्रलोक जाने के पूव ही पृथ्वी को लौट आते हैं। जीवों को ईश्वर के दूत ऊपर ले जाते हैं। रामानुज इस सम्बन्ध में मौन हैं कि जोव कमबद्ध कब से हुआ | उनके मत से सृष्टि अ्नादि है, अतः इस प्रश्न का उत्तर देना सहज सम्भव नहीं है | “”» प्रकति-अचिन- परक्ुत, काल तथा शुद्ध सत्व ये तीन अचेतन पदाथ हैं। वे अपरिबतनशील हैं क्रौर मनुष्य के प्रति उदासीन रहते हैं | प्रकृति तो दृश्य है और अनुमान का विषय, उसका ज्ञान धम ग्रन्थों से होता है | वह सत्‌, रज श्रौर तम गुणों से सृष्टि करती है। प्रलय में अचित्तत्व रूप-नाम-विभेद्‌ रहित होकर सूद्धमावस्था में रहता है और उसे तमस्‌ कहते हैं। अचित्तत्व अज है, यद्यपि उसके रूप अगोचर और गोचर हुआ करते हैं

२० रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

सृष्टिक्रम इस प्रकार है--वमसू--महत्‌ू--अहंकार--सूताहि | | सात्विक अहंकार से एकादश इंद्रियां श्रौर तामस अहंकार से पंच तन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं; राजस अहंकार इन दोनों प्रक्रियाश्रों में सहायक' होता है; अ्रहंकार से पृद्ठम शब्द फिर आकाश-स्पश-वायु आदि की उत्पत्ति होती है। ध्वनि सभी तत्वों में वर्तमान है स्पर्श के ऊष्ण, शीत और सम आदि तीन भेद हैं| प्राण इद्रय नहीं, वायु की अवस्था विशेष है | सांख्य के जिपरीत विशिष्टाहैत का मत है कि प्रकृति ईश्वर द्वारा उत्पन्न तथा अनुप्राणित है | काल--यह समस्त सत्ताओं का मूल है, यह दृश्य भी हैं। दिन, मास, वर्ष आदि का आधार यही है | शुद्ध सत्व--नित्य विभूति रूप में ईश्वर का शरीर शुद्ध सत्व से बना है | प्रकृति की सहायता से ईश्वर लीला-विभूति रूप को प्राप्त होता है।ये सभी अचेतन पदार्थ ईश्वरेच्छानुगामी हैं | स्वयं भले या बुरे नहीं, कर्मानुसार ही ये जीत के सुख-द:ख के कारण होते हैं | कर्म और श्रविद्या से युक्त जीवों के लिए यह संसार ही आनन्द का क्षेत्र है। ईश्वर चित से अधिक श्रोर अ्रचित्‌ से कम सम्बद्ध है, क्योंकि अचित्‌ चित्‌ से भी अनुशासित होता है | स्ृष्टि--प्रलयावस्था में ब्रह्म 'कारणावश्था? में रहता है, चित्‌ श्रौर अचित्‌ सूद्मावस्था में रहते हैं | अचित्‌ अ्रव्यक्त और चित्‌ संकुचित रहता है। ब्रह्म की इच्छा से जब सृष्टि का प्रारम्भ होता हैं, सूदम अचित्‌ स्थूल हो जाता है औ्रौर आत्मा स्वपूवकर्मत्तचित गुणावगुणों के श्राघार पर शरीर धारण करता है | परिवर्तन की इस अवस्था में ब्रह्म कार्यीवस्था? में स्थित कहा जाता है। वस्व॒ुतः सृष्टि और प्रलय एक ही ऊरण ब्रह्म को विभिन्न अ्रवस्थाओं के द्योतक, हें कारणावस्था में आत्मा अव्यक्त रहता है और अचित्‌ शांत-स्थिर आत्मा को स्वकर्मानुसार फलोपभोग देने के लिए भी सृष्टि होती है | रामानुज के श्रभुसार , वर सृष्टि और प्रलय के कारण चिदचित्‌ में उत्पन्न विकारों से प्रभावित नहीं होता | शुद्धसृष्टि में, पाँचरात्रानुसार, ईश्वर के पडैश्वर्य की अभिव्वक्ति होती है ओर इन्हीं गणों से वासुदेव तथा लक्ष्मी के शरीर का निर्माण होता है, विभव,.. व्यूह और बैकुएठ आदि भी शुद्धसृष्टि के अंग हैं। सृष्टि ईश्वर की लीलामात्न है, प्रकृति और जीव ईश्वर की क्रीडा के साधन हैं | : - रमानुज ने शंकर के मायावाद का जम कर खण्डन भी किया है |

__ साधन-मार्ग--संसार में आने पर कर्म और अविद्या के प्रभाव से जीब अपने को शरीर ही समभने लगता हे किन्त ईइवर के दृत्स्थ होने के कारण हू

भूमिका २१

अपने पाप का अनुभव भी करता है, ओर ईश्वर से अपनी सहायता करने की प्राथंना करता है। किन्तु, मोक्ष ज्ञान और कम द्वारा नहीं, भक्ति द्वारा ही सम्भव है। भक्ति परमात्मा के सतत चिन्तन एवं ईश्वर के पूर्शज्ञान की ओर पहुँचने को कहते हैं ज्ञान और कर्म इस भक्ति के साधनमात्र हैं, जो हमारे स्वार्थ का समूलोच्छेदन कर हमारी इच्छा शक्ति को नया बल, हमारी चेतना को नई शक्ति और हमारे आत्मा को नई शांति प्रदान करते हैं

भक्ति केवल भावावेश मात्र नहीं है, यह ईश्वरीय ज्ञान होने के साथ ही भगवान्‌ को इच्छा का पालन भी है। मस्तिष्क और हृदय से ईश्वर के प्रति अनुराग इसका प्राण हे और परमेश्वर का साक्षात्कार इसका परिणाम है। भक्ति के लिए. विवेक-भोजन सम्बन्धी आचार-विचार तथा छुआ-छूत आदि का पालन; विभोक--ईश्वर की कामना तथा अन्य वस्तुओ्नों से विराग; अम्यास--भगवान्‌ का निरन्तर चिन्तन; क्रिया--परठपकार; कल्याण--दूसरों की भलाई की

कामना; सत्य, आजंब, दया, अ्रहिंसा, दान, और अनवसाद आदि रामानुज के मत से अत्यन्तावश्यक हैं

. भक्ति अपने में ही फलस्वरूप होने से अन्य सभी साधनों से श्रेष्ठ मानी गई है। भक्ति के प्रत्येक स्तर पर हम भरपने को पूर्ण बनाते चलते हैं। इस प्रकार भक्ति और मोक्ष में अ्रत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है। भक्ति के दो भेद माने गए हैं:--( ) वैधी--प्राथना, उत्सव, मूर्ति-पूजा आदि यह निम्नस्तर की भक्ति है; ( ) मुख्या--केवल भक्ति के लिए. भक्ति, इसमें स्वार्थ के लिए. स्थान नहीं रहता

- रामानुज के मत से प्रपत्ति--भगवान के प्रति अनन्य शरणागति--का द्वार सभी के लिए, उन्मुक्त है, कर्म और ज्ञान का माग केवल द्विजातियों के लिए है फिर भी परम्पराश्नों से बहुत अधिक प्रभावित होने के कारण रामानुज ने प्रपत्ति का अधिकार द्विजातियों को तो इसी जन्म में दे दिया, किन्तु शुद्धों तथा, स्त्रियों को उनका आदेश था कि वे अ्रगल्ले जन्म में भक्ति पाने के लिए प्रयास करें ।"रामानुज-सम्प्रदाय (लोकाचाय) के टेंकले (तिंगल)--दक्षिण शाखा--के अनुसार केवल प्रपत्ति ही मोक्ष का मार्ग है अपने शरणागत की रक्षा ईश्वर मार्नार की भाँति करता है जो अपने शिशु को अपने मंह में दबाए, रहती है। यह मत आलवारों की विचारधारा के अधिक निकट है। बड़कले (बड़गल्) शाखा (वेदाज्त देशिक)के अनुसार प्रपत्ति ईश्वर के पाने का एक मार्ग विशेष है, केवल वही एक्ल्‍ल्‍न+- माग नहीं जिस प्रकार बन्दर का छोटा बच्चा कुछ प्रयास करने पर ही माँ से

२२ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

चिपका रहता है उसी प्रकार कम, ज्ञान, भक्ति और प्रपत्ति द्वारा जो अपने को.

योग्य बना लेता है, वही ईश्वर की कृपा का अधिकारी होता है

गया है। * मोक्ष--रामानुज के श्रनुसार मोक्ष आत्मा का अदृश्य हो जाना नहीं, सीमा के बन्धनों से ऊपर उठ जाना है मुक्तात्मा ईश्वर रूप (समान)हो सकता है, ईश्वर नहीं मुक्तावस्‍्था में आत्मा की स्वाभाविक प्रज्ञा और आनन्द की श्रभिव्यक्ति होती है, क्म-बन्धन-हीन होने से वह स्वराट्‌ है | मुक्त संसार में पुनः लौट कर नहीं श्राते। रामानुज जी वन्युक्त होने में विश्वास नहीं रखते | भौतिक शरीर का परिव्याग कर और क्म-बन्धन से रहित होकर जीव ईश्वर का साहचर्य प्रात्त करता है। मक्तावस्था में देवता, मनुष्यादि जैसा कोई भेद नहीं रहता, सभी श्रात्माओं को समानता प्राप्त हो जाती है |

मक्तजीव ईश्वर की समस्त विभूतियों तथा पूणताओं ( स्वशत्व तथा सत्य संकल्पख) से संपन्न हो जाता है; अन्तर केवल दो बातों का रहता है---१-.आत्मा आकार में अगु ही बना रहता है, २--सृष्टिकार्य में उसका कोई अ्रधिकार नहीं रहता ( जगदुव्यापार वर्जम ४४१७ पर श्री भीष्य ) | ब्नह्म सर्वव्यापी है और रृष्टि-कार्य में उसका एकाधिकार है | ब्रह्मलोक में जीव विशुद्ध सत्वमय देह-युक्त होता है इसी देह के माध्यम से वह अपर्नी इच्छा तथा विचारों को व्यक्त करता है। मुक्तजीवों के दो भेद माने गए हैं; शुद्धभक्त, जो यहाँ भगवान की भक्ति में निरत होकर स्वर्ग में भी उनकी सेवा करना चाहते हैं | २--केवलिन्‌ , जो अपने आत्मा के स्वरूप का सतत चिन्तन करते हुए मोक्ष-लाभ करते हैं

रामानुज् ने स्वग में सकल सुखोपभोग एवं ऐश्वय-प्राप्ति की कल्पना की हे “ासानन्द स्वामी की समकालीन परिस्थितियाँ (१३००ई०-१४००ई० तक) धामिक परिस्थिति--रामानन्द के समय तक इस्लाम का देश में पर्याप्त

प्रचार हो गया था। इस धम के प्रचारकों को राज्याश्रय भी प्राप्त था। फसी-.

कभी तो स्वयं मुसलमान राजाओं ने ही पशवार की नोक पर इस धर्म का प्रचार किया | हिन्दुओं को “जात मुसलमान बनाया गया, उनके मे न्दिर तोड़े गए. ओर उनका सवस्व लूटा गया। हिन्दुओं ने भी अपने रक्षार्थ दबे रूप से आंदोलन -कैया, किन्तु हमारा बुद्धिवादी बग तथा हमारे भक्त-आचार्य इस धर्म से उदासीन ही रहे | उन्होंने इसका विरोध पक नहीं किया इस काल्न तक

|

वेष्णव-मक्ति में ईश्वर को गुरु, मित्र, पिता, माँ, पुत्र और प्रियतम माना क्‍

भूमिका र३े

बंगाल को छोड़ कर भारत वर्ष के प्रायः सभी भागों में बौद्ध-धर्म नष्ट प्राय हो चुका था और वैदिक धर्म ने उसका स्थान से लिया था ।”* जैन-घर्म का प्रचार आन्प्र, तामिल, कर्नाटक, गजपूताना, गुजरात, मालवा तथा बिहार औ्रौर उड़ीसा के कुछ भागों में था धीरे-घीरे दक्षिण में शैबमत प्रचारकों की शक्ति बढ़ती गई और बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी तक आते-आते सम्पू्ण देश में-- उड़ीसा में भी--यह धर्म क्ञीण होता गया, किन्तु इसी समय जैन आचाय हेमचन्द्र के प्रभाव से राजा जयसिंह ओर कुमारपाल ने इसकी उन्नति के लिए बहुत प्रयास किया, जिससे गुजरात, काठियावाड़, कच्छु, राजपूताना और मालवे में जेनधर्म का प्रचार बहुत हुआ | इन प्रदेशों के अ्रतिरिक्त शेष भारत में जैन- धर्म का प्रचार नहीं के बराबर हुआ ।* रामानन्द के समय तक शंकर के अद्वैत का खण्डन करके रमानुज ने शैवधर्म का भी प्रभाव बहुत कम कर दिया | उनसे प्रेरणा पाकर दात्षिणात्य मध्व-निम्बार्तादि वैष्ण॒वाचार्यों ने उत्तर भारत में भक्ति-सम्प्रदाय स्थापित किए, रामानन्द का सम्बन्ध दाशनिक भमतवाद की दृष्टि से गमानुज-सम्प्रदाय से ही रहा, किन्तु धीरे-धीरे उनके द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय में माघुय भाव का प्रवेश होने लगा और यह क्ृष्णभक्ति सम्प्रदायों से भी बहुत कुछ प्रभावित हुआ इस दृष्टि से समानन्द जी के कुछ आगे-पीछे के अन्य वैष्णुव- सम्प्रदायों की विचारधारा का अध्ययन यहाँ आ्रावश्यक प्रतीत होता है ये वैष्ण॒व- सम्भैदाय निम्नलिखित हैं :-- . * १--निम्बाक-सम्प्रदाय--निम्बाक का समय ११६२ ई० के लगभग था। २--मध्वाचार्य (समय ११६७ ६०५१२७६ ई०) का द्वैतवादी माध्य-सम्प्रदाय | ३--विष्णु स्वामी-सम्प्रदाय--वल्लभाचाय का शुद्धाह्वोतवादी-सम्प्रदाय | निम्बाके-सम्प्रदाय *--निम्बा्क के मत से ब्रह्म, चित्‌ (जीव) तथा अचित्‌ (जड़) से भिन्न है, परन्तु चित्‌ तथा अचित्‌ दोनों ही तत्व ब्रह्मात्मक हैं| विभाग सहिष्णु अविभाग ही जीव, जगत्‌ तथा ब्रह्म का परस्पर सम्बन्ध है निम्बाक के मत से ब्रह्म सर्वशक्तिमान्‌, सर्वज्ञ तथा अच्युत विभवपूर्ण है| वह जगत्‌ का निभित्त और उपादान दोनों ही कारण है। मकड़ी के तन्तु की भाँति ब्रह्म जगत्‌ की सृष्टि करता है निम्बार्क के मत से श्री कृष्ण ही परब्रह्म हैं (वशश्लोकी ४) |

नगर.

नी जिन मनन मनन नमक पिया डन टच ऑिनमनम,

१--मध्यकालीन भारतीय संस्कृति--गोरीशंकर होराचन्द ओमा पृ० ५-६

२--बही, प्‌० १५। कप ३--अष्टछाप शोर वल्लम-सम्प्रदाय', पृ० ४२-४६ तथा भारतीय दर्शन; बेलेद

उपाध्याय ए० ४६१-६४

२४ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिन्दी-साहित्य पर उसका प्रभाव

कृष्ण की शक्ति व्यक्त और अव्यक्त, अंश श्रौर अंशी रूप से व्याप्त है। श्रतः उसमें हवैत नहीं है, पर उसके जीव-जंगत्‌ से विलक्षण होने से द्वैत भी है। कृष्ण अनन्त शक्ति, ऐश्वर्य और माधुय के आश्रय हैं| उनके ऐश्वर्य रूप की अ्रधि- ध्ठात्री समा, लद्टमी आदि और माधुर्य रूप की अधिष्ठानत्री गोपियाँ तथा राधा हैं| ब्रज में कृष्ण द्विभुज और द्वारावती में चतुभज हें। जीव--जीव अचित से भिन्न, नित्य, ज्ञाता एवं अग्ुपरिमाण वाला है | शरीर-मेद से जीव भी भिन्न-भिन्न हैं | ईश्वर प्रेरक है, जीव प्रेयवान; ईश्वर अंशी है, जीव अंश | जीव भगवान्‌ का व्याप्य ओर उनके अ्रधीन है। जीबों के तीन भेद किए. गए हैं--१--बद्धजीव--माया-अ्रविद्या-विवश जीव जब देहादि से अपना श्रभिन्न सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब वह बद्ध कहा जाता है। २--मुक्त जीव--इस सम्प्रदाय में दो प्रकार की मुक्ति मानी गई है--क्रम- मुक्ति और सद्योमुक्ति | जो जीव अचनादि द्वारा प्राप्त खर्गादि मोगों का उपभोग करते हुए,, प्रलय-प्राप्ति कर सायुज्य लाभ करते है, वे क्रममुक्ति पाते हैं, श्रवणादि द्वारा संसार के बन्धन से मुक्त होकर भगवत्‌कृपा के भागी हुए जीव सद्योमुक्ति पाते हैं | मुक्ति के फलस्वरूप कुछ जीवों को 'ऐश्वर्यॉनन्द! और कुछ को भगवान्‌ का 'सेवानन्द! मिलता है | भगवान्‌ का सामीप्यथ्पाने पर जीव नित्य-सिद्ध-देह का लाक्ष करता है। ३--नित्यसिद्धजीव--ये संसार-दुःख से मुक्त तथा स्वभावतः भगवद-अनुभावित हैं | गरुड़, सनकादि सिद्ध न्लीव हैं | अचित्‌ तक्त्त-इसके प्राकृत, अ्रप्राकृत तथा काल आदि तीन भेद हैं। प्राकृत तीनों गुणों का श्राश्नय तत्व है | बह भगवदधीन है | प्रकृति श्रात्मा की देह, देहेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि आदि रूपों में परिणत होकर जीव का बन्धन करती है। अप्राकृत--यह अंश विशुद्ध सत्व है। नित्य विभूति, विष्णुपद, परमच्योम, पस्मपद, ब्रह्म लोक इसी तत्व के दूसरे नाम हैं मुक्त जीवों के भेद का उपकरण इसी का रूप है | काल से अलग होने के कारण यह निर्विकार है | काल--ह नित्व, व्यापक, प्रकृत पदार्थों का नियामक है, किन्तु भगवदधीन है। सोक्ष का उपाय--निम्बाक-सम्प्रदाय में भगवत्कृपा को ही मोक्ष का साज्नन कहा गया है नवघा भक्ति के अभ्यास से भगवस्प्रेम मिलता है | इस सम्प्रदाय में शर्ति,दास्‍्य, सख्य, वात्सल्य और उज्ज्वल श्रादि ही भक्ति के भेद माने गए हैं | कक कक सम्प्रदाय-द्वेतवादी सम्प्रदाय '--मध्व के अनुसार भेद स्वाभाविक “हव नुत्य है। यह भेद प्रकार का है-. १--इश्वर और जीव-मेद, २--ईश्वर

६-“अध्टछाप ओर बल्लभ-सम्प्रदाय ए० ४६०४४ के आधार पर |

भूमिका २४

ओर जड़ भेद, ३--जीव और जड़भेद, ४--जीव-जीव भेद, ५--जड़-जड़ भेद | ईश्वर, जीव और जगत्‌ ये सभी भेद सत्य हैं। इसे मत में द्रव्य-परमात्मा, लक्ष्मी जीव, जगदादि; गुण-रूप सौंदयादि; कम-विहित, निषिद्ध, उदासीन; सामान्य-जाति उपाधि; , शे-भेद »,.< « -; 7; विशिष्ट-नित्य, अनित्य; अंशी; शक्ति-अचिन्त्य, आधेय, सहज, पदशक्ति तथा साहश्य और अ्रमावादि दश पदार्थ कहे गए हैं | माध्ब मत में परमात्मा के गुण असीम, नित्य एवं अपरिमित हैं | सृष्टि,

स्थिति, संहार, नियमन, आवरण, बोधन (ज्ञान), बन्धन और भोत्ष आदि आठ कारणों म॑ परमात्मा के अतिरिक्त अ्रन्य किसी चेतन का अधिकार नहीं है | ब्रह्म या परमात्मा ज्ञानानन्दात्मक, श्रप्राकृत तथा नित्यदेहयुक्त हैे। उसके मूल तथा अवतरित रूप में कोई अन्तर नहीं है। उसमें अनेक रूप धारण करने की शक्ति भी है| लक्ष्मी परमात्मा से भिन्न तथा उसी के अधीन हैं। वे नित्य तथा सब॑- गुण-पूण हैं | परमात्मा के इंगित पर सृष्टि आदि कार्यों को करती हैं| ब्रह्म की भी उत्पत्ति उन्हीं से होती है। लक्ष्मी अजड़ प्रकृति अर्थात्‌ चित्स्वरूपा हैं, श्री, भू, सीता, रुक्मिणी उन्हीं के रूप हैं

जीबों की संख्या अनन्त है | उनके मुक्ति-योग जीव--ब्रह्मा, अग्नि, वायु, देव, नारद, रघु आदि; नित्य संसारी जीव--उत्तम पुरुषों को छोड़कर श्रन्य सभी मनुष्य तथा तमोयोग जीव--राक्षसादि, तीन प्रमुख भेद हैं। मोक्ष पाने पर भी जीव-जीव तथा जीव-परमात्मा में भिन्‍नता बनी रहती है !

जड़ प्रक्रति को उपादान कारण बना कर लक्ष्मी काल, सत्‌, रज, तम तीन गुण, तथा मह॒दादि तत्वों की सृष्टि करती हैं। प्रकृति तिगुणों से भिन्‍न परिणाम धारण-कर्तन्री एवं नित्य है। परमात्मा, लक्ष्मी तथा जीवों की स्वरूपगत इंद्रियाँ नित्य हैं, शेष अनित्य | अविद्या को ब्राह्मी सृष्टि कहा गया है और इसके चार भेद माने गए हैं :--जीवाच्छादिका, परमाच्छादिका, केंबला, माया। संसार-जन्य दुःख अविद्या-संभूत है

मोक्ष-लाभ परमात्मा के अनुग्रह तथा प्रेम द्वारा ही होता है। भगवान्‌ के परम अनुग्रह से जीव परमात्म-लोक में पहुँचता है और मध्यम अनुग्रह से स्वर्ग तथा ऊर्ध्वलोक के सुखभोग करता है। कमच्षय, उत्कांतिलय, अचिरादि मार्ग तथा भोग मुक्ति के चार भेद हैं। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य आदि मुक्ति-मोग के चार भेद हैं। साथुक््य का अर्थ है भगवान में भगवद्देहुद्दारा भोग साधन होना ( सायुञ्ष्य॑ नाम भगवन्तं प्रविश्य तच्छुरीरेण मोग: )। 7:

रामानन्द-सम्प्रदाव में रामसखे इस दाशनिक प्रणाली से बहुत प्रभावित थे

रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

श्री विष्णु स्वामी सम्प्रदाय-डॉ० दीनदयालु गुप्त के मत से “विभिन्न मतों के बीच में, यह पता लगाना कि विष्णु स्वामी सम्प्रदाय के प्रवतक आचाय विष्णु स्वामी की स्थिति कब और कहाँ थी, कठिन हे | बल्‍लभ-सम्प्रदायी अ्रन्थों से तथा किवदंतियों से यह पता चलता है कि बल्‍्लभाचाय जी विष्णु स्वामी सम्प्रदाय की उच्छिन्न गद्दी पर बैठे ओर उन्होंने इसी सम्प्रदाय के सिद्धान्तों के श्राधार पर अपने सिद्धान्तों को निर्धारित किया | यह भी जनश्रुति है कि महाराष्ट्र संत श्री ज्ञानदेव, नामदेव, केशव, त्रिलोचन, हीरालाल और श्रीराम विष्णु स्वामी- मता- वलम्बी थे। महाराष्ट्र में प्रचार पाने वाला भागवत धम जो पीछे बारकरी-सम्प्रदाय? के नाम से प्रसिद्ध हुआ और जिसके अनुयायी ज्ञानदेव तथा नामदेव श्रादि उक्त भक्त थे, विष्णु स्वामी मत का ही रूपान्तर है |” बारकरी संप्रदाय के सम्बन्ध में डॉ० गुप्त के इस मत से महाराष्ट्री विद्वान्‌ सहमत नहीं हैं। बह्लभाचार्य का 'समय विक्रम की १६ वीं शताब्दी हे, रामानन्द से लगभग १०० वर्ष बाद उनका आविर्भाव हुआ किन्तु उत्तर रामानन्दी-सम्प्रदाय की रसिक-शाखा राधावल्‍लभी “सम्प्रदाय से प्रभावित होने के साथ ही वललभ-सम्प्रदाय से भी प्रभावित हुई है, अतः संक्षेप में उसके मत को जान लेना अनावश्यक नहीं होगा | वल्लभ-सम्प्रदाय की दाशेनिक विचारधारा

त्रह्म--अह्म सब्चिदानन्द है, स्वतन्त्र एवं सर्वज्ञ है। वह सजातीय, विजा- तीय आदि द्वेतरहित, अद्वैत है वह जगत्‌ का समवायी और निमित्तकारण है | अहम में आविर्भाव श्रौर तिरोभाव की शक्ति है। श्री कृष्ण में सत्‌, चित्‌ और आनन्द तीनों शक्तियाँ वत्तमान हैं | जड़तत्थ में चित्‌ और आनन्द दो घर्म तिसे- भूत हूँ और जीव में सत्‌ ओर चित्‌ दो धम प्रकट हूँ, किन्तु ग्रानन्द तिरोभूत है सच्चिदानन्द्‌ ब्रह्म नित्य और उसकी लीला भी नित्य है | वह ऐश््वर्य, वीये, यश, श्री, ज्ञान ओरूवैराग्य आदि षडैश्वययुक्त है। उसके पूर्ण पुरुषोत्तम श्री कृष्ण रूप, अच्ुर ब्रह्म और अन्तर्यामी आदि तीन रूप हैं। श्री कृष्ण ही पूर्णानन्द- स्वख्य हैं | उनका देवकीनन्दन रूप रसात्मक, वासुदेव-रूप मोक्ष॒दाता, संक्षंण रूप 3“ का संहारी, प्रयम्न रूप सृष्टि का रक्षक और अनिरुद्ध रूप घर्मरत्ञक है |

जीव--जीव अक्षर ब्रह्म से उसी प्रकार निकला, जिस प्रकार अ्रग्नि से “ऊलिय निकलते हैं। परमात्मा अंशी और जीव अंश है जीव में पडैश्बर्य का ६५ तिरोधान रहता है | जीवों को योग, दिव्यज्ञान, भगवत्कृपा से ही पड़ैश्वर्य

१९-- अष्टछाप और बल्लभसम्प्दायः भांग १, एृ० ४२ | २--वही, भाग २, १० ३६३-६६२ |

०]

भूमिका २७-

की प्राप्ति दोती है | बलल्‍लभसम्प्रदाय में जीव अशु माना गया है ब्रह्मांश होने से जीव-बह्म की अद्वितता सिद्ध होती है पुष्टि-सृष्टि के जीवों के चार प्रकार होते हैं--शुद्ध-पुष्ट-भक्त, पुष्टिपुष्ट भक्त, मर्यादा-पुष्ट-मक्त और ए्र»ही-१'ट-भर शुद्ध पुष्टि-जीव भगवानकी नित्य लीला के भोगी हैं। भगवान्‌ के शरीर धारण करने पर वे भी साथ आते हैं जीवों के और भी भेद आचारय बल्लभ ने किए हैं; दुश, अज्ञ, व्यष्टि, समष्टि, पुरुष आठि जगत्‌--भगवान्‌ के सदंश से जगत की सृष्टि हुई है। इसमें आनन्द श्र चिद्‌ धर्मों का तिरोधान रहता है। ब्रह्म कारण है और जगत्काये | यह जगत्‌ शुद्ध ब्रह्म का अ्रविकृत परिणाम है और लय होने पर शुद्ध ब्रह्म ही हो जायगा ब्रह्म जगत्‌ का निमित्त और उपादान दोनों कारण है; सृष्टि की इच्छा से ब्रह्म गणितानन्द श्रक्तर ब्रह्म बनता है, फिर अक्षर ब्रह्म के चित्‌ रूप से जीव रूप पुरुष तथा सत्‌ अंश से प्रकृति का प्रादर्भाव होता है; फिर मह॒दादि तत्वों की सृष्टि होती है| अन्तर्यामी रूप से ब्रह्म इस अश्डरूप सृष्टि का संचालन करता है ! जगत्‌ ईश्वर कृत और संसार जीव की अविद्या, कल्पना अ्रथवा भ्रम से निर्मित है | जीव की मुक्ति में संसार का लय है, किन्तु जगत्‌ का लय नहीं माया--भगवान्‌ की यह शक्ति है, इसके विद्या और अविद्या दो भेद हैं संसार की रचना का कारण अविछा माया ही है। अ्विद्या जीव की है, इसे हटाने के लिए भगवान्‌ के अनुग्रह की आवश्यकता है। अध्यास? इसी का नाम है। गोलोक--पूर्ण पुरुषोत्तम के लीलाधाम का नाम गोलोक है। यह सत्र व्यापक है भगवान्‌ के अवतार के साथ ही वृन्दावन, ब्रज श्रथवा गोकुल के रूप में यह भी अबतरित हुआ था। यह माया के गुणों से स्वतन्त्र है। भक्त का यह परम लक्ष्यस्थान है . रास--श्रप्राकृत देहधारी रसरूप कृष्ण की अ्रप्राकृत गोपियों के साथ की तृत्यलीला का जो रससमूह है, वह रास है। नित्य रास गोलोक में मुक्तात्माओं के साथ होता है; अ्रवतरित रास ब्रज में कृष्ण-गोपियों का रास था और नैमित्तिक रास अभिनय रूप में कृष्णा-भक्तों द्वारा किया जाता है गोपी--ये कृष्ण की आनन्द-प्रसारिणी शक्तियाँ हैं | राधा भगवान्‌ के आनन्द की पूरा सिद्ध-शक्ति है। भक्तों के लिए गोपियाँ रसात्मकता सिद्धकराने वाली शक्तियों की प्रतीक हैं। ब्रज की गोपियों में अन्यपूर्वा या अविवाहिता, अनन्यपूर्वा या कुमारिकाएँ तथा सामान्या या यशोदादि थीं इनमें से प्रथम दो ही रास की श्रधिकारिणी थीं। मोक्ष का साधन--7”८ सेवा के तीन फल हैं : भगवान्‌ की नित्य लीला में प्रविष्ट होना, भगवान्‌ के श्री अंग अथवा आभूषणादि बन जाना, बेकुरठे(दि में अवस्था पाना इसे ही वन्‍्शंभ-रत्प्र'य में मोक्ष कहा गया है। यह मोह

पद रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिन्दी-साहित्य पर उसका प्रभाव

भगवान के प्रति माहात्म्य-श्ञान रखते हुए सुदद और सर्वाधिक स्नेह-युक्त-मक्ति द्वार लम्य है। भक्ति प्रभु-अनुग्रह-साध्य है | इसके तीन भेद हैं : पुष्टि-पुष्ड-भक्ति, मर्यादा-पुष्टि-भक्ति, प्रवाह्ी-पुष्टि-मक्ति | इनमें पुष्टि-पुष्ट भक्ति सर्वश्रेष्ठ हे | 'इसे पाने के लिए भगवान्‌ की तन-मन-घन से सेवा करनी चाहिए। भगवत्कृपा उत्कट प्रेम से मिलती है। भगवान्‌ से मिलन की विकलता और विरहभाव की स्थिति प्रेम-भक्ति की पुष्टि के लिए शआ्रवश्यक है। यह प्रेम तीन अ्रवस्थाओं वाला है--स्नेह, आसक्ति श्रोर व्यतन स्नेह से लोक के प्रति होने वाले राग का नाश होता है, आसक्ति से ग्रह में अरुचि होती है श्रौर व्यसन से प्रेम की कृतार्थता मिलती है। इसके लिए ब्रह्म-सम्बन्ध आवश्यक है। श्रागे चल कर बल्‍लभ-सम्रदाय में अष्टयामीय पूजा, &ंगार, सजावट, कीर्तन आदि का भी विस्तार हुआ | आचार्य विट्ठल ने भक्ति के मान्य ग्रन्थों के आधार पर साम्परदा- 'यिक-भक्ति-पद्धति को और अधिक विस्तृत एवं प्रौढ़ किया | समकालीन राजनैतिक परिस्थिति--रामानन्द के समय तक मुसलमानों को सत्ता भारत में स्थापित हो चुकी थी। सन्‌ १२०६ से लेकर १२६० ई० तक दिल्‍ली का शासन गुलाम-वंश के हाथ में था। सन्‌ १२६० में यह सत्ता जलालुद्दीन फिरोज्‌ द्वितीय के हाथ में चली गई श्रौर दिल्ली का सिंहासन खिलजी 'वंश के अधिकार में श्रा गया | सन्‌ १३२० (ई० में शासन में पुनः परिवर्तन हुआ और राज्यसत्ता गयासुद्दीन तुगृलक के हाथ में चली गई तुगलक वंश का शासन १४१२ ई० तक रहा | १४१२ ई० से लेकर सन्‌ १४५१ ३० तक 'सैयद वंश तथा १४५१ ई० से १५२६ ई० तक लोदी वंश का शासन रहा | इसी के पश्चात्‌ मुगलों के राज्य स्थापित हुए। रामानन्द जी के जीवनकाल में ( १२६६ ई०-१४१० ई० ) दिल्ली सिंहासन पर जलालुद्दीन फिरोजु, रुकुनुद्दीन इब्राहीम प्रथम, अलाउद्दीन मोहम्मद द्वितीय, शहाबुद्दीन उमर, कृतुबुद्दोन मुबारक, 'नसीरुद्दीन खुपरू, गयासुद्दीनतुगलक, मोहम्मद बिन तुगलक, फिरोज़ तृतीय, ठुग़नलक द्वितीय, अबूबक्र, मोहम्मद तृतीय, सिकन्दर प्रथम, महमूद द्वितीय, नशरत शाह और दौलत खाँ लोदी आदि बादशाहों ने राज्य किया। डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि “तु्कों का शासन धर्म से अधिक खनु- _ शासित होता था। बादशाह सीज्‌र और पोप के मिश्रित रूप से हुआ करते " थे। मूर्ति पूजा खए्डन, बलात धर्म-यरिवर्तन आ्रादि मुसलमानी राज्य के आदर्श यें। अपनी सम्पत्ति की रक्षा के लिए हिन्दुश्रों को जज्जिया भी देना पड़ता था : हिन्दुओं के घार्मिक उत्सव बन्द थे। कुछ बादशाहों ने नए मन्दिरों का निर्माण तथा पुरानों की मरम्मत भी रोक दी थी। जिन बादशाहों ने उलमाओं की नीति

/प

भूमिका &

का समर्थन किया उनकी प्रशंसा की गई, अलाउद्दीन और मुहम्मद तुग़लक़ ने उनका विरोध किया था, किन्तु उल्लमाश्रों ने उन्हें चैन से नहीं रहने दिया

बन्दर लोदी के समय में तो हिन्दुओं पर श्रत॑याचार करने का आन्दोलन-सा चल गया था। लोदी ने समस्त मन्दिरों को तुड़वा देने की आज्ञा दे रक्खी थी | मुसलमानी शासन में योग्यता की पूछ थी, बादशाह की इच्छा प्रधान थी | उच्चपदों पर मुसलमान ही रकक्‍खे जाते थे, अधिकांश जमीन भी उन्हों के हाथ में थी, हिन्दू श्रमिकों की भाँति रहते थे | फल्त: हिन्दू निघनता एवं संघर्ष का जीवन बिताते थे, उनका जीवनस्तर बहुत नीचा हो गया था उन्हें ऊँचे पद कभी नहीं मिलते थे और उधर शासकबग्ग में विलासिता का पूरा पोषण हुआ | फलतः १४ वीं शताब्दी के अन्त तक शक्ति और पौरुष का ह्ास हो गया | हिन्दओं को दबा कर श्रोर कभी ५० प्रतिशत तक कर लेकर आनन्दो पभोग करना उनका काम हो गया फलतः हिन्दश्नों की प्रतिमा बौनी दो गईं फिर भी, रामानन्द, कबीर, जैसे वेष्णवभक्त इसी काल में हुए ।?*

सामाजिक परिस्थिति--डा० ईश्वरी प्रसाद के अनुसार" मुसलमानी राज्यों में मुसलमानों को अधिक सुविधाएँ प्राप्त थीं। उनकी समस्त धार्मिक मांगों को राज्य पूरा करता रहा, फिर भी, कुछ बादशाहों ने केवल उच्चकुल के लोगों को दी ऊँचे पद दिये थे... ... १९ वीं-१३ वीं शताब्दी में शराब और जुआ का अधिक प्रचार था। बलबन श्रौर अलाउद्दीन ने इन्हें रोकने को आज्ञाएँ दीं, किन्तु बाद के राजाओं ने उनके आदश्श का पालन नहीं किया | दरबारों में सुन्दर लड़कों, स्त्रियों आदि का मूल्य कभी-कभी--कुतुबुद्दीन मुबारक के समय में--१०० से २००० तक था'। सम्पत्ति-वृद्धि के साथ ही मुसलमानों में अंधविश्वास और अज्ञानता भी बढ़ी | दासता एक सामान्य बात हो गईं। मुसल- मानी औरतों को शहर से बाहर जाने की आशा थी राजनीतिक सत्ता के छिन जाने से हिन्दुओं का पतन हो गयी था। मुसल- मानों को ग्लेच्छु कह कर पुकारने वाली हिन्दू जाति का दृष्टिकोण अब बदल गया | हिन्दश्ों को ऊँचे पद नहीं मिलते थे। अलाउद्दीन के समय म॑ खुट बलहर, चौधरी तथा मुकद्दम श्रादि द्वाबा के हिन्दू बहुत ही दीन हो गए | उनके घरों में सोना-चाँदी के 'तनका? अथवा 'जीतल” देखने को भी नहीं मिलता था | वे घोड़े पर चढ़ नहीं सकते थे, अ्रस्त्र॒ उन्हें नहीं मिलता था, अच्छे कपड़े

१--मे|डिवल इंडिया, डॉ० ईश्वरी प्रसाद ६१० ५०२-५१४ | २०-वेही, ९० ५१४ |

३० रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिन्दी-साहित्य पर उसका प्रभाव

नहीं पहन सकते थे और पान खा सकते थे फिरोज ने ब्राह्मणों पर भी ज़ज़िया लगा दिया था। सिकन्दर लोदी के समय में तो यह दमन अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था |

इब्नबतूता के अनुसार चौदहवीं शताब्दी में पढ़ने-लिखने वाले वर्ग की प्रति- डा घढ चुकी थी | मुहम्मदतुग़लक शेज़ और मौलवियों तक को उनके बुरे कामों के लिए. दण्ड देता था। दासता उस काल में सामान्य बात थी | दासों की लड़कियों को रखना फ़ैशन हो गया था। लोगों की प्रब्नत्ति धनसंग्रह की ओर थी, रुपया वसूल करने के लिए लोग राजा की शरण भी जाते थे |

सती की प्रथा प्रचलित थी, किन्तु राजाज्ञा आवश्यक थी | श्रपराध्रियों को कोड़ा मार कर गधे पर चढ़ा कर घुमावा जाता था। योगियों की करामातों को भादशाह तक देखते थे | वैवाहिक बन्धन की सदैव रक्षा नहीं होती थी। प्ल्रियों को अलग रखने की प्रथा थी, किन्तु लड़कियों के लिए भी शिक्षालय थे | दक्षिण भारत में परिश्रम से ज्ञान प्राप्त कर लेने की श्रोर लोगों की रुचि थी | आह्मणों का समाज में सम्मान था और देवताओं पर सिर चढ़ाने की प्रथा थी | सती प्रथा का प्रचार वहाँ भी था |

विभिन्न परिस्थितियों का रामानन्द स्वामी पर प्रभाव--दाशतरक मतवाद को दृष्टि से रामानन्द स्वामी रामानुजारा्॑ के विशिष्टादैत से श्रधिक प्रभावित थे फिर भी “तत्ववाद! उनके लिए. अधिक महत्वपूर्ण नहीं था, उनके युग को तलवाद की आवश्यकता भी थी। रामानन्द ने रामानुज के 'लक्ष्मीनारायण? के स्थान पर सीताराम? को अपना आराध्य बनाया और रामा- नुज के आचार-विचार का परित्याग कर उन्होंने श्रपनी भक्तिपद्धति को बहुत ही सरल किया रामानुज के विपरीत उन्होंने भक्ति का द्वार हिन्दू-मुसलमान, “झयशद्र, पुरुष-ल्ली सभी के लिए. उन्मरक्त कर दिया | इस दृष्टि से उनका इृष्टिकोश बहु ही क्रान्तिकारी था | उनके थुग में किसी प्रकार के समनन्‍्वय- धान मत को आवश्यकता थी | मैकालिफ़ आदि विद्वानों के मत से रामानन्द को विचारधारा को काशी के मुल्लाओं ने भी प्रभावित किया होगा | किन्तु, भारत के लिए यह उदारता और यह क्रान्ति नई नहीं थी गौतमबुद्ध, महात्वीर स्वामी तथा वेष्णवाचार्य वासुदेव और स्वयं श्रालवार भक्तों का भी दृष्टिकोण

: इतना ही उदार था। रामानन्द बस्तुतः इन्हीं महान्‌ सुधारकों की परम्परा में

आते हैं। उनके प्रखर व्यक्तित्व ने ही क्रान्तिकारी कबीर और सुधारवादी » तुलसी _को जन्म दिया था|

जगदगुरु श्रीरामानंदाचायजी महार

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प्रथम अध्याय

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा

रामानन्द स्वामी के जीवन, उनकी रचनाश्रों तथा रामानन्दीय सम्प्रदाय के इतिहास के अध्ययन की आधार भूत सामग्री :--

क--आन्तरिक आधार--प्रधान सामग्री

ख--प्राचीन ग्रन्थ--स्वामी जी के जीवन एवं सम्प्रदाय पर प्रकाश डालने वाले ग्रन्थ : मुख्य सामग्री :

ग--आराधुनिक ग्रन्थ--१--जीवन चरित सम्बन्धी साम्प्रदायिक ग्रन्थ २---हन्दी साहित्य के इतिहास तथा अन्य प्रमुख

घधामिक इतिहास

घ--स्थानों की सामग्री-- *

झछ--जनश्रुतियाँ

च--सम्प्रदाय के उ्त-सम्ईन्धी ब्यन्ध |

क--आन्‍न्तरिक आधार--

रामानन्द स्वामी के नाम पर यों तो अनेक गन्थ प्रचलित हैं, किन्तु लेखक ने केवल श्री वैष्णवमताब्जभास्कर: तथा “श्री रामाचन पद्धति? को ही स्वामी जी कृत माना है। यहाँ उन्हीं के श्राधार पर स्वामी जी के व्यक्तित्व पर प्रकाश अलमे वाली सामग्रो का विवेचन किया जायगा | --

अपने जीवन के सम्बन्ध में स्वामी जी ने इन ग्रन्थों में कोई उल्लेख नहीं किया है, केवल यत्र-तत्र ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं जिनसे यह स्पष्ट ही जाता है कि स्वामी जी रामाइलन्तन्यशाव से ही पहले सम्बद्ध थे। अपने शिष्य सुरसुरानन्द के दस प्रश्नों का उत्तर देते हुए वे अपने पूर्वांचार्यों का स्मरण करते हैं : के

रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

प्राचार्याचा येवर्याव यतिपतिसहितान्‌ सादर तान्‌ प्रणभ्य सन्यक्दास्त्रानसारं गुरुवरवचसा प्रोच्यते श्रुयतांततू | इसकी टीका जन्मस्थान ( अयोध्या ) के परिडत श्री रघुवरशरुण जी ने यो की है :--- यतीनां सन्यासिनां पतिर्येतिपतियंतीन्द्रः श्री रामानुजः | प्राचार्या+ श्री शठकोपप्रभ्नतयः आचार्याः स्वगुरुवः इसी प्रकार अन्यन्न रामानन्द स्वामी ने रामानुजीय पंचसंस्कारान्तर्गत शंखचक्र आदि मुद्राश्रों का भी स्मरण किया है : तप्तेनमूले भुजयो: समंकनं चक्रेण शंखेन तथोदू ध्वपुर्ड्रम्‌ श्रुतिश्रुत॑ नाम मंत्र-माले संस्कारभेदाः परमाथहेतवः * वैष्ण्वों को, आगे चल कर, स्वामी जी ने आदेश भी दिया है कि वे “श्री भाष्यादि! का अध्ययन कर अपना कालक्षेप करें :-- शक्तेः श्रीभाष्यतश्च द्रविड्मुनिकृतोत्कृष्ट दिव्ये: प्रबन्धेः | कालक्षेपो विधेयः सुविजितकरणेः स्वाकृते्यावदन्तम्‌ ॥* यही नहीं, अपने “श्री रामाचन पद्धतिः स्मक ग्रन्थ में स्वामी जी ने श्रपनी गुरु-परम्परा भी दे दी है| यह परम्परा दो स्थानों से प्रकाशित “री रामार्चन पद्धतिः में दो प्रकार से प्राप्त होती है। पण्डित रामनारायण दास द्वारा सम्पादित ग्रन्थ में वह इस प्रकार है--- लक्ष्मीनाथसमारस्भां 'नाथयामुनमध्यमाम्‌ | अर्मदाचाय पय न्तां बन्दे गुरु-परम्पराम || श्रीरामचन्द्रं सीतांच सेनेशं शठद्वेषिणम्‌ भार्थ पुण्डरीकाक्ष राममिश्र॑ं यामुनम्‌ पूरे रामानुजम्‌ चेव कूरेशं पराशरम्‌ || लोक देवाधिपं चेव श्री शैलेशं बरबरम्‌ ||

१-- भी वैष्णव मताब्जमास्कर:', सम्पादक--भगवदा चार्य, पृष्ठ पाठान्तर: श्रीमांस्त- 2 इज मं : सम्पादक पूं० रामटहलदास, पृष्ठ २।

5--ओ वेष्णवमताब्जभारकर:', सम्पादक, रामटहलदास, पृष्ठ ६३

रण वही, पृष्ठ &

४-वचही, एष्ठ २८

नरोत्तमं च॒ गंगाध सदं रामेश्बरं तथा द्वारानन्द देवं श्यासानन्दं श्रुत॑ तथा ।॥ चिदानन्दं॑ पूण श्रियानन्दं हषेक॑। राधवानन्दशिष्यं श्री रामानन्द संश्रये ॥*

यह परम्परा यों होगी : श्री रामचन्द्र---सीता--सेनेश---शठद्वेषी---नाथ---प्रुएड- रीकाज्ष--राममिश्र-- यामुन--पूएण---रामानुज--कु रेश---पराशर---लोक-दे वा- धिप--शैलेश---बरबर--नरोत्तम--गंगाधर ---सद--रामेश्वर--द्वारानन्द---देव -श्यामानन्द--श्रुव--चिदानन्द--पूएु--श्रियानन्द --- दृषेक--राघवानन्दू--- रामानन्द

पं० रामटहल दास द्वारा सम्पादित प्रति में यह परम्परा इस प्रकार है :---

गंनावनउ बुबोद या नखनिथ श्रीराघवानन्दनम्‌

श्री मंतंमुनिपंगव॑ हरियानन्दं शथ्रियानन्दकम्‌ |

देवानन्दसथों सदा गुणगणोराढयं मुनीशं वरम्‌ |

द्वारानन्दमुर्नि मुनीश्वरवरं रामेश्वरं सदवरम्‌ ||

श्रीमन्‍्त॑ मुनिवर्यमेव सदाचाय गंगाधरम

वन्य त॑ पुरुषोत्तमं सदय॑ देवाधिपंसद्बरम्‌ ||

श्री विद्यागुणवारिधिं मुनिवर श्रीमाधवाचायकम्‌ |

बगाग्यादिनिधि गुणैकनिलयं श्रीवोपदेव कविम्‌

कूरेशं॑ यतिराजमद्भुतगुणं रामानुरजं सद्वरम |

पूर्ण श्री मुनियामुनं मुनिवर श्रीरासमिश्र॑ तथा।।

श्रीमन्‍्तं मुनिपुएडरोकनयन नाथ मुनि श्री शठ--

द्वेप श्री प्रतनापति जनकजां राम॑ सदा संश्रये ॥* इस परम्परा के अनुसार रामानन्द्‌ से पूव के गुरुवों का क्रम इस प्रकार होगा रामानन्द--राघवानन्द--5 से सिननन-शिदाविन्घ--+ बी.“ ++-द्वारानन्द रा से श्वर “-सदाचाबे--गंगाघर--पुरुषोत्तम--देवाधिप--- माधवाचाय--वोपदेव--कू रेश “अवानज--एए--व' कुननुनि--भीराम मिश्र--परणडरीकाक्षु--नाथमुनि--- शठकोप--प्रतनापति---घीता--राम

ऊपर दोनों ही पाठों में पं० रामटहुलदास का पाठ अधिक समीचीन है

-- और रामार्च॑न पद्धति: सं० पंडित रामनारायणदास, पृष्ठ २-३ २-श्रोरामारचनपद्धति : सं० रामटइलदास, एष्ठ २४-३५ |

ड् रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-सांहित्य पर उसका प्रभाव

प॑० रामनारायणुदास की प्रति में श्री रामानन्दं संश्रये! उक्ति रामानन्दकृत तो नहीं ही हो सकती | जहां तक इन परमराश्रों के मान्य होने का प्रश्न है, इसका विवेचन रामानन्दी-सम्प्रदाय का इतिहास बतलाते हुए किया जायगा। यहाँ इतना तो कहा ही जा सकता है कि रामानन्द राघवानन्द के शिष्य थे और उनका पूर्व सम्बन्ध रामानुज-सम्प्रदाय से था।

स्वामी रामानन्द ने राघवानन्द जी को पूण जानी, श्रह्मनिष्ठ, बाग्मी स्वाध्यायशाली, सदवन्ध, सदय, सहृदयों द्वारा अ्चित, सदभुणयुक्त श्रादि कहा हैं: गाढ़ाज्ञानतमोनिरासतरणि त॑ ब्रह्मनिष्ठं तपः। स्वाध्यायत्रतशालिनं पटुतरं मध्येवरं वाग्विदाम्‌ ॥| सद्वन्ध' सदय॑ सदा सहृदयेरच्य कवि सदुगुणे-- राचाय शरण शरण्यमनघं स्वीय॑ प्रप् 5$निशम्‌ || * ख-प्राचीन ग्रन्थ-- १--प्रसंग-पारिजात--चेतनदास कृत | २--भक्तमाल--नाभादास ; टीकाकार--प्रियादास, रीवांनरेश *प्लराजनिंद, पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र, रूपकला ३--श्रगस्त्य-संहिता ४--भविष्यपुरुण ५--वैश्वानरसंहिता ६--वाल्मीकि- पंहिता ७--रसिकप्रकाश भक्तमाल--महन्थ जीवारामजी कृत : टीकाकार जानकी रसिकशरण ८--मध्ययुग के अन्यग्रंथ प्रसंग-पारिज्ञात-- प्रसंग-पारिजात”* की सूचना हिन्दी संसार को अक्टूबर १६२२ को हिन्दुस्तानी में श्री शंकरदयालु श्रीवास्तव ने दी थी। श्रीवास्तव जी के अ्गसार गोरखपुर के मौनी बाबा ने अ्रयोध्या के महात्मा बालकराम विना- यक को इस ग्रन्थ का ज्ञान दिया था और साथ ही उसका अर्थ भी लिखा दिया था | मुझे इस अन्य की दो प्रकाशित प्रतियाँ मिली हैं, एक के टीकाकार हैं ५० भगवतदास मिश्र, जिसमें मूल के साथ टीका भीदी हुई है, दूसरी के सम्पादक हैं परिडत रामस्क्ञा त्रिपाठी “निर्भीकः ) जिसमें केवल टीका दी गई है दोनों ही ग्रन्थों में टोका की भाषा समान है अ्रयोध्या मशिपर्व॑त के प्रसिद्ध : प़मायणी महात्मा पं० रामकुमार दास के पास इस ग्रन्थ की एक हस्तलिखित

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१--वहीं, पृष्ठ ३२५।॥ ९-- मसग-पारिजात', टीकाकार पं० भगवतदास मिश्र, ओरामनाम मंदिर, अयोध्या

प्रति है, जिसे वे विनायक जी की ग्रति की प्रतिलिपि बतलाते हैं | इस प्रति में काट-छांट बहुत श्रधिक है। स्व प्रथम मैं इस ग्रन्थ द्वारा प्राप्त रामानन्द जी की जीवनी को उपस्थित करूगा और इसके पश्चात्‌ उसकी प्रामाणिकता पर विचार करूगा | अन्थ की भाषा नितान्त ही दुर्बोध्य है, अतः विषय-बस्तु टीका के आधार पर ही प्रस्तुत की जा सकेगी

“प्रसंग-पारिजात” की रचना देशवाड़ी पग्राकृत में गणभाषा के सांकेतिक शब्दों के योग से 'अदणा? छन्द में दिव्यसद्याय से की गई है। इसके लेखक स्वामी रामानन्द के एक शिष्य चेतनदास कहे जाते हैं। स्वामी जी की वर्षी (ग्रन्थ के अनुसार सं १५१६ वि० ) पर काशी में उपस्थित रामानन्दीयों ने लेखक से स्वामी जी के जीवन के प्रमुख अंशों को चमत्कार पूर्ण शैली में लिखने का अनुरोध किया ।* चेतनदास ने इस बृत्तान्त को सामान्य लोगों से बचाने के लिये जनभाषा में लिख कर ( गणमभाषा ) में लिखा | इस ग्रन्थ से स्वामी जी के जीवन के सम्बन्ध में हमें निम्नलिखित बारें ज्ञात होती हैं :--

प्रयाग में जन्म का कारण :--यवनों के श्रत्याचार से तसस्‍्त हृषीकेश में एक सारस्वत दम्पति की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान्‌ ने १२ वर्ष तक के लिये उनका प॒न्र होना स्वीकार किया। कालान्तर में वही दम्पति प्रयाग में कान्यकुब्ज दम्पति के रूप में अवतरित छुआ | रामानन्द के रूप में भगवान्‌ ने ग्रवतरित हो उन्हें कृताथ किया।

रामानन्द की माता का नाम मुरवी था, जो काशी के एक प्रसिद्ध त्रिवेदी की कन्या और प्रसिद्ध नैयायिक ओंकारेश्वर की बहिन थीं। पिता का नाम केवल वाजपेई जी दिया गया है| ये प्रयाग निवासी थे स्वामी जी की जन्म-तिथि माघ कृष्ण भ्गुवार दी गई है | दीकाकार पं० भगवतदास मिश्र का कददना है कि यह तिथि सं० १३२४ वि० की है। कबीर का जन्म, इस ग्रन्थ के अनुसार, ११५४५ वि० में हुआ था। बालक कबीर किसी का दूध नहीं पीता था| श्रत: अनन्तानन्द ( अंग्रेज लेखक तथा कबीर पंथियों के अनुसार अ्रष्टानन्द ) द्वारा गुप्त रीति से स्वामी जी ने उसके पीने के लिये ' सधामची बूटी भेजी | इससे यदि हम यह अनुमान कर लें कि उस समय तक स्वामी जी की आयु कम-से-कम ३१ वर्ष की रही दोगी, तो उनका जन्म सं० १३२४ में माना जा सकता है।

१>--बंही, छ्न्‍्द श्ण्

ध्‌ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

प्रमुख संस्कारों में अन्नप्रासन चोथे वर्ष पंचमी को सम्पन्न हुआ बालक को 'पायस” विशेष प्रिय लगा। कंणवेध उसी वर्ष महाशिवरात्रि को, और उपनयन आठवीं वर्षगांठ के सत्रहवें दिन माघ शुक्ल १२ को सम्पन्न हुआ |

बालक को रामायण, मनुस्मृति, भागवत आदि बाल्यकाल में ही कण्ठस्थ हो गए. | उपनयन के उपरान्त बालक काशी चला गया। वहां माता-पिता को भी जाना पड़ा। बारहवर्ष की अवस्था में 'काली खोह” की एक “विदुषधी? का

उत्तर देते हुए कुमार रामाननद ने आजन्म अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा की, क्‍ किन्तु पिता ने शांडिल्य गोत्रजा सालवी से उनका विवाह ठीक कर दिया | कन्या.

ने यह स्वप्न देख कर कि रामानन्द से विवाह हो जाने पर वह विधवा हो जायगी, रामानन्द के पास जाकर उनसे दीक्षा ले ल्ी। रामानन्द ने शंख फ्क कर उसे दीक्षा दे दी और देखते-ही-देखते उसकी ज्योति सूयमण्डल में मिल गई बालऋषि ( कुमोर ) भी अदृश्य हो गया। पुत्र-शोक से विहवल होकर मां तो दिबंगता हो गई, पिता भी मरणाथथ मणिकर्शिका जा रहे थे तभी दाक्षि- णात्य ऋषि राघवानन्द से उनकी भेंट हो गई और उनके समझाने पर भाजपेई जी का मोह दूर हो गया। इसके अनन्तर राघवानन्द जी ने तातियां शास्त्री, कमंठ जी, नवयुवक ब्रह्मचारी चतुर्वेदी जी तथा घर्मण जी की सहायता से रामयश का अ्रनुष्ठान किया | चेत्र सुदी एकादशी को यज्ञ समाप्ति के साथ रामानन्द्‌ प्रकट हो गए | स्वामी जी ने उन्हें वैष्णवी दीक्षा दे उनका नाम रामानन्द रक्खा ओर इच्छा मरण का वरदान देकर वे स्वयं चले गये इसके अनन्तर स्वामी रामानन्द पंचगंगा घाट पर स्थायी रूप से रहने लगे

आश्चर्यजनक घटनाएँ--स्वामी जी की शंखध्वनि सुन कर मुर्दों का जी उठना, नूरवेश में कलि का आ्राकर स्वामी जी को तारकमंत्र की दीक्षा देना, राजयदमा से पीड़ित एक राजकुमार का स्वामी जी की आज्ञा से गंगा में कूद्‌ पड़ना और सातवें दिन नीरोग होकर पुनः निकल पड़ना, स्वयं गंगा जी का स्वामी जी को पायस खिलाना, श्राश्रम में आने पर विरोधियों का अपना विरोध भूल जाना, शिवरात्रि को विश्वनाथ जी के मन्दिर का द्वार स्वामी जी को*देख कर अपने आप खुल जाना और ख्वय॑ शिवपावती का उनका स्वागत करना, शिशोदिया वंश की राजकुमारी शशि को उसके खोये पति पुन्‍्नू ( पुहुकर ) से मिला देना, गंगा में डबते हुए गंगू ब्राह्मण और उसके सेवक जफर को स्वयं भेगवान्‌ द्वारा जय स्वामी रामानन्दः कह कर बचाया जाना,

पर यह भविष्य वाणी होना कि जफर किसी दिन राजा हो जायगा, पाद्मतेश्वर

आश्रम पर आने

नामक शिष्य को स्वामी जी ने खेचरी मुद्रा में संभाला और प्राची को प्रह्माद के अवतरित होने के लिये माता बनने का आदेश'दिया, योग के चमत्कार द्वारा शैब सिद्धों को परास्त करना, साधु अन्तोलिया की भटकती हुई प्रेतात्मा का स्वामी जी द्वारा तारा जाना; आकाशमाग से आये हुए दाक्षिणात्य योगी कृपा- शंकर को आकाश में ही चाराई बिछा कर स्वामी जी के शिष्य अनन्तानन्द द्वारा चमत्कृत कर दिया जाना, अपना नाम जपने वाली एक वरशणिक द्वारा लायी गई शुकी को स्वामी जी द्वारा उसका पूव जन्म का किन्नरी रूप दिया जाना और उसका अुवर्लोक प्रस्थान करना, स्वामी जी की कृपा से एक अंधे साधु के नेत्र खुल जाना, स्वामी जी द्वारा कीटा परिडत को विद्या माया रूपी उनकी स्त्री ( चुपन्ना ) से मुक्त किया जाना, उनकी शंखध्वनि सुन कर अयोध्या में हिन्दू से मुसलमान बनाये गये लोगों का सरयू में स्नान करने के उपरान्त ही पंन्चमुद्रादि दिव्य संस्कारों से युक्त हो जाना, स्वामी जी का किसी वेदान्ताचार्य को साकेत धाम का दर्शन कराना, दो भ्रष्ट विद्याधरों को उनकी खोई पत्नियों से मिला देना, किसी अजामुखी कन्या को स््रीमुख प्रदान करना, तन्‍्त्रविद्या में निपुण बीनी डाकिनी को उसकी कामुकता से मुक्त कर देना, सिन्ध के विनय मुनि चौरासी वाले को विल्व-पन्र से वेद्मंत्र का उच्चारण करा कर स्वामी जी ने ब्रह्म-

ज्ञान दिया, इसी प्रकार किसी ब्रह्म-राक्षस को उन्होंने प्रेत-योनि से मुक्त कर दिया,

निम्बाकक संप्रदाय के कुछ साधुओं को एक बार कृष्ण रूप में और दूसरी बार रामरूप में दर्शन देकर तृप्त कर दिया, कबीर के प्रति काशी के परिडितों की ईर्ष्या को स्वामी जी ने शंख फंक्र कर थिटा दिया, चरणोदक भेज किसी पितृभक्त को जिला दिया, स्वय प्रकट हो एक सपदष्ट व्यक्ति को उन्होंने जीवन दान दिया, स्वामी जी के प्रभाव से हिन्दथ्ों को सतानेबवाले मुसलमानों का अजान देते समय गला ही बन्द हो गया, इसी प्रकार विभिन्न सम्प्रदाय वालों को उन्होंने वादरायण,

शंकर, व्यास, बोधायनादि के दशन करा कर चकित कर दिया, जगन्नाथपुरी में स्वयं॑ जगन्नाथ ने अटुक रूप धारण कर स्वामी जी का स्वागत किया, वहीं अमेयानन्द ने एक जलदीन सरोवर को जलमग्न कर दिया और कबीर ने सिन्ध्ु को आगे बढ़ने से रोक दिया, कांची में कबीर जुलाहे के वेष्णव होने पर जब्न

ब्राह्यणों ने आपत्ति की तब उनकी भोजन की पंक्ति में ही कब्रीर प्रकट होने लगे, हार कर ब्राह्मणों ने स्वामी जी से क्षमान्याचना की, हरिद्वार में स्वयं

नरनारायण ने स्वामी जी को दर्शन देकर उन्हें आगे बढ़ने से मना कर दिया,

एक लिंग हीन बच्चे को स्वामी जी ने पुसंत्व दे दिया, पश्चिम के रिलिहास्वामी

के सपराज चाकणूर और व्याधराज हाड़ा नामक दो शिष्यों को पशुयोनि से मुक्त

य्र रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

कर स्वामी जी ने उनके गुरु के पास भेजा | इसी प्रकार अनेक अ्रन्य चमत्कारों का उल्लेख इस ग्रन्थ में किया-गया है |

स्वामी जी के शिष्य--रैदास-श्रालस्य वश चमड़े का व्यापार करने वाले किसी बनिये से भित्ता ग्रहण करने के कारण एक ब्रक्मचारी स्वामी जी के शाप से अपना शरीर त्याग कर एक चमार के घर रैदास के रूप में उत्पन्न हुआ। पूव॑ संस्कारों के कारण वह आश्रम पर आकर स्वामी जी का शिष्य हो गया। उसे निम्न जातियों में भक्ति-प्रचार करने का आदेश मिला

अनन्तानन्द--पुष्कर ज्षेत्र में पुष्करण विप्रवंश में श्रवधू के औरस और सौरिया माता के गर्भ से संबत्‌ १३४३ वि» में कार्तिक पूर्णिमा शनिवार को स्वयं ब्रह्मा जी ने अवतार लिया। स्वामी जी से दीक्षा पाने पर उनका नाम अनन्तानन्द पड़ा | इन्हें ६४ पूव राम-ऋषियों का ज्ञान करा कर स्वामी जी ने परमार्थ तत्व की दीक्षा दी थी |

पाद्मतेश्वर--इन्हें स्वामी जी ने खेचरी मुद्रा में संभाला था | इनका अन्य कोई पता नहीं मिलता |

सेना--सेना नाई ने दात्षिणात्य जंगम स्वामी के बाल मूड़ कर चुटिया रख दी | इस पर दोनों में विवाद हो गया दोनों स्वामी रामानन्द के यहाँ आये | स्वामी जी ने दोनों को समझता दिया सेना रामानन्द का भक्त हो गया |

कबीर--ज्योतिमंठ के अ्रधिष्ठाता और प्रतीची देवांगना के संयोग से संवत्‌ १२५४ वि० ज्येष्ठ पूर्णिमा को प्रह्माद ने कबीर के रूप में श्रवतार ग्रहण किया | नीरूननीमा जुलाहे को बालक कत्रीर लहर तालाब पर मिला | मोमिन के पूछने पर बच्चे ने स्वयं कहा कि मैं बीरानन्द का दिव्या के जठर से उत्पन्न पुत्र हूँ मोमिन ने उसका नाम कबीर रक्खा | कबीर किसी का दूध नहीं पीता था, अ्रतः स्वामी जी ने गुप्त रीति से अनन्तानन्द को भेज कर सुधामुची बूटी बालक को चूसने को दी | फिर तो पड़ोसिन कमदिवी तथा गौ का भी दूध चालक पीने लगा बड़ा होने पर कबीर कण्ठी, माला, तिलक आ्रादि धारण कर अपने को रामानन्द का शिष्य कहने लगा | परिडतों को इससे द्वेष हुआ स्वामी जी के आ्राश्रम पर कबीर के तेज से सभी प्रभावित हुए। इन्हें निम्न जातियों में भक्ति प्रचार का आदेश स्वामी जी ने दिया था। स्राभी जी के निधन के समय कबीर १६० वष के थे | हि सुखानन्द--बैशाख सुदी शुक्रवार को काशी के अयम्बक शास्त्री की उज्जैन मे व्याही कन्या जाम्बवती को शंकर के वरदान से एक पुत्र उत्न्न हुआ युवा

ग्रध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा '

होने पर रामभारती से उपदेश लेकर वह नीची बाग में रहने लगा। किसी के एक दिन यह कहने पर कि 'तेरी आयु के केवल चार दिन शेष हैं, तू शीघ्र यमानन्द से दीक्षा ले ले”, वह गुरु की आशा से स्वामी जी का शिष्य हो गया उसका नाम सुखानन्द पड़ा |

सुरसुरानन्द--पैखम का ब्राह्मण भायूण, जो नारायण स्वामी द्वारा नारद भी कहा जाता था, एक दिन स्वामी जी की शंख-ध्वनि सुन कर आश्रम पर आकर नाचने लगा | स्वामी जी ने उसे अपना शिष्य बना लिया और उसका नाम मुर्सुरानन्‍्द रक्खा उसकी जन्म-तिथि बैशाख सुदी नवमी थी |

नरहयौननन्‍्दू---विन्ध्याटवी में टिघोड़ा के सिद्ध और महामाया के संयोग से उत्पन्न बालक ने अनाथ होकर स्वामी जी के पास आकर आत्मसमपंण कर दिया उसे सनत्कुमार का अवतार जान कर स्वामी जी ने श्रपना शिष्य बना लिया श्रौर उसका नाम नरह्याननन्‍्द रक्‍्खा

योगानन्दर--छष्टी के न्यायशार््री यजेशदत्त जी अपनी पत्नी के मर जाने पर स्वामी जी के शिष्य हो गए.। स्वामी जी ने उन्हीं का नाम योगानन्द रक्खा

पीपा--गांगरौनगढ़ के राजाब्यीपा को शक्ति ने प्रसन्न द्ोकर यह आज्ञा दी कि तुम नारायण के अवतार रामानन्द के पास काशी जाओ | पीपा के श्राश्रम पर आने पर स्वामी जी ने अनन्तानन्द द्वारा उन्हें कुएँ में गिर जाने को आशा दी, परन्तु जब पीपा कुएं में गिर पड़े तो उन्हें निकलवा कर स्वामी जी ने वेष्णवी दीक्षा दी बाद में पीपा विरक्त हो गए और बड़े ही सत्संगी साधु सेवी हुए . पदुमावती--तिरुमरि ग्राम के एक भक्त दस्पत्ति के घर कमल से पद्मावती का जन्म हुआ, जो काशी श्राकर स्वामी जी की शिष्या हो गई | वह दूसरी लक्ष्मी ही थीं।

भावानन्दू--विट्डल नाम के दक्षिणी ब्राह्मण को स्वामी जी ने शिष्य बना कर उसका नाम भावानन्द रक्खा | ये जनक के अंशभव थे | भावानन्द को आती जी ने उनकी पत्नी से मिला कर गहस्थ भी बना दिया |

स्वामी जी की दिग्विजय :--पीपा के निमन्त्रण पर स्वामी जी पहले गाँगरौन गढ़ गए. वहाँ कुछ दिन रद्द कर वे जगन्नाथ धाम गए। जगन्नाथ जी ने बटु रूप धारण कर उनका स्वागत किया | उसके अनन्तर रामेश्वर जा- कर स्वामी जी ने शिष्यों सहित मन्दिर में प्रवेश कर शंकर के दर्शन किये | वहाँ उन्होंने मन्दिर का द्वार वैष्ण॒वों के लिये खुलवा दिया और शैबों तथा वैष्णवों में

संधि स्थापित की | उन्होंने उस मंदिर को रामोपासकों का मंदिर बताया, और चलते समय शैबों के द्रोह को शान्त करने के लिये योगानन्द को वहीं छोड़ दिया। इसके अ्रनन्तर स्वामी जी ने विक्यनगर के राजा बुककाराय तथा उनके मन्त्री विद्यारए्य स्वामी का आतिथय ग्रहण किया राजा ने उनकी पालकी में कन्धा भी लगाया। जमात दिन तक टिकी रही | खूब भण्डारा होता रह | इसके पश्चात्‌ स्वामी जी कांची की ओर बढ़े वर्ण विचार के पालक कांची के ब्राह्मणों ने स्वामी जी को जमात? में कबीर और रेदास को देख कर घृणा की बातें की | वहाँ के प्रजेश विद्याधर ने स्वामी जी का स्वागत किया, पर ब्राह्मणों के भय से जनता पास आई पीपा की ज्ल्ी सती सीता को गोदा देवी मे 'जुलाहे को जोय” कह कर संबोधित किया | इस पर सती के शाप से वह पृथ्वी में समा गईं। इतना ही नहीं, जब-जब आचारी आह्मण भोजन करने को बैठने लगे, तब-

तत्र उन्होंने अपने मध्य में कबीर को पाया हार कर वे स्वामी जी की शरण आये सती ने फिर भी लोगों को शाप दे ही दिया कि यहाँ से कताई-बुनाई

मिट जायगी और तुम लोग दरिद्ध हो जाश्रोगे | विद्यारण्य स्वामी तथा विजय-

नगर के राजा के आग्रह से स्वामी जी ने इस शाप का समाधान यह कह कर

किया कि इस समुद्र तट पर गोरा वणिक समाज आकर इस देश को चरखे-

करथघे से हीन करके कंगाल कर देगा | तब कबीर की ज्योति वशिक कुल में

'मोहनदास” के नाम से उतर कर रामनाम के प्रचार के साथ ही करघे-चरखे का

भचार कर इस देश का उद्धार करेगी। फिर विद्यारण्य स्वामी के यह पूछने पर

कि “वनों के कारण जो धर्मग्लानि हो गई है वह कैसे मिटेगी स्वामी जी ने

कहा कि पंजाब में जनक जी, बंगाल में पधाभक्त गीताचार्य जी तथा बाल्मीकि

और हनुनान्‌ आदि अवतरित होकर चारों कोनों पर धर्म की व्यवस्था करेंगे |

फिर स्वामी रिद्यारण्य जी स्वस्थान चले गए | तत्पश्चात्‌ स्वामी जी ने श्री रंगम्‌,

डारका, आदि की यात्राएँ की। द्वारका में पीपा यादवराज कृष्ण के दशनाथ

समुद्र में कूद पढ़े श्री कृष्ण ने वहाँ उनका स्वागत किया ओर शंख चक्र की

छाप देकर स्वयं तट तक पहुँचाया

फिर जमात सधुरा बृन्दाबन होती हुई, श्रीकृष्ण छवि का रसास्वादन

करती हुई हरिद्वार पहुँची | " नोरायण ने यहाँ स्वामी जी को दर्शन देकर आगे

बढ़ने से रोक दिया वहाँ से स्वामी जी इन्दाबन लौट आये | कुमार-कुमारि-

काओं को उन्होंने एक बहुत पड़ा भोज दिया। शयाम-श्यामा? भी बेष बदल कर

उस भोज में सम्मिलित ड7 | इस समय योगानन्द भी गये थे | तदनन्तर

चित्रकूट आकर स्वामों जी ने देव देवियों का स्वागत अहण किया | चार मास

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा ११

रह कर वहाँ से जमात प्रयाग आई | एक रात रह कर स्वामी जी काशी गये उन्होंने वहाँ एक बहत बड़ा भण्डारा दिया,।

विपक्षियाँ पर स्वासी जी का प्रभाव :--श्रंगेरीमठ के शह्ठराचार्य भारती तीथ तथा उनके भाई माघवाचारय श्राश्रम में आते ही आत्मविभोर होकर स्वामी जी का चरणस्पर्श करना ही चाहते थे, तभी उन्होंने उनके महत्व का स्मरण करा कर साथवाचाय को गढ़ ज्ञान विया, तथा वेदों के भाष्य करने की शक्ति भी दी | शंकराचाय इससे सन्तुष्ट हो गये | रसूल की कन्या फातिसा श्राश्रम म॑ आकर स्वामी जी के चरणों की धूल रसूल के लिये ले गई स्वामी जी ने पाचरमुनि, तथा विद्यारण्य स्वामी को तत्व-ज्ञान दिया क्षीरेश्वर भट्ट को स्वामी जी ने इंशावास्थमिदं सर्व! का उपदेश वठिया | शेव-सिद्धों को स्वामी जी ने योगबल से परास्त किया, योगी कृपाशंकर को तो उन्होंने तत्व- ज्ञान भी दिया इसी प्रकार इ्बनूर ओर तकी से बारह शर्ते मनवा कर स्वामी जी ने मुल्लाञओरों को हिन्दओं पर अत्याचार करने से रोक दिया | गोहिण- नाथ को स्वामी जी ने प्रेम-योगी बना दिया तथा मीमांसक चिपलूशुकर को शह्ु बजाकर ओर विनयमुनि चौरासी वाले को विल्ब पन्न से वेदमंत्र उच्चरित करवा कर तत्व-ज्ञान दिया | इसी*प्रकार भाऊ जी शास्त्री तथा अन्य विद्वानों को एक साथ ही अद्वित , विशिष्टाह्वेत, शद्भाद्वेत, देत आदि पर प्रवचन दे कर संतुष्ट किया और उन्हें मह॒पि बादरायणु, शंकर, शुक, विज्ञान-भिक्षु, श्री कण्ठ- शिवाचायं, लक्ष्मणाचायं, भास्कराचायं, श्रीपति आचाये, मध्वाचाये, विष्णु स्वामी, निम्बाक तथा बोधाथन पुरुषोत्तमाचाय के शिष्य सारण के दर्शन भी कराये समकालीन व्यक्ति--समकालीन व्यक्तियों में कुछ प्रसिद्ध नाम ये हैं :-- श्र गेरीमठ के शंकराचार्य भारती तीथ तथा उनके भाई माधवायाय, गंगू तथा उसका सेवक जफ़र ( हसन गंगू संवत्‌ १४०४ वि० ), पाचर मुनि, विद्यारण्य स्वामी, क्षीरेश्वर मट्ठ, काशी के विश्वनाथ परिडत, अयोध्या के हरिसिंह देव के भतीजे गजसिंह, ( दरिसिंह सं० ११८१ बवि० बैशाख सुदी १०, शनिवार को जूनाखां तुग़लक के भय से तराई चले गये। उनके पचास वध बाद गजसिंह स्वामी जी से मिला--टीकाकार ) इब्बनूर और तक़ी, खुसरू, विजय नगर का राजा बुक्काराय, निजामुद्दीन श्रोलिया | सम्प्रदाय का विस्तार--कऋत्नीर और रैदात को शअ्रन्त्यजों में भक्ति-प्रसार करने का आदेश स्वामी जी ने दिया था। उनकी मृत्यु के उपरान्त अनन्तानन्द्‌

श्र रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

ने दसों दिशाओं में उनके दश शिष्यों को नियुक्त कर सम्प्रदाय का विस्तार किया | श्रनन्तानन्द स्वयं काशी रहे | स्वामी जी का साकेत गमन--हंस श्रौर कबूतर के रूप में आये हुए. अह्य और यम से मृत्यु संकेत पाकर स्वामी जी ने सं० १५१५ विक्रमी, मधुमास शुक्ला प्रतिषदा को शनिवार के दिन यज्ञ-कुण्ड स्थापित कर तारकमंत्रराज का अनुष्ठान कराया | नवमी सोमवार को वे साकेतधाम चले गये। आश्रम पर केवल दैनिक कृत्य की वस्तुएं तथा खड़ाऊँ रह गए!। शोकाकुल जनता को कबीर ने आश्वासन दिया। मध्यान्ह में श्राकाश में शंख-ध्वनिं हुईं | सभी का मोह दूर हो गया | सभी ने स्नान किया जल का स्पर्श कर चरणपाटुका पत्थर की हो गई | श्री मठ? में उसी की स्थापना कर दी गई | प्रसंग-पारिजात! की प्रामाशिकता--ँ्रसंग पारिजात? के अध्ययन से यह रूष्ट हो जाता है कि यह उस काल की रचना नहीं है जिस काल की रचना इसे हिन्दी के विद्वान मानते श्राये हैं | इस ग्रन्थ के तथाकथित लेखक चेतनदास के अनुसार अन्थ की समाप्ति सं० १५१७ वि में हुई थी, किन्तु इसमें इसके बाद को भी घटनाओं का उल्लेख किया गया है, जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्रंथ किसी आ्राधुनिक लेखक की चमत्कारःप्रिय बुद्धि की कृति है। साथ ही समकालीन व्यक्तियों के संबंध में दी गई सूचनाएँ भी प्रायः तक॑संगत नहीं हैं कू-गांधी जी (मोहनदास--वणिक कुलोत्पन्न)--का उल्लेख इस ग्रन्थ की ६२ वीं अष्टपदी के अनुसार सती सीता ने जब विष्णुकांची के आचारियों द्वारा अपमानिता होकर उन्हें शाप दिया कि जुलाहे भक्त कबीर का अपमान करने के कारण यहाँ के वत्न उत्पन्न करने के सभी उपकरण नष्ट हो जाएँगे और देश बहुत द्रिद्र हो जायगा?, तब विद्यारण्य स्वामी के अनुरोध से स्वामी जी ने इस शाप का समधान यह कह कर किया कि शाप के प्रभाव से समुद्र के इसी तट पर गोरा वशिक समाज आकर यहाँ के चरखे करघे के व्यवसाय को नष्ट कर देगा फिर कबीर की ज्योति वणिक कुल में 'मोहनदास” के नाम से उत्पन्न होकर चरखे का प्रचार करेगी और रामनाम के महत्व को प्रकट करेगी।

ख--नानक, चैतन्य, तुलसीदास और समर्थ रामदास का उल्लेख--६२ वीं अष्टपदी में विद्यारण्य स्वामी के यह पूछने पर कि भारतवर्ष में जो. संकट काल रहा है उससे उत्पन्न धर्-ग्लानि कैसे मिटेगी ?” रामानन्द जी ने कहा कि पंजाब में जनक, बंगाल में राधाभक्त गीताचार्य॑, -चाल्मीकि और इनुमान्‌ अ्रवतरित होकर भारत की रक्ता करेंगे | टीकाकार के

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा १३

मत से यहाँ क्रमशः नानक, चैतन्य तुलसीदास और समथ रामदास का उल्लेख! किया गया है परम्परा से भी टीकाकार का यह मत मान्य: है | अतः यह स्पष्ट है कि संवत्‌ १५१७ वि० में लिखित ग्रन्थ का लेखक समथरामदास (सं०१६६५.. वि०--१७३े८ वि० )* चैतन्य ( जन्म सं० १५४२ वि० )", तुलसीदास ( जन्म सं० १५४८६ वि० ) तथा नानक ( जन्म सं० १५२६ वि० )*, शआदि का उल्लेख! नहीं ही कर सकता था। यह्द कद्दना कि ये अंश प्रत्निप्त होंगे, ठीक नहीं, क्योंकि. जिस भाषा श्रोर जिस छुन्द में इस ग्रन्थ की रचना हुई है, वह विश्व साहित्य में बेजोड़ है इस भाषा में इस ग्रन्थ के लिखने. का उद्देश्य ही यह था कि इस संकलन को तब तक छिपाया जाय जब तक इसमें उल्लिखित सभी घटनाएँ सही हों जाँय ।* ग--श्वामी रामानन्द तथा कबीर आदि का जीवन काजल-इस' अ्न्थ मे कबीर का जन्मकाल सं० ११५४५ वि० दिया गया है ओर अनन्तार ननन्‍द का सं० १३४३ बि० मं। कबीर के जत्यन्न होने पर स्वामी रामानन्द ने अपने प्रिय शिष्य अनन्तानन्द द्वारा सुधामुची? बूटी कबीर के चूसने के लिये' भेजी थी | अ्रतः यह अनुमान कर लेना स्वाभाविक ही है कि स्वामी जी उस समय तक सिद्ध भक्त हो चुके छोंगे यदि उस समय उनकी आयु ३१ व, ( बारह वर्ष की आयु में तो वे अन्तर्धान ही हो चुके थे | फिर रामयज्ञ से जब राघवानन्द ने उन्हें प्रकट किया तब वे पंच गंगा घाट पर रहने लगे थे टीकाकार के अनुसार स्वामी जी की जन्म तिथि सं० १३२४ वि० थी ) की मान ली जाय तो उनका जीवन-काल संं.० १३२४ वि० से सं० १५१५ तक पूरे १६१ वर्ष का ठहरता है। कबीर का जीवन काल कम से कम १६० वर्ष ( सं० १५१५ बि० में स्वामी जी की मृत्यु के समय वे जीवित थे ) और अनन्तानन्द का कम-से-कम १७२ वर्ष तक का ठहरता है | एक तो इन भक्तों का इतना. लम्बा जीवनकाल भी तकसंगत एवं सामान्य अनुभव सिद्ध नहीं, दूसरे रामानन्द का जन्म काल सं० १६२१४ वि० और कबीर का जन्मकाल सं० १३५४५ वि० मान लेना किसी भी श्रन्य प्रमाण से पुष्ट नहीं होता अगस्त्य-संहिता” एवं रामानन्द-

१--हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डा० रामकुमार वर्मा, पृष्ठ ७०३ २--बदी, पृष्ठ ३०१। ३--वही, पृष्ठ ३८५--जे० डब्लू० यंगखन को अमृतसर में लिखी गई एक जन्म

सारिणी मिली हैं जिसके अनुसार गुरुनानक महाराज जनक के अबतार थे---डा० वर्मा'

( यनसाइक्लोपीडिया अव्‌ रिलीजन एण्ड इथिक्स वा० 8 पृष्ठ १८१ ),। ४--प्रसंग-पारेजात! अ्रष्टपदी १०८, पृष्ठ १३६

श्ष 'रामानन्द सम्प्रदाय तथा द्िंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

सम्प्रदाय को मान्यताश्रों के आधार पर स्वामी जी का समय सं० १३५६ वि० से सं० १४६७ वि० तक माना नाता है, और कबीर की जन्म-तिथि अधिक से अधिक पहले ले जाने पर सं० १४२५ वि०* श्रौर उनकी मृत्यु-तिथि सं० १५०५ .वि०- में विद्वानों द्वारा विभिन्न प्रमाणों से सिद्ध की गई है। अ्रतः ध्रसंग-पारिजात” के लेखक के ये उल्लेख भी तक संगत नहीं प्रतीत होते

ध--इस पन्थ में रामानन्द के समकालीन जिन व्यक्तियों अथवा स्थानों का नाम लिया गया है, उनमें अनेक ऐसे हैं जो असाधारण, अतः गदे हुए, से प्रतीत होते हैं। निश्चय ही लेखक ने ये नाम भश्रन्थ को प्राचीन कृति बनाने के प्रयास में गढ़े होंगे | यहाँ कुछ नामों का ही उल्लेख पर्याप्त होगा | --मुरबी, सालवी, कालीखोह की विदुषी, तातियाँ शासत्री, पैखम, भायूण, कर्मठ जी, धरमण जी, टिघौड़ा, पुन्नू , पद्मतेश्वर, सुधावल ( स्थान ), सौरिया (अनन्तानन्द की माँ ), रिलिहा स्वामी, पाचरमुनि, कीटा पश्डित, चुपन्ना, लिउटा, बीनी, विनयमुनि, भाऊ जी शास्त्री, परिडत भरूकी, सर्पराज चाकणूर, व्यात्रराज हाड़ा आदि |

डः--प्रसिद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों में विद्यारण्य स्वामी, बुकक्‍्काराय, भारती- तीर्थ और उनके भाई (१) माधवाचार्य, तक, निजामुद्दीन औलिया, खुसरू, अयोध्या के हरिसिंह राजा का भतीजा गजसिंह, गंगू, जफर, गोहिणीनाथ आदि का उल्लेख इस ग्रन्थ में किया गया है विद्यारण्य स्वामी का जन्म सं० १३२४ 'वि० * में भाना जाता है। उन्होंने महाराज बीर बुक्क को विजयनगर के सिंहासन पर सं० १३६२ या १३६३ वि० में बैठाथा, और स्वयं उसके प्रधान मंत्री बने इस दृष्टि से विद्यारए्य स्वामी रामानन्द के समकालीन तो ठद्दरते हैं, किस्तु लेखक ने इनके सम्बन्ध में भी भूलें की हैं | विद्यारण्य स्वामी और माघवाचार्य को दो व्यक्ति" समझ लिया गया है, जबकि ये दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं।” फिर लेखक ने माधवाचार्य को 'भारतीतीर्थः का अनुज लिखा है। कुछ लोगों के अ्रनुसार भारती तीर्थ विद्यारए्य स्वामी का ही नाम था; किन्तु स्वयं 'विद्यारए्य स्वामी ने अपने अन्थ जैमिनीय न्याय माला! की टीका विवरण“ हें... * “कल मर “रज्परा, परशुराम चतुवेदी, पृष्ठ ७३३।

२--िंदी काव्य में निर्गुय सम्प्रदाय, पौतांबरदत्त वर्धवाल, पृ० ५७।

३--अल्थाण, भाग ११ सं० २--अद्वेत सम्प्रदाय के प्रधान-प्रधान आचारयों का परिचय, पृ० ६१५२-४३ | ४--वही, पृष्ठ ६५३

ग्रध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा श्र

भारतीती्थ को अपना गुरु लिखा है।' गोदिणनाथ, गोरखनाथ के शिष्य कहे जाते हैं।' गोरखनाथ का समय ईसा की दसवीं शताब्दी अथवा अधिक से अधिक ११ वीं के प्रारम्भिक भाग में अर्थात्‌ विक्रम की ११ वीं शताब्दी में ही कोई समय * माना जा सकता है। अ्रतः गोहिणनाथ का समय ११-१२ वीं शताब्दी या अधिक से अधिक १३ वीं शताब्दी का पूर्वाद्ध होना चाहिये अतः यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे रामानन्द स्वामी के समकालीन ही थे, कदाचित्‌ नहीं थे | प्रसिद्ध आलवार भक्तिन गोदा देवी के द्वारा सती सीता को गाली ( “जुलाहे की जोय” कह कर ) दिये जाने का उल्लेख किया गया है, किन्तु परम्परा के अ्रनुसार गोदा देवी का समय रामानुजाचार्य से भी पहले पढ़ता है।” इसके अतिरिक्त प्रत्येक महापुरुष या महत्वपूर्ण पदाधिकारी का खामी रामानन्द के सामने नतमस्तक हो जाना लेखक की कोरी कल्पना प्रतीत होती है | यह अवश्य है कि लेखक ने यथा सम्भव स्वामी रामानन्द के समकालीन व्यक्तियों का ही उल्लेख किया है। कुछ थोड़े से हेर-फेर के साथ रामानन्द के जीवन की व्यापक रूप-रेखा भी प्रायः वही है जो रामानन्द-सम्प्रदाय में मान्य है कबीर-रेदास के सम्बन्ध में प्रायः प्रियादास के ही समान उल्लेख किये गये हैं

च--इस ग्रन्थ में स्वामी जी के सम्बंध में अनेक असम्भव घटनाओं का संकलन किया गया है। इनका उहलेख ऊपर हो चुका है | कार्यकारण सम्बन्ध का बिना कोई विचार किये ही लेखक ने इन घटनाओं की कल्पना कर ली है | समकालीन लेखक चमत्कारपूर्ण घटनाओं की सृष्टि करते हैं, पर उनकी संख्या श्रधिक नहीं होती | अयोध्या के जीवित संतों की भी जीवनियाँ चमत्कारपूर्ण घटनाओं से सजाकर श्रव तक लिखी जाती' हैं

छ--जिस भाषा में इस ग्रन्थ की रचना हुईं है, उसकी कोई परम्परा नहीं मिलती | 'देशवाड़ी प्राकृत” में गणभाषा के सांकेतिक शब्दों के योग से अदणा' छुन्द में इसकी रचना हुईं है | जान पड़ता है कि प्राकृतों का शञान"रखने वाले किसी लेखक ने काल्पनिक शब्दों के योग से इसकी रचना की है | अयोध्या के अधिकांश रामानन्दी विद्वान्‌ इसे महात्मा 'बालकराम विनायक! की ही कृति मान्नलेन्हे उन्हें पाली-प्राकृत का अच्छा ज्ञान था। इस कथन का सत्य भी इस

१--वही, पृष्ठ, ६५२

२--हिन्दी साहित्य की भूमिका, डा० इजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रष्ठ ६१।

३--उत्तरी भारत को संत परम्परा, १० ६०।

४--आलवार चरितामृत-गंगा विष्णु श्रीकृष्णदास, लक्ष्मी वेकटेश्वर प्रेस, बंबई, पृष्ठ ७५ से ८८ तक

२६ रामानन्द सम्प्रदाय तथा [ह॒दा-साहत्य पर उसफा अमाव

बात से प्रमाणित हो जाता है कि महात्मा बालकराम जी समय-समय पर ऐसे ग्रन्थों का प्रकाशन कर दिया करते थे, जो डिसी-न-द्िंसी प्राचीन लेखक की कृति कहे जाते थे। भगवान्‌ रामानन्दाचार्य” नामक ग्रन्थ में उन्होंने किठ्ती ग्सूजे बहदानियत? नामक ग्रन्थ के आधार पर रामानन्द स्वामी के २२ उपदेशों का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कराया था।* जो हो, रामानंद सम्प्रदाय इस अंथ को अ्रपने सम्प्रदाय का प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं मानता व्यक्तिगत अनुभव पर यह कहा जा सकता है कि स्वयं प्रकाशक महोदय को भी इस ग्रन्थ की भाषा का विशेष ज्ञान नहीं है ओर तो वे इसके व्याकरण के विषय में ही कुछ संकेत करते हैं। एक दिन उनके सामने चेतनदास ने स्वय॑ प्रकट होकर श्रादेश दिय। कि अ्रब इस ग्रन्थ के प्रकाशन का समय गया है और भगवतदास जी ने इसे प्रकाशित करा दिया | 'भक्तमाल', श्रगस्यसंहिता' तथा वैशगी-सम्प्रदाय में प्रच- लित अन्य ग्रन्थों के आधार पर स्वयं चेतनदास के रामानंद के शिष्य होने में संदेह किया जा सकता है | ऊपर गांधी जी के नाम के श्रा जाने से यह अनुमान कर लेना असंगत नहीं कि इस ग्रंथ की रचना आधुनिक काल में ही हुई है। ग्रन्थ की सूचनायें भी अधिकांशतः अमान्य एवं श्रप्रामाणिक ही हैं | स्वामी जी के जीवन की जो व्यापक रूप-रेखा ( जन्मस्थान, गुरु, शिष्य, दिग्विजय आदि के सम्बन्ध में ) उसमें दी गई है, थोड़े से परिवर्तन-संशोधन के साथ उसे स्वीकार किया जा सकता है! नीचे इसकी भाषा का स्वरूप समभने के लिए, एक उदाहरण दिया जा रहा है।

अषध्टपदी ५४

निकवेरि नीगुणा बम्हह्य | भक्ता सगुण सारम्ह्हा पैधूम जाहुस-जम्हहा | नखटी नुकाटी अम्हद्ा १॥ लखमी चुशेषी शेषफण |जुबदा अरंटा कैबरश | टगुरी हुरी हरि हिडवण | जुबखी चुभी हिंगिस सपण | २॥ शेषी हृदवस्थं-शेषणा | चिदटे. चिदात्मा हेषणा || लखभी महापा-मेषणा | लुँभा अचिद सुद सेषणा | ३॥ आंभासु नीगुण-तत्तड़ा | सगुणथ बुताडिम भत्तड़ा डुकवारि टठणान्सत्तड़ा | जुग जग जुगी पर जत्तड़ा॥ ४॥ जीवाण जिउ्ठा दागमी | धडखी पिषा पुस नागमी

उठी उदापुह्ठ डाहमी | हुवटा जिवाणी पे हमी

अल -ीविन-ीषितननीजननवनननसपम+,

भगवान्‌ रामानन्दाचार्य--सं० हरिचरणलाल शास्त्री, पृष्ठ १००

]

ग्रध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा १७

त्रिशिधा प्रुष विश्वानुगा | आवत आहुम परतुगा॥ तैमू तभ ऊम्‌ उगा। ऐवर खबर पोसनजुगा ६॥ धूसंधिनी सत आमुरी | संवित चिदंटा जामुरी ह्यालादिनी मामा पुरी। आनन्द वधना भाहुरी ७॥ साखोत्तरा साहुज्जरा आचो भरा पानुज्जरा व्याख्यार भावा कुज्जरा | नावेत नुक्का मज्जरा ८॥। ( प्र० ७०-७१, सं० भगवतदास ) “अ्र्थ--स्वामी जी ने कद्दा-अह्म तो वास्तव निगंण ही है, क्यो कि वह <८ ए।-; » प्रकृति से परे है। परन्तु भक्त ने, भक्ति के प्रभाव से उसे सगुण बना दिया | कल्याणादि दिव्यगुणों का मूर्तिमान्‌ स्वरूप बना दिया | सृष्टि विकास, मगवत और भागवत का लीला-विलास है ॥१॥ लक्ष्मी जी, शेषी भगवान्‌ और फर्णीश जी ही तो सृष्टि के मूल में प्रतिष्ठित हैं। कमलनाल और ब्रह्मा की उत्पत्ति तो पीछे हुईं | आत्म समर्पण पूर्वक शेष जी और चरण कमल सेवा में तत्पर लक्ष्मी जी विमल भक्ति का उपदेश दे रही हैं ॥२। भगवान्‌ शेषी, शेष जो के हृदय में विराजमान हैं चित्‌ में चिदात्मा का प्रकाश है। चित्‌ शरीर है और चिदात्मा शरीरी है। लद्धभी जी मद्ामाया हैं भगवान्‌ उनमें रमण कर रहे हैं। भ्रचित्‌ के श॒द्ध सत्व में श्री नारायण रमण करते हैं। अचित्‌ शरीर है, परमात्मा शरीरी है ॥१।॥| यह सगुण ब्रह्म ही कृपा करके अपने निगुण श्रौर उससे परे स्वरूप का रहस्य अपने भक्तों को बता देते हैं। उसे जानने का दूसरा उपाय भी तो नहीं है चत॒व्यूह का असली भेद भगवान्‌ दी जानते हैं ॥४॥ जीव अगु है और गुणों के वैषम्य से घट-घट में अलग-अलग है। श्रुति में परमात्मा को भी अण से अशु और महान्‌ से महान्‌ कहा और रागद्वेष चिन्तन की प्रतीति से भी जीव बह होते हुए. भी एक है और व्यापक है ॥५॥ जीवात्मा, प्रशात्मा और परमात्मा ये तीन पुरुष हैं | जीवात्मा-चिदाभास है, प्रसात्या चिन्मय है और परमात्मा चिदानन्द है। प्रज्ञात्मा ही परमात्मा से अभिन्न है। सुषुप्ति में प्रतिदिन मिलन होता है, पर इसे कोई नहीं जानता ॥६॥ सत्‌ भाव का प्रकाश जिस शक्ति में होता है उसे क्रिया शक्ति संधिनी कहते हैं। चिद्‌ भाव का प्रकाश जिसमें होता है उसे ज्ञान शक्ति संबति कहते हैं ओर आनन्द भाव का प्रकाश जिसमें होता है उसे इच्छा शक्ति आह्वादिनी कहते हैं ॥७॥ न्याय का अ्रंश वेदान्त में श्रमज्ञान है, उसे छांट कर शुद्ध वेदान्त के मनन से ही जान की उपलब्धि होती है | शुद्ध मन से, परमार्थ की इच्छा से-वेदान्त का चिंतन करना चाहिये ॥८॥?” --टीकाकार पं० भगवतदास

श््द रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका ग्रभाव

भक्तमाल :--भक्तमाल? के लेखक नाभा जी रामानन्द जी की शिष्य- 'परमरा में थे, इस कारण उन्होंने स्वामी जी तथा उनके सम्प्रदाय की उत्पत्ति अथवा विकास के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ दी हैं, वे बहुधा प्रामाशिक हैं। नाभा जी के अनुसार स्वामी रामानन्द उनसे चार पीढ़ी ऊपर थे | भक्तमाल की रचना सं० १६८० वि० के लगभग मानी जाती है। इस कारण नाभा जी के समय तक रामानन्दीय-सम्प्रदाय का बहुत विस्तार नहीं हो पाया था और तो इस सम्प्रदाय में साम्प्रदायिकता की ही भावना पाई थी। इसलिये भी नाभा 'जी द्वारा उपस्थित की गई सामग्री प्रामाणिक ही मानी जा सकती है | कप-से- कम आज के रामानन्दी सम्प्रदाय के भक्त इस ग्रन्थ को श्रपना साम्प्रदायिक ग्रंथ समभते ही हैं। विभिन्न गांदियों से जो परपराएँ: प्रकाशित हुईं हैं, वे सभी भक्तमाल के लगभग मेल में ही हैं | जो कुछ भी अन्तर मिलता है वह गमानुज ओर रामानन्द के सम्प्रदायों के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर है। श्राज के रामा- नन्‍्दी विद्वान्‌ रामानुज-संप्रदाय से रामानंद स्वामी का कोई भी संबंध नहीं मानते, ' जबकि नाभा जी ऐसा स्पष्ट ही मानते हैं इस संबंध में हम “रामानंद-संप्रदाय का इतिहास तथा संबद्ध शाखाएँ? नामक अध्याय में विस्तृत विवेचन उपस्थित करेगें | भक्तमाल को प्रायः सभी विद्वानों ने प्रामाणिक रचना माना है |

भक्तमाल में भक्तों के ध्ति वेशिप्टूय पर ह! अधिक बल दिया गया है, उनके जीवन पर लेखक ने कोई प्रकाश नहीं डाला है | स्वामी रामानन्द जी के जीवन के सम्बन्ध में भी भक्तमाल कोई प्रकाश नहीं डालता | उनकी प्रशंसा

केवल दो छपयों में की गई है। प्रथम छेप्पय * से हमें निम्नलिखित बातें मालूम होती हैं--

ऋ--शी रामानुज स्वामी की पद्धति का प्रताप पथ्वी में अ्रमृत होकर फैल गया।

, ज-उनके अनन्वर देवाचार्य, महामहिमा से युक्त हर्यानन्‍्द जी तथा इयानन्द जी के शिष्य राघवानन्द जी 5० | राघवानन्द जी भक्तों को मान देने वाले थे | उन्होंने समस्त पृथ्वी को अपने विजयपत्र के अवलम्ब में कर लिय्य था

और काशी को अश्रन्त में अनना स्थान बना लिया। उन्होंने चारों वर्णों और श्राश्रमों को भक्ति का द्वार खोल दिया | आल रब हक फे

| (>डा० दीनदयालु गुप्त, २--भक्तमाल, सटीक, 'एतीयावृत्ति सन १६५१ ई०

अधष्टक्षाप ओर बल्लम पम्प्रदाय, पूर्वीद्ध पृष्ठ १०६। भक्ति सुधा स्वाद तिलक, ' सीतारामशरण भसंगवानप्रसाद रूपकला, (१५९) छप्पय ६६२ पृष्ठ २८१

अध्ययन की सामग्री तथा उसको परीक्षा श्दट

ग--इनन्‍्हीं स्वामी राघवानन्द जी के शिष्य थे स्वामी रामानन्द जो मानो विश्व के मंगल की मूर्ति ही थे। इस प्रकार रामानुज-सम्प्रदाय की पद्धति का प्रताप दिनोंदिन बढ़ता ही गया

द्वितीय छुप्पय* से हमे निम्नलिखित सूचनाएँ मिलती हैं :---

क--भगवान्‌ रामचन्द्र ही की भांति रामानन्द जी ने भी संसार के प्राणियों को तारने के लिये दूसरा सेतु तैयार कर दिया। ख--अ्रनन्तानन्द, कबीर, सुखानन्द, सुरसुरानन्द, पद्मावती, नरहरिं, पीपा, भावानन्द, रैदास, घना, सेन, सुरसुरानन्द की स्त्री आदि के अतिरिक्त स्वामी जी के और भी शिष्य थे, जो एक से एक 'उजागर? थे। सभी विश्व-मंगल के आधार और दशघा-भक्ति के आगरः थे | ग--रामानन्द ने बहुत काल तक शरीर धारण कर प्रण॒त जनों को पार कर दिया

'भक्तमाल? में रामानुजाचार्य के पूर्व के आचायौं की भी परम्परा दी हुईं है | लगता हे, भक्तमाल का लेखक अपने सम्प्रदाय का क्रमबद्ध इतिहास जैसे प्रस्बुत करना चाहता हो | वह रामानुज परम्परा से रामानन्द-परम्परा का सम्बन्ध मानता था; अन्यथा रामानुज परम्परा से उसका इतना लगाव ही क्‍यों होता

लेखक के अनुसार रामानुज की पद्धति 'रमापद्धति? ( श्री सम्प्रदाय ) थी। इस सम्प्रदाय का प्रारम्भ लक्दत्षी जीरे से होता है। लक्ष्मी जी से विष्वक्सेन जी को मन्त्र मिला, उनसे शठकोप जी को, शठकोप जी से बोपदेव जी को मंत्र मिला, फिर बोपदेव जी के बाद की शिष्य-परम्परा इस प्रकार है :--नाथमुनि, पुण्डरीकाज्ष, राममिश्र, परांकुश, याम्रुनाचाय, पूर्णाचाय और रामानुज

इसके अनन्तर नाभा जी ने अनन्तानग्द, कबीर, सुखानन्द, सुरसुरानन्द, पीपा, शैदास, सेन, सुरखुरी, नरहर्यानन्‍्द, धना श्रादि स्वामी जी के शिष्यों की भक्ति- सम्बन्धी प्रमुख विशेषताओं का वर्णन किया है। नाभा जी ने भक्तों के जीवन पर प्रकाश डालने का कोई प्रयास नहीं किया है, फिर भी उनके द्वाल्र रामानन्द- सम्प्रदाय के सम्बन्ध में प्रस्तुत की गईं सामग्री बहुमूल्य ही हे स्वयं लेखक का सम्बन्ध अनन्तानन्द की परम्परा से था, अतः सब प्रथम अनन्तानन्द के ही शिष्यों के व्मम गिनाये गये हैं | योगानन्द, गयेश, कमचन्द, अल्ह, पेहारी, सारीरामदास, ओ्रीरंग आदि अनन्तानंद के मुख्य शिष्य कहे गये हैँ |! इनके एक शिष्य १-बहा, (१५) छप्पथ ६६१ पृष्ठ २८२ | २--वेढी, प० २४५८। ३-वहां, १३६ छुप्पय ७०७ पृष्ठ २६१। ४०-वंही, २५२ छप्पप ६६० एृ० २६८।

२० रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-सहित्य पर उसका प्रभाव

नरहरिदास ने तो रघुवर, यदबर दोनों के यश का गान करके निर्मल कोर्ति-रूपी धन का संचय किया था ।* वैसे ये सभी शिष्य अनन्तानन्द के पद का स्पर्श कर लोकपालों के समान हो गये थे ।*

अनन्तानन्द के शिष्यों में पयोहारी कृष्णदास सर्व प्रमुख थे | उन्होंने अन्न का त्याग कर केवल दूध का ही श्राहार किया | जिस पर उनकी कृपा हो गई उसे उन्होंने शोक रहित कर निर्वाण ही दे डाला तेज के समूह वे थे, भजन उनका बल था और वे ऊरध्वरेता हो गये थे |! इन पयहारी जी के शिष्यों में कील्ह, अग्र, केवल, चरण, ब्रतहठी नारायण, सूर्य, पुरुषा, पृथु, त्रिपुर, पद्मनाभ, गोपाल, टेक, टीला, गदाधारी, देवा, हेम, कल्याण ) गेंगा, विष्णुदास, कान्धर, रगा, चांदन, सबीरी, गोविन्द आदि प्रमुख शिष्य थे |" आमेर के कछवाहा राजा पृथ्वीराज भी इनके शिष्य थे ( भक्तमाल, पृष्ठ ७२४ )।

इन शिष्यों में भी कील और अ्रग्न दो प्रमुख शिष्य थे | कील्ह के विषय में लेखक का कहना है कि भीष्म के समान ही कील्ह ने भी काल को वश में कर लिया था। वे रामचरणों में रात दिन रत रहा करते थे | इनको देख कर प्राणिमात्र का शिर नमित हो जाता था। सांख्य, योग, आदि का ज्ञान इन्हें इत्तामलकवत्‌ था। ये सुमेरदेव के पुत्र थे ।अन्त में अक्मरन््र वेध कर इन्होंने भगवान्‌ को प्राप्त किया ।* कीह्ह के शिष्यों में आस करन, रूपदास, भगवानदास, चतुरदास, छीतरदास, लाखा जी, रायमल, रसिकरायमल, गौरदास, देवादास, दामोदर दास आदि प्रसिद्ध थे ।*

अग्रदास ने भगवान्‌ के भजन के बिना किश्वित मात्र भी काल व्यथ नहीं गेंवाया पूर्व भक्तों जैसा ही इनमें सदाचार था | भगवान्‌ की सेवा का स्मरण ओर उनके चरणों का ध्यान ये निरन्तर करते रहते थे | इन्होंने एक 3 द्यान लगाया था | इससे उनकी बड़ी प्रीति थी। जिह् से निर्मल नाम की ही वर्षा ये करते थे कृष्णदास पयहारी ने मन-कर्म-बचन से भक्ति सें इन्हें दृढ़ कर दिया था, अ्ग्रदास के सभी शिष्य धर्म की ध्वजा थे | उनमें कुछ के नाम ये 2 मम नीन कलश

६--२, वही, छुप्पय ६६० पृ० २९८। २-- ६२६ छुप्पय दंय७ पृ० ३०२ ४-वही, १५६ छप्पय हपड पृ० ३०८ *०वही, १६० छृप्पय ६८३ पृ० ३०९ ३-वही, ७४१ छृप्पय १०२ पू० ८४८ | ७--वही, १६३ छप्पय ६८० पृ० २१३

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा २१

हैं---जंगी, प्रयागदास, विनोदी, पूरनदास, बनवारीदास, नरसिंहदास, भगवान- दास, दिवाकर, किशोर, जगतदास, जगन्नाथदास, सलूधी जी, खेमदास, खीची जी, ध्मदास, लघुऊधों ।* इन्हीं अग्रदास के शिष्य स्वयं नाभा जी भी थे उन्हीं की आज्ञा पर “भक्तमाल? की रचना की गईं कृष्णदास पयद्दारी जी के तीसरे शिष्य टीला जी के शिष्यों में लाहा जी ( इनकी परम्परा परम प्रकाशमान हुई ), परमानन्ददास, खरतरदास, खेमादास, ध्यानदास, केशवदास, हरिदास, आदि प्रमुख शिष्य थें ।* रामानन्द-सम्प्रदाय की सबसे बड़ी पहली गादी गलता में कृष्ण॒दास पयहारी जी द्वारा स्थापित की गई ।* ये बड़े ही परोपकारी, कामिनी-कांचन से उद्यसीन, रामचरणानुरागी और - +।- थ+ थे उपयुक्त भक्तों के अतिरिक्त अन्य छोटे-छोटे भक्तों के विषय में भी नाभा जी ने छुप्पप लिखे हैं इसी प्रकार नाभा जी ने रामानन्द-सम्प्रदाय पर अन्य सम्प्रदायों के पड़ने वाले प्रभाव का भी संकेत कर दिया है। ऊपर कहा जा चुका है कि अनन्तानन्द के शिष्य (१) नरहरिंदास ने रघुबर और यदुबर दोनों की द्वी कीर्ति का संचय किया था। आगे चल कर अग्रदेव ने कष्ण-भक्ति से और भी अधिक प्रभाव ग्रहण किया रामानन्द-सम्प्रदाय में मानसी भक्ति के प्रचारक अग्रदेव ही ये। श्रंगारी सम्प्रदाय ( रामानन्दी रसिक सम्प्रदाय ) के ये आदि प्रवर्तेक भी माने जाते हैं कृष्णदास पयहारी तो योगी थे ही, कील ने तो सांख्य योग को हब्टायलक- वत्‌ ही कर लिया था इन्हीं कील्ह के एक शिष्य थे द्वारकादास जिनके विषय में मंक्तमाल कार ने कह्दा है “श्रष्टांगयोग तन त्यागियां द्वारकादास जाने दुनी ।?* इस प्रकार नाभा जी के समय तक रामानन्दी सम्प्रदाय योग ((नाथपंथी ) तथा श्रृंगार ( कृष्ण भक्तिशाखा का ) दोनों से ही प्रभावित हो गया था। अगले ग्रध्यायों में हमने नाभा जी द्वारा दी गई स्वामी रामानन्द की गुरु शिष्य परम्परा का विस्तृत विवेचन किया है, अतः यहाँ अनावश्यक समझ कर इस प्रसंग को छोड़ दिया जा रहा है |

१--बही, ७२४५ लेप्पय ११८ ए० ८३४५ | २--वही, ७२६ दुप्पय | ११७ एृ० ए८रे६। ३- वही, ७८७ छुप्पय ४६ पृ० ८३8५ ४>--वही, ७९४ छप्पय ४६ पृ० ८६३

श्र रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

भक्तमाल की टीकाएँ क--प्रियादास की टीका--भक्तमाल को भक्ति रस बोधिनी? नाम की' टीका प्रियादास जी ने सं० १७६६ वि० में लिखी | इन्होंने नाभा जी द्वारा दिये गये वृत्त के अतिरिक्त अपने समय तक प्रचलित हो गई धारणाओं एवं किंवदन्तियों को भी श्रपनी टीका में स्थान दे दिया है। इनको भी दृष्टि भक्तों को ग्रायः चमत्कार पूर्ण वातावरण से घिरे हुए रूप में ही चित्रित करने की ओर रही है इसी कारण कहीं-कहीं इतिहास की भी अवहेलना इस टीका में की गई है |

प्रियादास जी ने स्वामी रामानन्द के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं दी है॥ उनको गुरु परम्परा के सम्बन्ध में भी प्रियादास जी ने कुछ नहीं कहा स्वामी जी के शिष्यों में अनन्तानन्द के विषय में भी टीकाकार को कुछ नहीं कहना है रंग जी तथा कृष्णदास पैहारी के विषय में प्रियादास जी ने अवश्य ही कुछ महत्तपूण सूचनाएँ दी हैं श्री र॑ग जी द्यौसा के सराबगी वशणिक थे ।* उनके प्रसाद से एक प्रेत को मुक्ति मिली थी | कृष्णदास पयोह्टारी के सम्बन्ध में प्रियादास जी का कहना है कि उन्होंने कुल्हू के राजा के साथ बड़ी उदारता दिखलाई थी | इस राजा के वंशज प्रियादास जी के समय तक वतमान थे ये बढ़े ही वेष्णव भक्त थे।९ पयोहारी नी' के शिष्यों में कील्ह के विषय में भरी प्रियादास का कहना है कि जब इनके पिता सुमेरदेव का देहान्त हो गया, तब इन्होंने मथुरा में राजा मानसिंह के पास बैठे-बैठे ही ठीक है, भला है? कह कर आकाश मार्ग से जाते हुए. पिता का स्वागत किया था। इन्होंने फूल की पिटारी में स्थित सांप से अपने को तीन भार कटठाया था, परन्तु उन पर कोई प्रभाव पढ़ा। इन्होंने मरते समय भरी सभा में बक्यांड फोड़' कर प्राण त्याग किया |? पयोहारी जी के दूसरे शिष्य श्रग्रदेव के सम्बन्ध में प्रियादास ने

बतलाया हैकि ये आमेर के राजा मानसिंह के समकालीन थे, राजा मानसिंह इनसे मिलने मी गये ये | *

रामानन्द जी के शिष्यों में रैदास के सम्बन्ध में प्रियादास ने जो कुछ कहा

है उससे निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं ।* :-..रामानन्द जी का" एक नि.

$-वही, ४० ३००-३०१, कवित्त २११-१२।

२--वही, १० ३०३-५, कवित्त ५०६९-१० . रही, एृ० ३१०-१३, कवित्त ५०७-८ |

४--जही, कवित्त ५०६ पृ० ३१४ |

१--कही, कवित्त २५६, तथा २६४-२६६, पृष्ठ ४७०--७६

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा र्र

ब्रह्मचारी शिष्य द्वी किसी चमड़े का व्यापार करने वाले वशिक के यहां से मिन्ना लाने के अपराध में गुरु द्वारा शापित होकर रैदास के रूप में उत्पन्न हुआ जन्म लेने पर वह दूध नहीं पीता था रामानन्द ने स्वयं आकर उसे फिर दूध पिलाया | रैदास बाल्यावस्था से ही बड़ा हरिभक्त था। पिता ने उसे पिछवाड़े जगह दे दी वहां रह कर यह दिन-रात साधु सेवा किया करता था। भगवान्‌ ने रैदास को हठ पूर्वक मुद्रा लेने को बाध्य किया | इस घन से उन्होंने संतों के लिये निवास बनवा दिया ब्राह्मणों को इससे स्पर्धा हुईं परन्तु अन्त में रैदास के बढ़ते प्रताप से प्रभावित होकर वे मौन हो गये | चित्तौड़ की रानी काली रैदास की शिष्या हो गई थीं इन्होंने अपनी त्वचा के भीतर सोने का जनेऊ ब्राह्मणों को दिखाया था रैदास जी के कुछ चमत्कारों का भी वन प्रियादास ने किया है

कबीर ---प्रियादास जी ने कबीर को भी रामानन्द जी का शिष्य कहा है। पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर लेट कर स्वामी जी के चरणों से टकरा कर, खामी जी की (राम, राम कह! उक्ति को ही कब्रीर ने गुरुमंत्र मान लिया था। कबीर ने रामानन्द को देती प्रेरणशावश गुरु किया था। नियमित रुप से उन्हें शिष्य नहीं किया गया था। प्रियादास ने तो यहां तक लिखा है कि जब कब्रीर अपने को रामानन्द जी का शिष्य कहने लगे, तब स्वामी जी ने उन्हें बुलाकर परदे की आड़ में बैठकर पूछा कि, 'तुम कब मेरे शिष्य हुए !” कबीर ने स्वामी जी को बतलाया कि सभी तंत्रों का सार 'रामनाम?! है। इस पर स्वामी जी बड़े प्रसन्न हुए श्रोर पट खोल कर कबीर से मिले | कबीर के संबंध में प्रियादास ने अनेक चमत्कारपूर्ण उक्तियाँ कहीं हैं, जिनसे हमारे अध्ययन को कोई नई गति नहीं मिलती श्रतः उन्हें यहां छोड़ दिया जाता है |

रामानन्द ओर पीपा जी--प्रियादास जी ने भी पीपा को रामानन्द स्वामी का शिष्य माना है। उनके अनुसार पीपा गांगरौन गढ़ के राजा थे | पहले वे देवी के उपासक थे, फिर बाद में देवी के ही आदेश से रामानन्द जी के शिष्य हो गए | कहते हैं कि पीपा जी जब स्वामी जी के मठ पर शिष्य होने के विचार से आए, तो स्वामी जी ने कहा कि मुझे! राजा से कोई काम नहीं है इस पर पीपा ने अ्रपनी सारी सम्पत्ति दीनों को बांट ढी। स्वामी जी ने पुनः आज्ञा दी कि पीपा से कह दो कि वह कुएँ में गिर पड़े पीणा गिरने ही जा रहे थे कि स्वामी जी ने प्रसन्न होकर उन्हें शिष्य बनाना स्त्रीकार कर लिया

१--बदी कवित ३४८ से लेकर ३६१ तक

२४ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

जब पीपा के हृदय में भक्ति भावना दृढ़ हो गई, तब स्वामी जी ने एक वर्ष बाद गांगरीनगढ़ श्राने का “वचन देकर उन्हें विदा कर दिया। एक वर्ष बाद पीपा ने स्वामी जी को चिट्ठी लिख कर जब बुलाया तो कबीर, रैदास आदि बीस शिष्यों को लेकर स्वामी जी गांगरौन गढ़ गए। पीपा ने स्वामी जी का अ्पूर्व स्वागत किया कुछ दिन वहां रह कर स्वामी जी जब चलने गे, तत्न पीपा ने भी विरक्त होकर उनका साथ दिया पीपा की छोटी रानी सीता भी बलपूर्वक उनके साथ हो गई | यहां से स्वामी जी द्वारका गए. और कुछ दिन वहां रह कर काशी लौट आए | पीपा के संबंध में प्रियादास ने अ्रनेक कथाएँ दी हैं अनावश्यक समझ कर उन्हें छोड़ दिया जाता है |*

रामानन्द और धना जी :--प्रियादास के श्रनुसार भगवान्‌ ने धना की भक्ति से प्रसन्न होकर यह आज्ञा दी कि तुम काशी जाकर द्रामानन्द के शिष्य हो जाओ भगवान्‌ की आज्ञा पाकर घना ने रामानन्द का शिष्यत्व स्वीकार किया | फिर घर आकर वे भगवान्‌ की उपासना करने लगे [

रामानन्द और सेन :--सेन के सम्बन्ध में प्रियादास ने केवल एक नई सूचना दी है वह यह कि वे बांधवगढ़ के राजा के नाई थे ।*

रामानन्द और सुखानन्द :--सुखानन्द के सम्बन्ध में प्रियादास जी ने कुछ भी नहीं कहा है। इसी प्रकार उरसुरानन्द, सुरसुरी, नरहर्यानन्‍्द, आदि के विषय में भी प्रियादास जी ने कुछ भी नहीं कहा है |

रामानन्द-संम्पदाय प्रियादास जी के समय तक रामानुज-संप्रदाय से उद्भूत उप माना जाता रहा है, इसके संकेत प्रियादास जी मे यत्र-तन्न दे दिये हैं आमेर के राजा उध्वी राज को अपने गुरु पयहारी जी को कृपा से शंखचक्र की ही छाप मित्री थी जो रामानुज-सम्प्रदाय की विशेष छाप है * और रामानन्दियों डरा अ्त्र तक स्वीकृत थी | इसी प्रकार केवलकूबा जी द्वारावती जाकर छाप लेना चाहते थे, किन्तु प्र्ध की थआराज्ा से वे घर पर ही रह गये और वहीं पर भगवान्‌ को कृपा से उन्हें शंखचक्र की छाप लग गई |*

₹--जही, पृष्ठ ४३२३-५२ २-लहाों, पृ० ५२२-२४ ३--वही, ए० ४२६

_ ४--बही, पृष्ठ उ२ कवित्त २४४। २--वहां, क० १२३ एृ० प३२। ;

ग्रध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा रफ्‌

भक्तमाल की टीकाएँ :--भक्तमाल रामरसिकावली--रीवां नरेश महाराज रघुराज सिंह

गैवाँ नरेश ने अपनी टीका में किसी वेज्ञानिक दृष्टिकोण का अवलंबन नहीं किया है इस कारण अनेक प्रचलित किवदन्तियों, दंतकथाश्रों एवं अंधविश्वासों का उनके ग्रन्थ में समावेश हो गया है। वे इस बात को पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हैं कि कबीर ने स्वयं आकर उनके पिता मद्दाराज विश्वनाथ सिंह से बीजक की टीका करने को कहा। इस प्रकार उनकी रचना ( टीका ) प्रमाण कोटि में नहीं झा सकती

रामानन्द जी के संबंध में इन्होंने केवल एक नई सूचना दी है | वह यह कि उन्होंने--वर्ष सप्तशत लों तनु राख्यो। परपारथ तजि और भाख्यों ॥॥ इसी प्रकार उन्होंने यह भी बतलाया कि भारतखंड में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जो रामानन्द जी के प्रभाव को जानता हो यहाँ वर्ष सप्ततत का अथ १०७ वर्ष ही होगा, पर किस प्रमाण पर यह कहा गया है, कहना असंभव है। आगे हम इस मत की समीक्षा करने का अवसर पाएँगे, श्रतः यहाँ इसे यों ही स्वीकार कर लिया जाता है

रामानन्द के शिष्यों में कबीर को इन्होंने विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न कहा है श्रोर रैदास के विषय में बतलाया है कि रामानंद के यहाँ जब वे शिष्य होने के लिये गये, तब स्वामी जी ने चमार जान-कर उन्हें लौटा दिया, पर भोजन के समय उन्होंने रैदास को पानी लिए हुए खड़ा देख कर अपना लिया और अपना शिष्य बना लिया शेष शिष्यों एवं अनन्तानंद की शिष्य परंपरा के सम्बंध में रघराज सिंह जी ने ऐसी सूचनाएं दी हैं, जिनसे रामानंद जी के समय पर प्रकाश पड़ता है। यह कहाँ तक प्रामाणिक है, इसकी समीक्षा हम श्रागे इसी प्रसंग में करेंगे |

सेन बाँधवगढ़ बघेल राजा राम का सेवक था। यह नाई भगवान्‌ की भक्ति से प्रभावित हो रामानंद के पास आया। स्वामी जी ने इसे शूद्र जान द्वार बन्द्‌ कर लिया, पर सेन के निकट जाने पर कपाट स्वतः खुल गया अतः उसे संत समझ कर रामानन्द ने अ्रपना लिया | सेन के विषय में आगे रघुराज सिंह ने लिखा है कि ये जिस राजाराम बघेल के यहाँ रहते थे, वे कबीर के शिष्य थे। पहले ये बघेल राजा गुजरात में रहा करते थे, पर कबीर के आदेश से विन्ध्य- पृष्ठ में चले आये | रीवानरेश ने इसी सम्बंध में अपनी वंश-परंपरा भी दी है--

२६ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

मम पितु राजा रामहिं सोई। दशएँ पुरुष प्रकट भो जोई

रामसिंह को सुबन जो, बीर सद्र अस नाम |

सो मोंहि कलह्यो कबीर जी आगमग्रंथहिं ठाम | यह परंपरा यों है ;---१--राजाराम बघेल ( कबीर के शिष्य ) २---बीरभद्र २३--विक्रमादित्य ४--श्रमरेश €--अश्रनूप ६--भावसिंह ७--- अनिरुद्ध ८-- अवधूत ६--अ्रजीत ( रिपुजीत ) १०--जयसिंह ११--विश्वनाथ सिंह १२-. रघुराजसिंह रीवांनरेश के अनुसार महाराज विश्वनाथ सिंह का जन्म स॑० १८४६ वि में हुआ | सं० १८५८ में इन्होंने किसी प्रियादास नी से दीक्षा ली, सं० १६१४१ में इनका देहावसान हुआ स्वयं रघुराज सिंह का जन्म सं० १८८० कार्तिक कृष्ण को हुश्रा था| इसके पूर्व रीवां नरेश ने यह बतला दिया है कि राजाराम के पिता बीर भानु थे, जिन्होंने हुमायूं की रानी को उस समय शरण दी थी, जब शेरशाह ने उसे भगाया था। राजाराम श्रकबर का समकालीन था उनके निम्न कथन से यह बात श्रौर स्पष्ट हो जाती है :---

दिल्ली को पुनि राम नृूप गए अकब्बर शाह।

कीन्यो अति सन्मांन सो अकस मानि नरनाह ।|।

ओचक मारन को गये ते नृप रामहि काँह

फिरे मानि विस्मय सबै निरखि चारिचोबाँह ||

नापित सेन स्वरूप धरि हरि जिनके तनु माँहि |

तेल लगायो राय सों कहिये केहि नप काहिं |!

इस भ्रकार राजाराम का अकबर का समकालीन होना सिद्ध हो जाता है| वैसे

शिवसिंह जू सेंगर* ने भी लिखा है, “निदान तानसेन मे ( सं० श्प्रप में उत्न्न ) दौलतखाँ, शेरखाँ बादशाह के पुत्र, पर श्राशिक होकर उनके ऊपर चहुत सी कविता की दौलतखां के मरने पर श्री बांधवनरेश रामसिंद् बघेला के यहाँ गए, फिर वहाँ से श्रकबर बादशाह ने अपने यहाँ बुला लिया | तानसेन और सूरठास जी से बहुत मित्रता थी |”?

अतः इस प्रमाण के बल पर कहा जा सकता है कि रामानन्द स्वामी १६ वीं शताब्दी वि० तक वर्तमान थे। आचार्य रापचन्द्र शुक्ल ने इस तिथि को प्रामा-

१--भक्तमाल रामरसिकावली, पृष्ठ १०११ ।. २--शिवसिंद्द सरोज, पृ० ४२६ :सं० १६८३ विं०

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा २७-

खिक मान भी लिया है, किन्तु डा० भण्डारकर, सर ज्याजं ग्रियसेन, डा० ताराचन्द, डा० पीताम्बरदत्त वथ्‌ वाल तथा श्री परशुराम चतुर्वेदी आदि विद्वानों अगस्त्य संहिता? के साक््य तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर स्वामी जी का समय कलि के ४४०० वर्ष बीतने पर सं० १३५६ वि० से सं० १४६७ वि० तक ही माना है सम्प्रदाय में यह तिथि मान्य है, ओर जब तक इस प्रचलित धारणा के विरुद्ध कोई पुष्कल प्रमाण नहीं मिलता तब तक इसे ही ठीक मानना होगा धप्रसंग-पारिजात” एक अप्रामाणिक रचना है, श्रतः उसकी तिथियाँ (जन्म तिथि सं० १३२४ वि० तथा मृत्यु तिथि सं० १४१५ वि० ) भी मान्य नहीं हो सकतीं यह भो संभव है कि रघुराज सिंह ने भ्रमवश सेन नाई का सम्बन्ध राजाराम ( वीरभानु के पुत्र ) से जोड़ लिया हो, क्‍योंकि ग्घुगजसिंद जी के लिये यह बात एक सत्य घटना सी ही है कि कबीर ने स्वयं आकर उनके पिता से बीजक की टीका करने को कहा | इस संबंध में हम विशेष विवेचनस्वामी जी की जन्म- तिथि निर्धारित करते समय करेंगे। अ्रतः इस प्रसंग के संबंध में इतना

पर्याप्त है भक्तमाल की अन्य टीकाएँ--

१--भक्ति सुधा-स्वाद तिलक

२--मभक्तमाल हरिभक्ति प्रकाशिका

यहाँ प्राचीन सामग्री का ही विवेचन किया जा रहा है, अतः सीताराम शरण भगवानप्रसाद॒रूपकला तथा पं» ज्वालाप्रसाद मिश्र को टीकाएँ आधुनिक युग की चिन्ताधाराश्रों से प्रभावित होने के कारण मुख्य सामग्री के रूप में नहीं श्रातीं फिर भी श्रध्ययन को क्रमबद्ध बनाने के दृष्टिकोण से इनका यहाँ उल्लेख कर दिया गया है | इनमें रूपकला जी ने तो अगस्त्य संहिता, भविष्य- पुराण आदि का साक्य लेकर स्वामों जी के जीवन की रूपरेखा निर्धारित की है। साथ ही उन्होंने श्रग्रदास की रहस्यत्रय टीका? 'रसरंगमणि जी के भक्तमाल? ग्रादि की भी सहायता ली है। “अगस्त्य संहिता? द्वारा उपस्थित जीवनबृत्त हो उन्हें मान्य है | प॑० ज्वालाप्रसाद मिश्र जी ने स्वामी जी के संबंध में बतलाया है कि बे पहले दक्षिण देश में एक स्मार्त सन्‍्यासी के शिष्य थे | फूल तोड़ने के लिये एक दिन वे किसी उद्यान में गए | वहाँ राघवानन्द जी ने उन्हें उनकी आसन्नमृत्यु का समाचार दिया और बाद में रामानन्द के शरणागत होने पर उनकी जान भी बचाई। कभी तीर्थाटन' के उपरान्त लौगने पर रामानन्द को भोजन के सम्बन्ध में गुरु से मतभेद प्रकट करना पड़ा, श्रतः राघवानन्द ने उन्हें

र्८ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

अलग सम्प्रदाय चलाने को कहा। इस प्रकार रामानन्दी-सम्प्रदाय का जन्म हुआ | इस मत की लेखक में अगले अध्याय में पूण विवेचना की है

अगस्त्य संहिता--श्रगस्य संहिता के अन्तर्गत 'भविष्यखण्ड” के १३१ यें अध्याय से लेकर १३५ वें अध्याय तक श्री रामानन्द जन्मोत्सव की कथा मिलती है। कदाचित्‌ सबसे पहले डा० भर्डारकर ने अपने ग्रन्थ 'वैष्ण॒विज्म शैविज््म, एए्ड माइनर रिलिजन्स शआ्रादिः नामक ग्रन्थ में इस ग्रन्थ को प्रामाणिक मान कर स्वामी रामानन्द जी का जीवन, वृत्त प्रस्तुत किया था | इसके उपरान्त रूपकला जी ने भक्तमाल की टीका करते हुए इस ग्रन्थ का पूरा उपयोग किया | ओर उद्धोंने भी इसे प्रामाणिक मानते हुए स्वामी जी का जीवन बृत्त इसी के आधार पर उपस्थित किया | फिर डा» ग्रियसन ने १६२० के जे० आर० ए० एस० में डा० फक्हर के इस कथन का कि 'रामानन्द दक्षिण के किसी रामावत सम्प्रदाय से सम्बद्ध थे, किन्तु उत्तर में आकर उन्होंने अपने सम्प्रदाय का प्रचार किया |? प्रतिबाद करते हुए, कहा कि उन्हें अगस्त्य संहिता? की एक प्रकाशित प्रति में स्वामी जी का जीवन-चरित नहीं मिला, किन्तु बाराबंकी से प्रकाशित उसका हिन्दी अनुवाद उन्हें मिल गया था। इस ग्रंथ द्वारा उपस्थित किये गये जीवन वृत्त को डा० ग्रियसन ने प्रामाणिक ही माना | उनका कहना था कि यह जीवन चरित संस्कृत में लिखे हुए भागवत आगम का एक अंश है, और भक्तमाल को भाँति आश्चयजनक कथाओं से सजाया संवारा नहीं गया है | जहाँ स्वामी जी की प्रशंता भी की गईं हे, वहां पूरी सावधानी के साथ ही | अतः इस 'अन्थ की प्रामाणिकता में पर्याप्त विश्वस किया जा सकता है। इसी ग्रन्थ के आधार पर ग्रियसन साहब ने यह सिद्ध किया कि रामानन्द्र दाक्षिणात्य नहीं ये 'झुमे डाकोर से प्रकाशित 'रामानन्द जन्मोत्सवः ग्रन्थ प्राप्त हुआ है भ्रियर्सन द्वारा उद्धत पंक्तियां इस मूल का ही अनुवाद हैं| खेद है कि, प्रियर्सन साहब के बाद किसी हिन्दी विद्वान्‌ ने इस ग्रन्थ की प्रामाशिकता की तो पूरी परीक्षा ही की -ओऔर इसके आधार पर स्वामी जी के जीवन-बृत्त को उपस्थित करने का ही प्रयास किया। अतः सर्वप्रथम मैं यहाँ इस ग्रन्थ के आधार पर स्वामी जी के जीवन-इत्त को उपस्थित कहूँगा मूल ग्र्थ संस्कृत में है, अतः इस दृष्टि से भी यह प्रयास अनुचित होगा |

“एक समय महृषि अ्रगस्त्य जी से सुतीक्षण ने पूछा कि विश्व के प्राणियों "का कलि ! किस प्रकार कह्माण सम्भव है, तब अगस्त्य जी ने उन्हें वही कथा “खुनाई जिसे उन्होंने स्वयं सनकादिक कुमारों द्वारा सुनी थी | एक बार पुथ्वी पर

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा रह

अत्याचार बढ़ता देख कर नारदमुनि भगवान्‌ के पास जाकर बोले कि 'भगवन्‌ , लोक में वेद-मार्ग से लोग विमुख होते जा रहे हैं इसलिये आप कोई उपाय बतलाइए जिससे मेरी आप में अनुरक्ति दिन-दिन बढ़ती रहे |! भगवान ने उन्हें बतालाया कि, मैंने लोक-कल्याण का उपाय पहले ही सोच लिया है। मैं तीथराज प्रयाग में आप सभी नित्य सूरियों के साथ अ्रवतार लेकर वेद शात्रादि के सारभूत मोक्ष के साधन, भक्ति को बढ़ाने वाले धम मार्ग का विस्तार करूँगा ।' श्राप लोग यत्र-तत्र अ्रवती् होकर मेरे द्वारा कथित उपदेश का धर्मनिष्ठ, सुशील होकर प्रचार करेंगे। जो व्यक्ति उस घर्मॉपदेश को ग्रहण करेंगे वे ग्रवश्य ही मोक्ष पा जायेंगे ।?? भगवान्‌ का यह बचन सुन कर नारदमसुनि प्रसन्न होकर उनका यशोगान करते हुए संसार में विचरण करने लगे |

इसके अनन्तर रामानन्दावतार की पूरी कथा अगस्य जी ने दी है। मैं उसके विस्तार में जा कर केवल उन तिथियों एवं घटनाओं का ही उल्लेख करूँगा जो स्वामी जी के जीवन एवं उनके सम्प्रदाय से विशेष सम्बद्ध हैं इस संहिता की कथा में रामानन्द जी को विष्णु का अवतार कहा गया हैं। रामानन्द्‌ जी का जन्म कलि के ४४०० गत होने पर तीथराज प्रयाग में कान्यकुब्ज ब्राह्मण पुरयसदन तथा उनकी पत्गी सुशीज्ञा के घर माघ कृष्ण सप्तमी तिथि, सूर्य के सात ६शड चढ़ने १२, सिद्धि योग युक्त चित्रा नक्षत्र, कुम्भ लग्न में होना कहा गया है, आठ वर्ष की अवस्था में यज्ञोथवीत, बारह वर्ष की अ्रवस्था में काशी जाकर श्री सम्प्रदाय के आचाय राघवानन्द से षडक्षुर रामतारकमंत्र,, शरणागतिमंत्र, रहस्यत्नय का वाक्यार्थ, तात्पर्याथ आदि का पाना कहा गया है। उन्हें वेद वेदांग पारंगत, भागवत धर्मज्ञाता, भगवदाराधनादि कर्मों के कर्ता, वैष्णव धर्म के उपदेष्टा, यशस्वी, उदारबुद्धि एवं प्रसन्नमुख, उद्धारक, जितेन्द्रिय, धर्मशीलों से परिव्ृत्त, सुशील, सम्ृष्टि, शान्त, दांत, जगद््‌गुरु, एवं सत्सम्प्रदाय-' प्रबतंक होने का लक्षण बतलाया गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि उन्हीं को कृपा से संसार के प्राणी रामभक्त परायण होंगे

अगर्य संहिता ने रामानन्द के शिष्यों को विभिन्न देवताओं का अवतार बतलाया है और साथ ही उनकी जन्मतिथियाँ (संबतों को छोड़कर) दी हैं ।' रामानन्द के शिष्यों में -अननन्‍्तानन्द ब्रह्मा के अवतार थे। इनका जन्म. कातिक मास की कृत्तिका नक्षत्र युक्त पूर्णिमा, शनिवार को धनलग्न में हुआ. "इन्हें योगाभ्यास में स्थित, बुद्धिमान और सदाचार में तत्पर कहा गया है। ख--सु रसुरानन्दू--इन्हें नारद का श्रवतार कहा गया है। इनकी जन्मतिथि

३-० रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

-बैशाख कृष्ण नवमी, गुरुवार, बृष लग्न दी गई है। ग--सुखानन्द-ये शंकर के अवतार कहे गये है इन्हें बैशाख सुदि नवमी, शतभिषा नक्षत्र, तुला लग्न में उत्पन्न कहा गया है| ये शील के समुद्र, गुरु सेवा में अत्यन्त आसक्त, चन्द्र की भाँति अत्यन्त तीक्ण बुद्धि वाले, पूर्वांचायों के सिद्धांताथ में स्थित एवं मंत्रमंत्रार् विंदू कहे गये हैं। घ--नरहयानन्‍्दू--इन्हें सनत्कुमार जी का अवतार कहा -गया है | बैशाख कृष्ण तृतीया, शुक्रवार, अनुराधा नक्षत्र, व्यतिपात योग, मेष लग्न में इनका जन्म कहा गया है। ये वर्णाअ्रम के कर्मों में निष्ठ तथा भगवदाराधनादि शुभ कर्मों में सदा श्रासक्त कहे गये हैं | ड०--योगानन्द -- इन्हें कपिल का अवतार कहा गया है इनका जन्म काल बैशाख बदी सप्तमी, -बुधवार, मूलनक्षत्र, परिधयोग, कक लग्न दिया गया है। चः--मनु के अवतार पीपा का जन्म काल चैत्र पूरणमासी, बुधवार, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र, श्रुव योग, धन लग्न कहा गया है। ये महायोगी, सत्पुरुषों द्वारा सेवित और वैष्णव धर्म के उपदेश में तत्पर कहे गये हैं। छ--कबीर को प्रहलाद जी का अवतार कहा गया है | इनका जन्म काल चेत्रबदी अ्रष्टमी, मंगलवार, मृगशिरा नक्षन्न, शोभन योग, सिंह लग्न माना गया है ये तीथत्षेत्र वास में रत, वेदांत शात्र में निष्ठा वाले तथा खामी रामानन्द जी के कैंकय परायणु कहे गये हैं| ज--- भावानन्द-इनकों जनक का अवतार कहा गया है। इनकी जन्मतिथि बैशाख 'बदी षष्ठी, सोमवार, मूलनक्षत्र, परिधि योग, कक लग्न दी गई है। इन्हें महा- 'मति, महात्मा एवं रामसेवापरायण कहा गया है। ऋ--भीष्स के अवतार सेना बैशाख बदी द्वादशी, रविवार, पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र, ब्रह्मयोग, तुलालग्न में 'उत्न्न एवं भगवद्भत्तों के आराधन में आसक्त कहे गये हैं। ज---बलि के अवतार धना बैशाख बदी अ्रष्टमी, शनिवार, पूर्वाषाद़ा नक्षत्र, शिवयोग, बृश्चिक लग्न में ,उत्पन्न तथा भत्तिमान्‌ पुरुषों में श्रेष्ठ, भगवत्भक्तों के आराधन में 'तत्पर, सदाचार में श्रासक्त, बुद्धिमान्‌, एवं गुरुपादाम्बुजाचंक कहे गये हैं | 2--.. शुकदेव जी के अवतार गालवानन्द चैत्र बदी एकादशी, सोमवार, शुभयोग, 'बूष लग्न में उत्मन्न महायोगी, बुद्धिमान, वेद वेदांत रत, शञाननिष्ठ एवं उपदेश- परायण कहे गये हैं | 5--यमराज के अवतार थे रमादास, जो चैत्र सुदि द्वितीया, शुक्रवार, चित्रा नक्षत्र, हृषण योग, मेष लग्न में उत्पन्न तथा वैष्णबों की आशा के पालने वाले, भगवद्धर्भ सेवी एवं उदारबुद्धि कहे गये हैं | ड--- पद्मावती जी की जन्मतिथि चेत्रशुक्‍्ल अ्योदशी, गुरुवार, उत्तरा-फाह्गुनी नक्षत्र, शुवयोग, कक लग्न, दी गई है। वे आ्चाय निष्ठावाली, घ्मश, घर्मतत्पर, | 'गुरुभक्ति परायण, एवं दूससे लक्ष्मी जी की भाँति कही गई हैं

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा ३१

रामानन्द के प्रभाव के विषय मे कहा गया है कि वे अपने शिष्य प्रशिष्यों से घिर कर पृथ्वी में निरन्तर सुशोमित होंगे | जगद्गुरु द्वोकर वे कल्याण मार्ग के कारण, शुभ ज्ञान देनेवाले, जगत्‌ में प्राणियों के ध्येय और पूज्य होंगे उनके दशन, स्मरण, अ्रथवा नाम लेने मात्र से पृथ्वी के लोग निस्संन्देह मुक्त हो जावेंगे | उनके मन्त्रमन्त्रार्थ भूषित मत का अवलम्बन कर पुथबी मुनि बृत्ति वाले पुरुषों से सुशोमित हो जायगी | शरच्चन्द्र की भांति उनकी उज्ज्वल पावनकीर्ति का स्मरण कर लोग पापमुक्त हो जायंगे | उनकी कोर्ति भक्ति, ज्ञान एवं कल्याणदायिनी होगी, उससे लोगों का मोह दूर हो जायगा। रामानन्द मूर्तिमानू धमकी भांति होंगे उनसे शत्रु परास्त होंगे। अतः रामानन्दीय वैष्णवों को प्रतिवर्ष उनका जन्म्रोत्तत करना चाहिये। उनकी पूजा कर मनुष्य मनवांछित फल को पायेगा इसके उपरान्त रामानन्द स्वामी के पूजन की विधि कही गई है, जिसका उद्धरण यहाँ अनावश्यक है |

स्वामी जी की दिग्विजय का भी यहां संक्षेप में उल्लेख किया गया हे अपने द्वादश सूर्य सहश शिष्यो से घिर कर विष्णु की भांति रामानन्द इस पुथवी पर भ्रमण करते हुए, विशेष कर, द्वारकादि तीथों में श्रुति-स्मृति आदि से उत्पन्न वादों से शतन्रुश्नों को पश्रजित करते हुए उन्हें राममन्त्र का उपदेश देते हुए आसमुद्र चारों दिशाश्रों में विचरण करते हुए, नास्तिकों को पराजित कर लोक-अज्ञान को दूर करते हुए एवं अ्रनेक गुणों का लोगों में संचार करते हुए सुशोमित होंगे | वे प्रकृति से शीलवान्‌, दयासागर, मद्दान्‌, घर्मत्राणाथ श्रवतीण विष्णु जी ही होगे | वे भगवद्भक्ति वृत्ति वाले, विद्यावान्‌, निस्पुही, एवं आत्माराम होंगे | वे उदार कीर्ति होगे, योगियों में अग्रगएय, पाखएडनाशक, सोशील्यादि गणों के वद्धक होंगे | उनके दर्शनमात्र से तीनों ताप मिट जांयगे | वे वेदों के गह्याथ का भी प्रकाश करेंगे और गुण, शील, शास्त्र; श्र कर्मों से समस्त शबत्रुश्रों को पराजित करेंगे| इस प्रकार उनसे विश्व का अपार मंगल द्वोगा

स्वामी जी के १०८ नाम भी इस अन्थ में गिनाये गये हैं। जिनमें उन्हें रामानन्द, रामरूप, राममंत्राथविदू, कवि, राममंत्रप्रद, रम्य, राममंत्रर्त, प्रभु, योगिवर्य, योगगम्य, योगज्ञ, योगसाघन, योगिसेव्य, योगनिष्ठ, योगात्मा, और योगरूपध्ृकू भी कद्दा गया है| उन्हें वाग्मी, सुदर्शन, जगतपूज्य, एवं श्रुव भी कहा गया है गुणवगग के द्योतक पहले श्रक्गर र, य, श, म, भ, श्र, सु, प, अ; से, ज, आदि हैं, और श्रन्त में कहा गया है कि ऋइृच्छ चान्द्रायशैकादशी, जयन्ती, आदि ब्रतों के भी आचरण करनेवाले रामानन्द जी थे |

३२ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

अगरत्य-संहिता की प्रामाणििकता--श्रगस्य-संहिता! की रचना कक्ष हुई और किसने स्वामी जी के जीवन-बृत्त का सकन्नन किया, यह नहीं कहा जा सकता | इसको प्रामाणिकता के सम्बन्ध में केवल इसी दृष्टिकोण से विचार किया जा सकता है कि इसके भविष्योत्तरखण्ड में प्राप्त स्वामी जी का जीवन- वृत्त प्रामाणिक है या नहीं ! निम्नलिखित कारणों से श्रगस्त्य सहिता की स्वामी जी सम्बन्धी कथा प्रामाणिक मानी जा सकती है |

१---इसमें स्वामी जी का जो भी जीवन-बृत्त दिया गया है, वह चामत्कारिक घटनाओं से हीन है रामानन्द जी की जन्म-तिथि, जन्म-स्थान, गुरु, शिक्षा- दीक्षा, आदि के सम्बन्ध में जो कुछ मत इस ग्रन्थ में दिया गया है, वह एक ओर तो रामानंद सम्प्रदाय में नि्बिबाद मान्य है, दूसरे उनको सत्यता विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध भी कर दी गई है | डा० भण्डारकर, डा० ग्रियर्सन, डा० वथ्‌ वाल, आदि विद्वानों ने 'अगस्त्य संहिता? के आधार पर स्वामी जी की जन्मतिथि सं० १३५६ वि. मानी है। विभिन्न दृष्टियों से भी देखने पर यह असगत नहीं प्रतीत होती | हम इसे प्रामाणिक तिथि मानते हैं, इस सम्बन्ध में हम विभिन्न मतों की समीक्षा स्वामी जी का जीवन-बृत्त उपस्थित करते समय करेंगे | न्‍

२--इस ग्रन्थ में स्वामी जी के शिष्यों की संख्या तथा नाम वही दिये गये हैं, जो भक्तमाल में भो लगभग मान्य हैं; केवल उन्हें किसी-न-किसी महाभागवत का अवतार मान लेने को ग्रद्नत्ति अगल्व-संहिता में विशेष है। इतनी छूट तो किसी भी साम्प्रदायिक व्यक्ति को अपने महापुरुषों के संबंध में लिखते समय दी जानी ही चाहिये | यह अ्रवश्य है कि शिष्यो के जन्म के संबतों का यहाँ कोई उल्लेख नहीं है।

२--स्वामी जी के महत्व तथा उनकी दिग्विजय के वर्णन में कुछ भी अत्युक्ति नहीं की गई है | लेखक का दृष्टिकोण पहुत कुछ निष्पक्ष एवं उदार प्रतीत होता है | इसी प्रकार जब उसने स्वामी जी के १०८ नामों को गिनाया है, तब भी उनके गुणों पर ही विशेष ध्यान रक्खा गया है

जो हो, अ्रगस्त्य-संहिता का दृष्टिकोण पर्याप्त निष्पक्ष है। उसे संप्रदाय ( रामानंदी ) की पूरी मान्यता एवं विश्वास प्राप्त है। साथ ही विभिन्न दृष्टियों एवं साक्ष्यों के अनुसार देखने पर भी उससे प्राप्त स्वामी जी का जीवन वृत्त अ्रप्रामाणिक नहीं ठहरता | अपने अध्ययन में हमने इस अन्थ से प्राप्त तिथि,

ग्रधभ्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा हे३

तथा जन्म-स्‍्थान, माता-पिता आदि निर्देशों की प्रामाशिक्रता की जांच भी. प्रसंगानुकूल की है

भविष्य पुराण :--भविष्य पुराण? के प्रतिसर्ग पवं, चतुथ खण्ड, सप्तम भ्रध्याय में रामानन्द के अवतार की कथा दी हुई है।* रामानन्द की कथा कहने के पूर्व देवताश्रों को सूर्य के प्रभाव की एक गाथा सुनाई गई है, जिसमें मायावती के मित्रशर्मा ओर कलसेन राजा की चित्रिणी नामक द्वादशवर्षीया कन्या एक दूसरे पर गंगाद्वार में आक्ृष्ट होते हैं और सूर्य की पूजा कर उन्हों की कृपा से विवाह बन्धन में बंध भी जाते हैं | अन्त में १०० वर्ष तक निजेर रह कर आनन्दमय जीवन व्यतीत करते हुए वे मृत्यु के पश्चात्‌ सूर्य में मिल जाते हैं

सूर्य की इस गाथा को देवताओं के साथ देवराज ने सुना और प्रत्यक्ष ही भास्कर सूर्य को देखा भक्ति नम्न देवों को देखकर तिमिर विनाशक सूय ने देव कार्य साधक वाणी में कहा कि, मेरे अंश से पृथ्वी पर एक पुत्र उत्पन्न होगा? और यह कह कर अपने बिम्ब की तेजराशि को उन्होंने काशी में केन्द्रित कर दिया इसीसे कान्यकुब्ज ब्राह्मण देवल के पुन्न-रूप में रामानन्द का जन्म हुआ यह बालक बाल्यावस्था से द्वी ज्ञानी रामनामपरायण था। माता-पिता से व्यक्त होकर वह जब राघव की शरण गया, तब चतुदंश कला युक्त साक्षात्‌ भगवान सीतापति ने प्रसन्नता से उसके हृदय में निवास किया | इस प्रकार सूत जी कहते हैं. कि सूर्य के अंश से उत्पन्न बलवान हरिभक्त रामानन्द की यही कथा है

रामानन्द के शिष्यों के सम्बन्ध में इस प्रतिसर्ग पर्व में अनेक संकेत मिलते हैं | इसके अनुसार रेदास* मानदास चमार के पुत्र थे। ये एक बार काशी श्राये और वहां उन्होंने रामभक्त कबीर को पराजित किया इसके पश्चात्‌ वे शंकराचार्य के पास शास््रार्थ के लिये गये पूरे रात दिन दोनों में शासत्राथ होता रहा, और अन्त में ब्राह्मणों के नेता शंकराचाय द्वारा पराजित होकर वे रामानन्द के पास आये और उनके शिष्य हो गये। त्रिलोचन*, नामदेव जिन्होंने दिल्ली के सिकन्द्र सुल्तान द्वारा प्रत्त आधी करोड़ मुद्राओं से काशी में एक.

१-- श्लोक ५२-श८

२-वबही, अध्याय १८, श्लोक ५३-२४

३--वबही, अध्याय १५५ श्लोक ६४-६७

४--वहं, श्रध्याय १६, श्लोक ५१-५५५ अध्याय २० श्लोक ६४-६५। डर

३४ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिन्दी-साहित्य पर उसका प्रभाव

घाट बनवाया था तथा गुजर देश के नरश्री' ( नरसी मेहता ) आदि का काशी आकर रामानन्द का शिष्य होना कहा गया है। इसी प्रकार रामानन्द रंकन,' सधना के गुरु कबीर”, पीपा* और नानक के भी गुरु कहे गये हैं। जिस प्रकार निम्बादित्य, विष्णुस्वामी, मध्वाचार्य, शंकराचाय, बराहमिहिर, वाणी- भूषण, घनवन्तरि, भट्टो जी, रोपण, ओर जयदेव ने कांची, हरिद्वार, मथुरा, काशी, उज्जयिनी, कान्यकुब्ज, प्रयाग, उत्पलारण्य, इष्टिका, और द्वारका में “सुकन्दरः द्वारा हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिये स्थापित यन्त्र को उल्न डाला था, उसी प्रकार अयोध्या में स्वामी रामानन्द के एक शिष्य ने मुसलमान हो गये हिन्दुओं को फिर से वैष्णव बनाया ।* कहा जाता है कि रामानन्द के प्रभाव से वे सभी पंच संस्कारों से संयुक्त हो गए। ऐसे वैष्ण॒वों को संयोगी कहा गया है इसी प्रकार २२ वें अध्याय में यह भी कहा गया है कि बाबर द्वारा भ्रष्ट किये जाने पर शंकराचार्य के गोन्नज मुकुन्द ब्रह्मचारी श्रपने २० शिष्यों के साथ अग्निप्रवेश कर गये |* बाद में मुकुन्द ब्रह्मचारी अकबर के रूप में अवतरित हुए. ।* सात शिष्य तो श्रकबर के दरबार में सुशोमित हुए* *, ओर शेष १३ विभिन्न स्थानों में चले गये | इनमें से शिष्यों ने रामानन्द- सम्प्रदाय में दीक्षा ले ली | श्रीधर श्रनप के पुत्र तुलसी शर्मा के रूप में उत्पन्न हुए. | ये पुराणों में निष्णात थे। श्रपनी पत्नी के उपदेशों से प्रेरित होकर राघवानन्द के पास आकर रामानन्द-सम्प्रदाय में शिष्यत्व स्वीकार करके काशी रहने लगे थे ।** शम्मु चन्द्रभट्ट की जाति में हरिप्रिया नाम से उत्पन्न हुए

१-वही, अध्याय १७, श्लोक ६०-६६ २--अध्याय १६, श्लोक ८१ ३-वही, अध्याय १८ श्लोक ५०-५१ | ४-वही, अध्याय १७, श्लोक ४०। ५-वही, श्रध्याय १७, श्लोक ८३-८५ | ६-वही, श्रध्याय १७ श्लोक ८३-८७ | ७-वही, अध्याय २१, श्लोक ४५-७५ | ८--वही, अध्याय २१, श्लोक ५४-५५ और ५८। १--अध्याय २२ श्लोक 8 से ११ तक

१०--श्लोक 8-१७, वही

११-वही, श्लोक २०-२६ तक

१२-वही, श्लोक २७। २१३-वही, श्लोक २७ से २६ |

अध्ययन की सामग्री तथा उसको परीक्षा ३५

और “माननद-सन्पर्स में दीक्षित होकर अपने आराध्य की प्रशंसा के गीत में निरत रहने लगे ।* वरेश्य अग्रभुक्‌ ( परिडत रघुबर-मिट्हूलाल शास्त्री के मत से कदाचित्‌ अग्रदास )* के नाम से उत्पन्न हुए। ये ज्ञान-ध्यान में सदैव निरत रहते थे। ये भाषा छुन्दों के कबि थे और रामानन्द-सम्प्रदाय में दीक्षित हो गये थे ।' मधुव्रतिन्‌ कीलक ( कदाचित्‌ कील्हदास ) के रूप में उत्पन्न हुए उन्होंने रामलीला का प्रचार किया और अन्त में वे रामानन्द्‌ सम्प्रदाय में प्रवेश कर गये।” विमल दिवाकर नाम से उत्पन्न हुए और उन्होंने सीता- लीला का प्रचार कर *;-.+ "+. म॑ दीच्षा ले ली ।*

इसी तृतीय प्रतिसर्गपव के चतुर्थ खण्ड में एक राम शर्मन की भी कथा दी हुई है ।* वह इस प्रकार है :--काशी में एक शिवोपासक रामशर्मन्‌ थे शिवरात्रि के दिन शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिया और एक वर माँगने को कहा शिव के इस कथन पर रामशर्मा ने उनसे कहा कि मेरे हृदय में वही देवता निवास करें, जिसका आप ध्यान किया करते हैं| शिव ने इस पर शाम- लद्मण का ध्यान और बलभद्गर की पूजा देकर अपने को अन्तर्घान कर लिया। भक्त रामानन्द था और द्वादशवर्षीय कृष्ण चैतन्य के पास जाकर उनका शिष्य हो गया; और उन्हीं के कहने से उसने श्र्रध्यात्म रामायण” की रचना की | कथा पर टिप्पणी करते हुए पशिडत रघुबर मिट्हुलाल शास्त्री जी ने लिखा है कि इसका तात्पय केवल इतना है कि काशी के रामानन्द ने शैव घमम को छोड़

वेष्णव घम को अपनाने के थोड़े ही दिन बाद और अपने रामानन्दी सम्पदय की स्थापना के पूव भश्रध्यात्म रामायण? की रचना की, और कृष्ण चैतन्य के पास जाकर उनका शिष्य हो जाना लेखक की कोरी कह्मना जान पढ़ती है।” क्योंकि बिना देश-काल का विचार किये किसी-न-किसी बड़े

१-बवही, श्लोक ३०-३१

२- दि आथरशिप आवू अध्यात्म रामायण), गंगानाथमा रिसर्च इन्ट्टीस्यूट जर्नल पृ० २२३ |

२३-भ० यु० तृ० श्र० खण्ड श्रष्याय २२ श्लोक ३१-३२

४-वही, श्लोक ३२-३३

५०-वहीं, श्लोक ३३-३४ |

६-खण्ड ४, अध्याय १३, श्लोक २१-३२

७--दि भ्राथरशिप श्राव्‌ श्रध्यात्म रामायण, पृष्ठ २१६

३६ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

महात्मा को वह कृष्ण चैतन्य के पास शांतिपुर नदिया में भेजता है, और उससे उनका शिष्यत्व स्वीकार करबाता है |*

इसी खण्ड में रामशर्मा का एक और परिचय दिया गया है।* इसके अनुसार रामानुज दाज्षिणात्य आयशर्मा के घर उत्पन्न हुए थे, और रामशर्मा के छोटे भाई थे। रामशर्मा पतंजलि के अनुयायी थे | एक बार तीथयात्रा के संबंध में ये काशी आए वहाँ अपने १०० शिष्यों से घिर कर उन्होंने शंकराचार्य से शास्त्राथ प्रारम्भ कर दिया | शंकर द्वारा पराजित होकर उनके शब्द-वाण से दुःख अनुभव करते हुए लज्जानन होकर रामशर्मा फिर अपने घर को लौट गए | फिर शाञ्र पारगत रामानुज अपने भाई के शिष्यों से घिर कर काशी आए वहाँ उन्होंने वेदान्त शास्त्र पर शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया | रामातुज कृष्ण के पक्त . में थे और शंकराचार्य शिव के | रामानुज ने शंकराचार्य को उन सभी शाख्रं में पराजित किया, जिन जिनका उन्होंने अवलम्बन किया | अन्त में शुक्ल वस्त्र पहन कर शंकराचार्य रामानुज के शिष्य हो गए, और 'गोबिन्दः का नाम उच्चारण कर उन्होंने अपने को पविन्न किया |

इस कर्थाश पर भी परिडित रघुवर मिट् लाल शास्त्री ने टिप्पणी की है-- यह कथा लेखक की कपोलकल्पना है | यदि इसका कोई अथ हो सकता है तो केवल यही कि इसमें शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन पर कृष्ण-भक्ति की विजय दिखाई गई है | इस अद्वैत दर्शन के सामने रामानन्द को भी क्ुकना पड़ा जो भक्ति के स्वयं समर्थक थे, और अपने अनुयायियों ( साम्प्रदायिकों ) के अनुसार

जिनकी आचारय-परम्परा ( जिसमें सभी मूलतः दाक्षिणात्य थे ) रामानुज की अपेक्षा कहीं श्रधिक प्राचीन है [१३

“भविष्य-पुराण” की प्रामाणिकता--क--“भविष्य-पुराण? में रामानन्द का जीवन-वृत्त कब जोड़ा गया, यह कहना कठिन है, किन्तु इतना तो निश्चित है कि यह अंश तुलसीदास के समय में अथवा उसके बाद ही जोड़ा गया होगा रमानन्द-संप्रदाय इतना विस्तृत, इृढ़ एवं उदार बन चुका होगा कि उसमें अद्ठैत मतवालों को भी कुछ-न-कुछ आकषण प्राप्त होता रह होगा। मुकुन्द ब्रह्मचारी

नराध रा थम: मन शीजलज ओर शमी

९--वही, पृष्ठ २१६ २-- भविष्य पुराण', चतुर्थ खण्ड अध्याय १४ श्लोक ८७ से ११८ तक

दि आथरशिप आव्‌ अध्यात्म रामायण--.पं० रघुबर पिट ठूलाल शास्त्री, पृष्द र२२१। है

अध्ययन की सामग्री तथा उसको परीक्षा ३७

के शिष्यों की कथा से यद्दी संकेत मिलता है। भक्त 'दिवाकरः नाभादास के समकालीन थे, भक्तमाल में उनका उल्लेख हुआ है |

ख--तृतीय प्रतिसग के लेखक ने इतिद्दास के सत्य की पूरी अवहेलना की की है | रैदास और शंकराचार्य, रामानन्द, शंकराचाय तथा रामानन्द और नानक (जन्म सं० १५२६ वि० ) को समकालीन कहा गया है। इसी प्रकार त्रिलोचन (जन्म सं० १३२४ वि० )*, नामदेव, ( वि० १३२७-१४०७ )* तथा नरसी मेहता (सं० १४७२-१५३८)९, और नानक (सं० १५२६ जन्म)” को रामानन्द का शिष्य कहा गया है। एक तो इस प्रकार का उल्लेख भक्तमाल आदि प्राचीन ग्रग्थों में नहीं मिलता कि उपयुक्त भक्त स्वामी जी के शिष्य थे, दूसरे यदि इसे तत्य मान लिया जाय तो रामानन्द का जीवनकाल कम-से-कम १३२४ वि० सं० से सं० १५३८ तक मानना पड़ेगा इस प्रकार उनकी आयु कम-से-कम २०० वर्ष की ठहरती है, जो असम्भव है। इतना अत्युक्तिपू्ण उल्लेख प्रतिसग पर के लेखक की अ्रनभिज्ञता का ही परिणाम है| इसी प्रकार लेखक राघवानन्द और तुलसी- दास को समकालीन मानता है फिर, राघवानन्द जी तुलसी शर्मा को क्‍यों रमानन्द-सम्प्रदाय में दीक्षित करते ! इससे यह अनुमान कर लेना कि लेखक तुलसीदास का भी समकालीन प्रतीत नहीं होता, असंगत होगा उसका इतिहास-सम्बन्धी ज्ञान एकदम शूत्य है

ग--इस सग में रामशर्मन्‌ की कथा को देख कर कुछ विद्वानों ने अनुमान किया है कि वे रामानन्द ही हैं, अतः “अध्यात्म रामायण” रामानन्द की ही कझत्ति है। किन्तु रामानन्द को काशी निवासी और रामशर्मन्‌ को दात्षिणात्य ( आचाय शर्मन का पुत्र तथा रामानुज का श्रग्मज ) कहा गया है, फिर लेखक ने रामानुज, रामशर्मन्‌, चैतन्य, और शंकराचार्य को समकालीन मान कर पुनः अपनी इति- हास ज्ञान-शून्यता का परिचय दिया है। अतः रामशर्मन और रामानन्द को भिन्न ही मानना होगा | यदि लेखक की इतिदास-सम्बंधी अज्ञानता का विचार भी किया जाय तो भी रामानंद को लेखक ने स्पष्ट ही काशी में उत्पन्न एवं राघव का शिष्य कहा है तथा रामशमन्‌ को दाक्षिणात्य और चेतन्य महाप्रभु से प्रभावित

१--उत्तरी भारत की सन्त परम्परा, परशुराम चतुर्वेदी, पू० १२३ २--वेदी, ए० ६६

' २०-वह्दी, पृष्ठ ११ ४-वबही, पृष्ठ शु८६& ।'

शेप रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

घ--रामानन्दी भक्त रामानंद को राम का अवतार मानते हैं, सूर्य का नहीं: उनके पिता का नाम सम्प्रदाय की मान्यताओं तथा अगस्त्थ संहिता? के आधार पर पुण्यसदन है, देवल नहीं। रामानन्द माता-पिता द्वारा परित्यक्त होकर राघव (राघवानन्द) की शरण गए, इसका कोई निश्चित्‌ प्रमाण नहीं मिलता रामानंद बाल्यकाल से ही भक्त एवं ज्ञानी थे, तथा उनका मुख्य निवास-स्थान काशी था | इसे प्रायः सभी साक्ष्य खीकार करते हैं

निष्कर्ष :--ऊपर की विवेचना से यह स्पष्ट है कि “भविष्य-पुराण? के समस्त उल्लेखों को प्रमाण-कोटि में नहीं लिया जा सकता है |

वेश्वानर संहिता--वैश्वानर संहिता की सूचना डाकोर से सं० १६६३ में प्रकाशित श्री रामानन्द जन्मोत्सवः ग्रंथ में पं० रामनारायण॒दास ने दी है। यह संहिता कहाँ से प्रकाशित हुई, अथवा कहाँ मिल सकती है, इसकी कोई भी सूचना परिडित जी ने नहीं दी है। उनके द्वारा इस संहिता से निम्नलिखित श्लोक रामानन्द के संबंध में उद्धुत किये गए हैं :--

सो | वातरज्जगन्मध्ये लंतू्नां भवरसंकटात्‌ पार कर्ते' हि धर्मात्मा रामानन्द्स्स्वयं स्वभ: १॥ माघे कृष्ण सप्रम्यां चित्रा नज्ञत्र संयुते कुम्भलग्ते सिद्धि योगे सुसप्तदन्‍्डगेरबौ २॥ रामानन्द: स्वयंर[मः प्रादुर्भतो महीतले | भ्छ आप कला लोके मुनिर्जातः सर्वजीवदयापर: )। तप्तकांचनसंकाशो रामानन्दः स्वयं हरि: इसके पश्चात्‌ ही निम्नलिखित श्लोक उद्धत किया गया है :--- रसेपुत्रयवनीसंस्ये . वर्ष वैक्रमः राजके | साधस्यासितसप्रम्यां रामानन्दो हमदभुवि १॥ उपयुक्त इलोकों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं :- क-जन्तुओ्रों के ताप को दूर करने के लिये स्वयं भगवान धर्मात्मा रामानन्द के रूप में जगत्‌ में अवतरित हुए थे।

ख-रामानंद ख़यं राम के अवतार थे |

ग्‌ ने त्मि है हि पु उमात्ता, सर्वजीवदयापर एवं तप्तकांचन की भाँति प्रकाश- मय थे |

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा रे६

घ--रामानन्द का जन्म माघ कृष्ण सप्तमी, चित्रा नक्षत्र, कुम्भ लग्न, सिद्धि योग, सूर्य के उदय होने के सात दण्ड-बाद सम्बत्‌ १३५६ वि० में हुआ था

इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान पूर्णतया संदिग्ध है, अतः हम इसकी प्रामाशिकता के विषय में कुछ भी नहीं कह सकते | फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस अन्थ की उद्धुत पंक्तियों में रामानन्द के संबंध में जो कुछ भी कहा गया है, वद्द सम्प्रदाय की रामानन्द-सम्बन्धी धारणाओं के पूर्णतया अनुकूल है रामानन्द-सम्प्रदाय में रामानन्द, राम के ही अवतार माने जाते हैं। उनकी जन्मतिथि भी सं० १३१५६ वि० माघ कृष्ण सप्तमी मानी जाती है। अ्रगस्त्य सहिता? में भी यही तिथि दी गई है | भमण्डारकर जैसे विद्वान भी इस तिथि को स्वामी जी के जन्म की प्रामाणिक तिथि मानते हैं

वाल्मीकि-सं हिता--वाल्मीकि संहिता की मुख्य देन इस बात में है कि. इस ग्रन्थ में भगवान्‌ राम के रामानन्दावतार में तीथथराज ग्रयाग में जन्म लेने का कारण बतलाया गया है एक समय भगवान्‌ शंकर ने पावती को “मैथिली महोपनिषत्‌” ( जो पूरा का पूरा इस भन्थ में मिल जाता है ) सुना कर कहा कि इस “उपनिषत्‌” को सुन कर आचाय का स्तवन करना चाहिये इस पर पावंती ने पूछा, वह कौन सा आचाये है जिसकी उपासना की जाय ९!, तत्र शंकर ने बतलाया कि यों तो संसार में अनेक आचाय हो चुके हैं, किन्तु पाखणड प्रचुर कलि में विष्णु धर्म प्रवरतेक रामानंद के रूप में स्वयं भगवान्‌ राम अवतार लेंगे; और क्योंकि धर्म प्रचारक ब्राह्मण ही होते आए. हैं, इसलिये वे महापुणय प्रयाग भे जन्म धारण कर सवंशास्त्र संपन्न ब्रह्मचारी, महात्रती होकर त्रिद्‌ण॒ड घारणु कर काशी में निवास करेंगे उन्हीं का संस्तवन महापातक नाशक है। इस पर पार्वती को शंका हुई कि “भगवान्‌ राम को तो साकेत ही प्रिय है, फिर वे तीर्थराज प्रयाग में क्‍यें। प्रकट हुए, !? शंकर इसी प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देते हैं :---

किसी समय प्रयाग में दस वर्षीय मनसुख नामक बालक बन में रद्द कर तपस्या किया करता था | अपने बालरूप में अपनी निव्याजरति देख कर भगवान्‌ वहीं प्रकट हो गए, और उन्होंने मनसुख के साथ बहुत देर तक क्रीड़ा की | जब वे चलने लगे तब्र मनसुख को बड़ा दुख हुआ, पर उसने उन्हें-रोका नहीं, प्रत्युत वन्य फलों से उनका सत्कार द्दी किया इससे संतुष्ट होकर भगवान ने उससे वर मांगने को कहा | मनसुख ने वर मांगा कि उसका उनसे अविचल

लैह० रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

'एवं भ्रुव संबंध बना रहे | 'एवमस्त” कह कर भगवान्‌ अन्तर्घान हो गये। मनसुख को बड़ा कष्ट हुआ कि जिस घर से वह दूर है उसी को बसाने का वरदान उसने भगवान से मांग लिया | परन्तु भगवान्‌ ने उसे स्वप्न में आश्वा- सन दिया और उसकी इच्छा को पूर्ण करने के लिये ही उन्होंने प्रयाग में जन्म धारण किया

वाल्मीकि संहिता? की प्राचीनता के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता | इतना तो स्पष्ट ही है कि इस ग्रन्थ का पता तब तक लोगों को नहीं था जब तक इसका प्रकाशन नहीं हुआ था | इस बात की पुष्टि के लिये मैं इस अन्थ के सम्पादक श्री भगवतदास ब्रह्मचारी द्वारा लिखित भूमिका से इन पंक्तियों की ओर विद्वद्वग का ध्यान आकृष्ट करता हूँ :---

“हमने अब से पहले कभी इसलिये प्रयत्न नहीं किया था कि हम भी सार में सर्वोच्च और साम्प्रदायिक गिने जावें। परन्तु अब हम नये युग में हैं... ... «अरब तो अपने धमे, कम, रूप, मर्यादा, सभी पदार्थों की गवेषणा करनी है... ... ... ऐसा करने से हम उसी रेखा पर खड़े रह जावेंगे जहाँ रह कर हमने अपनी उन्नति का मार्ग भुला दियए है... ... ...जहाँ से हमें पंथाई की उपाधि मिली थी और जहाँ रह कर हमने इस कलंकित उपाधि को स्वीकार कर लिया था |” अनन्‍्थ की मूल प्रति के विषय में लिखते समय श्री रघुबरदास वेदान्ती ने इस अन्‍्थ के प्रारम्भ में लिखा है कि “पुरातत्वानुसंधायिनी समिति ने अल्पकाल में ही श्री रामानन्द-सम्प्रदाय का बहुत उपकार किया है। यह समिति कुछ काल से इस चिन्ता में थी कि कोई ऐसा प्रामाणिक ग्रन्थ उपलब्ध हो जिसमें श्री रामानन्द सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का अच्छा वर्णन हो | अनवरत परिश्रम के,बाद अ्रन्त में अहमदाबाद में परिडत वृन्दाबन शर्मा जी के यहाँ नारद पांचरात्रान्तगंत “श्री मद्वाल्मीकि संहिता? की एक प्रति उपलब्ध हो ही गई | साथ ही दूसरी प्रति पूने के पशशीकर के० बी० शर्मा जी से उपलब्ध हुईं इन्हीं दोनों प्रतियों के आधार पर इस ग्रन्थ का सम्पादन किया गया है” ऊपर के उद्धरणों से स्पष्ट है कि 'वाल्मीकिसंहिता? का प्रकाशन किसी निश्चित उद्देश्य से किया गया है। इधर जब से रामानन्द-सम्प्रदाय और रामानुज-सम्प्रदाय में परसरा-संबंधी झगड़े चले हैं, तब से अनेक ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं आनन्द भाष्य” का भी प्रकाशन इसी संबंध में इस ग्रन्थ के प्रकाशित होने के : आठ वर्ष बाद सन्‌ १६२६ में श्रहमदाबाद से ही हुआ था। जब तक इन ग्रन्थों ' की प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हो जाँय और उनकी पूर्ण परीक्षा हो

श्रध्ययन की सामग्री तथा उसको परीक्षा हल

जाय तब तक उनकी प्रामाणिकता नितान्त ही संदिग्ध है। जो हो, स्वामी जी के प्रयाग में जन्म लेने का जो कारण इस ग्रन्थ' में बतलाया गया है, उससे हमारे अध्ययन को कुछ भी गति नहीं मिलती | इससे केबल इतना ही ज्ञात होता है कि सम्प्रदाय रामानन्द को राम का अवतार मानता है। राम को यद्रपि ताकेत प्रिय है, परन्तु भक्त मनसुख के लिये उन्होंने अपने रामानन्दावतार में प्रयाग में ही जन्म लिया

रसिक प्रकाश भक्तमाल--रसिक प्रकाश भक्तमाल? के लेखक महन्थ जीवाराम जी ने इस ग्रन्थ में रामानन्द-सम्प्रदायान्तगंत 'रसिक-सम्प्रदाय”ः के भक्तों का विवरण उपस्थित किया है। ये चिरान ( छुपरा ) के रहनेवाल्ते कान्यकुब्ज महात्मा शंकरदास के पुत्र और अयोध्या जानकी घाट के प्रसिद्ध रामायण टीका- कार महन्थ रामचरणुदास के शिष्य थे | जीवाराम जी को शंकरदास जी ने ही श्रग्गदास कृत ध्यान मंजरी” दी थी*, और बाद में चल कर महन्थ रामचरणु दास जी ने इनमें माधुय॑ भाव की भक्ति को पुष्ट कर दिया। इन्हीं से इनको अ्लि! नाम का सम्बन्ध भी मिला | इस अन्थ की रचना सम्बत्‌ १८६८ वि० के लगभग हुई थी | जीवाराम जी के शिष्य वासुदेवदास उपनाम जानकी- रसिक शरण के मनमें सं० १६१६ श्रावण शुक्ला £ सोमवार को इसकी टीका करने की इच्छा हुई जो सं० १६४२ वि० में समाप्त हुई | ग्रन्थकार ने इसका रचनाकाल यों दिया है :--

श्रीजनक किशोरी व्याहदिन, उत्सव साज्समाज |

विपुल संत भाविक जहां लक्यो पूर्ण रसराज | श्री गंगातट सरस थल लहि चिरान स्थान। छपरा मुख्य निकुज में सोइसमाज की ध्यान ||

मनन करत आश्चर्य सुख भयो स्वप्न अनुकूल | नवलभक्त माला रच्यो सकल सुमंगल मूल || संवत अष्टादश विशद मकर मास गत पांच | दिवस मनोहर छयानवे प्रकट नवल्-जस सांच माधवसित अट्वानवे नवमी विमल विलास। नवल किशोरी जन्म दिन पूरन रसिक प्रकाश || रसिक-सम्पदाय में जीवाराम जो द्वितीय 'नाभा? कहे जाते हैं और इस 'भक्तमाल'

कार

*--रसिक प्रकाश भक्तमाल, छ॑० २३४ !

४२ रामानन्द साम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

को वही स्थान ग्राप्त है, जो -मानन्‍-नसम्पदाव में नाभादास कृत भक्तमाल को है नामाकृत भक्तमाल के असिद्ध टीकाकार रूपकला जी ने इस ग्रन्थ को प्रामाणिक मान कर अपनी टीका में इससे प्रचुर उद्धरण दिया है |

इस ग्रन्थ में रसिक-सम्प्रदाय का इतिहास प्रस्तुत करते समय लेखक ने सामी रामानन्द, स्वामी राधवानन्द और स्वामी इर्यानन्द के विषय में कुछ पंक्तियां लिखी हैं। माधुय-रस की परम्परा बतलाते हुए: सर्व प्रथम लेखक ने स्वामी हयानन्द के विषय में निम्नलिखित छुप्पय लिखा है :---

चरन कमल बन्दों कृपालु हर्यानन्द स्वामी | सबंस सीताराम रहसि दशघा अनुगामी वालमीकिवर शुद्ध सत्व माधुर्य रसालय दरसी रहसि अनादि पू्वे रसिकन की चालय || नित सदाचार मैं रसिकता अति अदूभुत गति जानिये। जानकि वल्लभ कृपालहि शिष प्रतिशिष्य बखानिये |* आगे लेखक स्वामी राघवानन्द तथा रामानन्द जी के विषय में कहता है :-.- रसिक राघवानन्द बसे काशी अस्थाना | गुरूुरूप शिवलये दई रसिकाई ध्याना काल करालहिं जीति शिष्यकिय रामानन्दा | प्रकटी भक्ति अनादि अवध गोपुर स्वच्छन्दा | आचारज को रूप धरि जगत डउधारन जतन किय | सहिसा महा ग्रसाद की ग्रैगट रसिक जन सुक्खदिय ॥६ उपयक्त उद्ररणों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं ;-. स्वामी हयनिन्द 'दशाधा भक्ति? के अनुगामी एवं सीताराम की रहस्यकेलि के उपासक थे उन्होंने वाल्मीकि द्वारा प्रगटित शुद्ध माधुय रस का दर्शन कर लिया था। उनके सदाचार में भी >दुकत दंग को रसिकता मिली हुई थी | अपने शिष्व-प्रशिष्यों को उन्होंने भगवान जानकी-वह्लभ की स्वयं-प्राप्त कृपा का सन कर सुनाया था | राघवानन्द काशी में शिव की उपासना करते थे, किन्तु शिव ने उन्हें रसिकता का ध्यान दिया था। राघवानन्द ने कराल काल को जीत कर रामानन्द को शिष्य किया, जिससे अवध के गोपुरों में अनादि भक्ति बम जा अल

६--वही, पृष्ठ १० छुप्पय | २-7ही, छप्पय १०, पृष्ठ १०

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा ४३,

खब्छुंद प्रगट हो गई। रामानन्द ने आचारय का रूप धारण कर संसार का उद्धार किया था | फिर तो रसिक जनों के मन में महाग्रसाद की महिमा ही प्रगट हो. गई, इससे उन्हें सुख मिला

इस ग्रन्थ के लेखक का प्रमुख दृष्टिकोण रामानन्द-सम्प्रदाय में शंगारी- भक्ति का इतिहास प्रस्तुत करना रहा है। इसलिये उसने ह्यानन्द, राधवानंद और रामानन्द को भी रसिक मान लिया है। “श्री वेष्णवमताब्जभास्कर! में स्वामी रामानन्द जी ने जीव और ईश्वर के सम्बन्धों का निरूपण करते हुए भार्या-सत तव॒सबम्न्‍्ध भी दोनों में बतलाया है | स्वयं वे कैंकर्य भाव के उपासक थे | लेखक ने इसी संकेत के बल पर कदाचित्‌ स्वामी जी को माधुर्योगासक मान लिया हो आगें चल कर इस भक्तमाल! में रामानन्द-सम्प्रदाय में माघुय भाव के विविध रूपों के विकास का अच्छा इतिहास मिल जाता है इसका हमने पूर्ण उपयोग रामानन्द-सम्प्रदाय का इतिहास तथा सम्बद्धशाखाएँ” बाले प्रकरण में किया है | अतः यहाँ अनावश्यक समझ कर इस प्रसंग को छोड़ दिया जा रहा है।'

रसिक प्रकाश भक्तमाल की टीका--टीकाकार वासुदेवदास उपनाम जानकी रसिकशश्णु : रे

यह टीका सं० १६४२ वि० में समाप्त हुई थी। टीकाकार महन्थ नीवाराम जी के ही शिष्य थे। उन्होंने रामानन्द स्वामी के सम्बन्ध में मूल छुप्पय पर टीका करते हुए. लिखा है कि एक दिन शंकर मतानुबायी रामद॒त्त को बुला कर राधवानन्द ने कहा कि तुम्हारा कॉल समीप है जाकर अपने गुरु से शीघ्र इसका उपाय पूछी गुरु ने राधवानन्द के पास ही उन्हें भेज दिया। राधवानन्द ने पंचसंस्कार, तत्वन्नय, रसिकरीति आदि देकर उन्हें शिष्य बना लिया और उनका नाम रामानन्द रकखा। आगे चल कर अनन्तानंद के फ््संग में टीका- कार ने बतलाया है कि रामभक्ति का प्रचार शठकोप, शमानुज आदि कर गए हैं, बीच में यह मन्द पड़ गया था, रामानन्द ने इसे पुनः जाग्रत किया

इस प्रकार लेखक एक ओर रामानन्द्‌ का सम्बन्ध रामाईुजः संप्रदाय से जोड़ता है और दूसरी ओर रामानन्द को राघवानन्द के यहाँ आने के पूव शिवो- पासक ( शंकर मतानुयायी ) बतलाता है। भक्तमाल ( नाभाइत ) के टीकाकार “रूपकला? जी इस मत से सहमत है। अधिकांश विद्वान इस मत को ठीक ही

१--रसिक प्रकाश भक्तमाल, दीका एछ ६०-१६ २>-वही, पृष्ठ १२-१३

रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

मानते हैं | रामानन्द-सम्प्रदाय में प्रचलित आधुनिक विचार धारा के अनुसार रामानन्द का जन्म से ही रामानन्द नाम था। उनका जन्म प्रयाग में हुआ था और उनके पिता पुण्यसदन ने उन्हें सीधे राघवानन्द के ही चरणों में अपित कर दिया था | अगस्त संहिता? भी इसी मत के पक्ष में है। फिर भी यह निश्चित्‌ रूप से नहीं कहा जा सकता कि कौन सा मत सही है | जो हो, इस अन्थ में श्री जानकी रसिक शरण ने किसी प्रचलित किंवदन्ती का ही सहारा लिया होगा।

टीकाकार ने प्रायः प्रत्येक छुप्पप की टीका लिखी है, और भक्तों की सामान्य-जीवनी पर भी प्रकाश डाला है। आगे हमें रामानन्द-सम्प्रदाय की उपशाखाओं का विवेचन करते हुए, इस ग्रन्थ का सहारा लेना पड़ेगा | वहाँ इसका व्यापक उपयोग किया गया है।

सध्ययुग के अन्य अन्थ--जिनमें रामानंद जी का उल्लेख किया “गया है--

इस संबन्ध में गोस्वामी हरिवंश जी के शिष्य श्र्‌वदास ( वि० १६वीं शताब्दी के अंत और १७ वीं का प्रारम्भ ) कृत 'भक्तनामावली?, “व्यास जी का वरणन?, भगवतरसिक ( श्रीहरिदास जी के <शिष्य ) जी कृत भक्त नामाबली?, मलूकदास कृत 'शानबोध” आदि का नाम लिया जा सकता है |

व्यास जी ने रामानन्द के साथ ही सेन, धना, रैदास, कबीर, पीपा, और -झुरसुरानन्द आदि का भी स्मरण किया है। भगवतरसिक कृत भक्तनामावली में स्वामी रामानन्द तथा उनकी शिष्य-परंपरा में पीपा, सेन, घना, कबीर, रैदास, अग्रदास, नाभा, लाखा, और कूबा जी का उल्लेख किया गया है। मलूकद्रास कृत 'ज्ञानबोध” में रामानंद तथा कबीर, रैदास, घना, पीपा, सेन, कृषा, जंगी जी, ज्ञानी ऋदि का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार नागरीदास जी के ग्रन्थ 'पदप्रसंग माला? में भी कबीर और रैदास के नाम मिलते हैं, किन्तु यहाँ रामानन्द जी का कोई उल्लेख नहीं है | ध्र्‌ बदास जी ने अपने ग्रन्थ “भक्त नामा- वली' में रामानन्द, कबीर, रैदास, धना, पीपा, सेन, नाभा जी आदि के सम्बन्ध में निम्नलिखित उल्लेख किया है :

'रामानन्द--रामानंद, अंगद, सोभू, हरिव्यास अरु छीत। एक एक के नाम तें, सब जग होइ पुनीत

भक्तनामावली, सं० राधाकृष्ण दास १० १०, दोहा १०३,

अध्ययन को सामग्री तथा उसकी परीक्षा पर

अन्यभक्त--जिनि जिनि भक्तनि ग्रीति की ताके बस भए आनि | सेन होइ नप टहल कियो, नाम देव छाईछानि।॥ जगत विदित पीपा, धना, अरु रेदास कबीर | महाधीर दृढ़ एकरस, भरे भक्ति गंभीर वही, दोहा ६८-६६ पृ० १०, इन दोहों से केवल इतना ही ज्ञात द्वोता हैं कि रामानंद एक बहुत बड़े संत थे, जो संसार को पवित्र करनेवाले थे | सेन के लिए भगवान्‌ ने राजा कीं सेवा की थी, पीपा, धना, रेदास और कबीर गंभीर-महाधीर थे एवं रामरस- भक्तिभाव से भरे थे बा० राधाकृष्णु दास ने इन भक्तों के संक्षिप्त जीवन-चरित का उल्लेख करते हुए. निम्नलिखित मत व्यक्त किए: हैं---रामानन्द जी भक्तमाल के साक्ष्य पर दक्षिण देश निवासी सन्यासी थे, राघवानन्द ने उन्हें आसन्न मृत्यु का समा- चार देकर योग द्वारा बचाया | रामानन्द उनके शिष्य हो गए, फिर बदरिकाश्रम की यात्रा करके पंचर्गंगाघाट काशी में बस गये खान-पान संबन्धी मतभेद के ' कारण गुरु ने इन्हें स्वतंत्र मत चलाने का आदेश दिया राधाकृष्ण॒दास ने भारतवर्षीय उपासक संप्रदाय” तर्थी भक्तमाल के साक्ष्य पर रामानन्द को रामा- नुज परंपरा में पांचवाँ आचाये माना है ओर कबीर का समय सं० १५४४५ वि० में मानकर रामानंद का जीवन-काल सं० १४०० और १५०० वि० के बीच माना है| उसी अन्थ के आधार पर उन्होंने स्वामी जी के शिष्यों के भी नाम दिए हैं, किन्तु भक्तमाल में उद्घ्ृत "नामों को उन्होंने अधिक प्रामाणिक माना है राधाकृष्णदास के मत से रामानन्द के रामसत्तास्तोत्र ( भाषा ) और कदा- चित्‌ रामानंदीय वेदान्त भाष्य आदि ग्रन्थ प्राप्त हैं। पहले को” उन्होंने स्वयं देखा था |

:--आधुनिक भ्न्थ---रामानन्द स्वामी के जीवन एवं उनके सम्प्रदाय पर प्रकाश डालने वाले आधुनिक साम्प्रदायिक श्रन्थ :---

१--रामानन्द दिग्विजय ( संस्कृत महाकाव्य )--लेखक भगवदाचार्य |

२--रामानन्दायन ( अवधी महाकाव्य )--लेखक स्वामी जयरामदेव |

३--जगदूगुरु रामानन्दाचार्य--स्वामी देवदास

४--भगवान रामानन्दाचार्य---संपादक हरिचरण लाल वर्मा

४ध रामानन्द सम्प्रदाय तथा रदी-साहिसय पर उसका प्रभाव

रामानन्द-द्ग्विजय--इस ग्न्‍न्थ के लेखक श्री भगवदाचाय रामानन्द- सम्प्रदाय के एक प्रमुख विद्वानू हैं अथ के प्रारम्भ में लेखक ने एक विद्वता पूर्ण वक्‍तृता भी दी है, जिसमें उसने स्वामी रामानन्द जी के जीवन पर प्रकाश डालने वाले विभिन्न ग्रन्थों की समीक्षा की है। उसमें आधुनिक पाश्चात्य एवं पूर्वीय विद्वानों के मतों का भी विस्तृत खण्डन-मण्डन किया गया है| लेखक जिन (निष्कर्षों पर पहुँचा है, उन्हों के आधार पर इस संस्कृत महाकाव्य को रचना की गई है [फिर भी अन्थ चमत्कारपूर्ण घटनाओं एवं कल्पना की क्रीड़ाओं से अछूता नहीं रह सका है | है भी यह महाकाव्य ही, एक इतिहास भन्थ नहीं |

इस ग्रन्थ के प्रमुख आधार शअ्रगर्त्य संहिता! और साम्प्रदायिक मान्यताएँ है। कहीं-कहीं स्वतंत्र कल्पना-शक्ति से भी काम लिया गया हैं | यद्यपि इस ग्रंथ से स्वामी जी के सम्बन्ध में कोई नई सूचना नहीं प्राप्त होती है, फिर भी साम्प्रदायिक धारणाओ्रों को संगठित करने का श्रेय इस ग्रन्थ को प्राप्त है इस ग्रंथ से प्राप्त जीवन-दृत्तकी प्रदुव विशेषताएँ ये हैं :--

१--इस ग्रन्थ में स्वामी जी के जन्म का कारण यवनों के अत्याचार से धरा का त्रस्त होकर देवताओं के साथ विष्णु के पास जाना और उन्हें अवतार लेने के लिये बाध्य करना कहा गया है। २--जन्म॑स्थान, जन्मतिथि, माता-पिता के संबंध में अ्रगस्यसंहिता को ही प्रमाण स्वरूप लिया गया है। ३--बालक रामानन्द को काशी के राघवानन्द ने ही दीज्ञा दी और अन्त में सन्‍्यास विधि से त्रिदएड ग्रहण करा कर पृथ्वी पर राममंत्र के प्रचार का आदेश दिया इसके अनन्तर रामानन्द पंचगंगा घाट पर हीं रहने लगे | ४--श्रपने मत का प्रचार करने में रामानन्द को योगियों, कार्तिकेय सम्प्रदाय के दर्डियों, तारादेवी के उपासकों, शैवों, और मुल्लाश्रों आदि से विशेष संघर्ष करना पड़ा। इनमें दुजनानन्द योगी, तारोपासक अपार स्वामी एवं उनकी कन्या, महासेन नामक दक्षिणी विद्वान्‌, एक दूसरे दक्षिणी विद्वान्‌ सत्यमूर्ति, सिद्धसेन जैन, मैसूर के सुरेश्वराचार्य आदि कुछ विशेष व्यक्ति हैं। स्वामी जी ने इन सब्रको परास्त कर रामभक्त बना दिया | ५--स्वामी जी के शिष्यों की संख्या वही है जो अगस्प्यसंहिता? में दी गई है। जन्मतिथियाँ भी वही हैं | केवल कुछ शिष्यों के माता-पिता का नाम 'तथा जन्मत्थान आदि और जोड़ दिये गये हैं अननन्‍्तानन्द के पिता का नाम शिवविश्वनाथ त्रिपाठी और जन्मस्थान अयोध्या के पास महेशपुर ग्राम कहा गया है सुरसुरानन्द का जन्म स्थान लक््मणशपुर ( लखनऊ ) और पिता का नाम सुरेश्वर कहा गया है। सुखानन्द को उज्जैन के समीप त्रिपुर ग्राम के विद्वान

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा ४७

त्रिपुरारि के ग्रह उत्पन्न कहा गया है। नरहयाननन्‍द को बृन्दाबन के समीप एक ग्राम में महेश्वर ब्राह्मण के घर में उत्पन्न कहा गया है | योगानन्द्‌ का जन्म सिद्धपुर के पशिडित मणिशंकर के यहाँ कहा गया है | कबीर को भार्यावियोग से व्यथित श्राकाशगामी किसी देवता के बीय॑स्खलन से काशी के लहर तालाब में कपल के पते पर उत्पन्न कहा गया है इसी प्रकार भावानन्द का जन्म मिथिला के बहुवेह ग्राम में रघुनाथ मिश्र के घर कह्दा गया है। शेष शिष्यों के सम्बन्ध में श्रगस्य संहिता? की ही सूचनाएँ दी गई हैं |

दिग्विजय--दिग्विजय के सम्बन्ध में स्वामी जी ने दो बार यात्राएँ कीं। पपा के निमन्त्रण पर पहले वे गांगरीनगढ़ गए फिर वहाँ से रैबतक पव॑त, बादवस्थली सोमनाथ, द्वारका, आबू, पुष्करत्तेत्र, उज्जैन, श्रयोध्या आदि स्थानों का अ्रमण करते हुए काशी लौट आये | दूसरी बार की यात्रा में स्वामी जी पहाराष्ट्, महीशूर ( मैसूर ), अ्रंग, बंग, कलिंग, मिथिला, आदि स्थानों का भ्रमण करते हुए. पुनः काशी गये इसमें उन्होंने अ्रपने तत्ववाद का प्रचार किया और विरोधियों को परास्त किया। अ्रन्त में उन्होंने श्रयोध्या जा कर धर्म प्रष्ठ हिन्दुओं को मुसलमान से हिन्दू बनाया

सम्प्रदाय का विस्तार--स्कमी जी ने मृत्युकाल समीप जान कर प्रनन्तानन्द को काशी रह कर ओर सुरसुरानन्द को पंजाब, भावानन्द को दक्षिण, ररहर्यानन्‍्द को उत्कल, गालवानन्द को कश्मीर, पीपा तथा योगानन्द को गुजेर देश, धना, कबीर, रमादास और सेन को काशी रह कर धम एवं भक्ति प्रचार का आदेश दिया है

स्वामी जी का साकेत-गमन--अ्पने संदेशों को जनता तक पहुँचा कर पूर्णातया निश्चित द्दोकर, स्वामी जी इन्द्र द्वारा भेजे गये विमान पर चढ़ कर ताकेत धाम को चले गये मृत्यु-तिथि मूल-ग्रंथ में नहीं दी गई है रूमिका में लेखक़ ने स्वामी जी की मृत्यु तिथि विक्रमीय सं० १५०५ मानी है

इस ग्रन्थ में भगवदाचाय जी ने जिन नई तिथियों, व्यक्तियों एवं घटनाश्रों का समावेश किया है, वे उनकी कल्पना से प्रसूत ही लगती हैं, किसी प्रामाणिक आधार पर आ्राश्रित नहीं सम्प्रदाय के लोग भी दुजनानन्द, अपार स्वामी, महासेन, आदि के नामों से परिचित नहीं हैं। अनन्तानन्द के पिता का नाम शिवविश्वनाथ और ग्राम का नाम महेशपुर या त्रिपुर-ग्राम निवासी त्रिपुरारि, 'महेश्वर, सिद्धपुर के मणिशंकर, बहुवंह ग्राम के रघुनाथ मिश्र आदि सभी नाम कल्पित ही प्रतीत होते हैं | यह बात अवश्य महत्वपूर्ण है कि रामानन्द के शिष्यों

डुप रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर ,उसका प्रभाव

में अनन्तानन्द, नरहर्याननन्‍्द, योगानन्द, भावानन्द, आदि ब्राह्मण थे, शेष अन्य 92, बा

विभिन्न जातियों से सम्बन्धित थे | भगवदाचार्य ने इस ग्रन्थ मे “श्री वेष्णव

मताब्जमास्कर अन्य को स्वामी रामानन्द कृत कहा है

रामानन्दायन--यह महाकाव्य अवधी भाषा में दोहा, चौपाई छान्दों में लिखा गया है इसके लेखक स्वामी श्री जयरामदेव हैं। यह अ्रन्थ प्रसंग-पारिजात से पूर्णतया प्रभावित है | साथ ही बाल्मीकि संहिता, श्रगरत्य संहिता एवं रामानन्द दिग्विजय आदि ग्रंथों से भी सहायता ली गई है। स्वामी रामानन्द के सम्बन्ध में कोई नवीन सामग्री यहाँ भी नहीं मिलती | यह अवश्य है कि यहाँ रामानन्द सम्प्रदाय के तत्व-सिद्धान्तों का संक्षेप में सुन्दर विवेचन उपस्थित किया गया है सारी कथा कांडों में वर्शित है--अ्रवतार कांड, लोक-कल्याणुकांड, उपदेश- कांड, दिग्विजयकांड, ओर उत्तम कांड | इनके विषय शी प्रकों से ही स्पष्ट हैं | इस ग्रन्थ में रामानन्‍्द की जन्मतिथि वही दी गई है जो “अगस्य संहिता? में है। माता-पिता का नाम; गुरु, शिक्षा-दीक्षा संस्कार आदि का वन भी “अगस्त्या संहिता के आधार पर है | प्रयाग जन्म लेने का कारण “वाल्मीकि संहिता? तथा “प्रसंग पारिजातः के अनुसार है | पंचगंगा घाट पर रहते हुए. स्वामी जी द्वारा प्रेत हो गये कवि भास को सद्गति भी दी-जाने का उल्लेख कवि ने किया है। इसी प्रकार रामयज्ञ से प्रकट होकर रामानन्द ने अनेक रूप धारण कर लोगों को कृतार्थ किया रामानन्द के शिष्यों के संबंध में प्रसंग पारिजञात? का ही आधार लेखक ने लिया है | केवल एकाघ ध्थल पर थोड़ा सा हेरूफेर किया गया है, जैसे अनन्तानन्द की जन्मतिथि ,यहाँ सं० १३६३ वि० ( प्रसंगपारिजात में १३४३ वि० ) दी गईं है। घना जाट को खीरी का निवासी कहद्दा गया है, पद्मावती अजिपुरा नगर के एक विप्र के घर उत्पन्न हुईं थीं और गालेँवानन्द पयावान ज्ञगर में रामानन्द के शिष्यों में चेतनदास का नाम भी जोड़ा गया है ओर कहा गया है कि स्वामी जी ने इन्हें “रामनाम” को महिमा तथा जाप की गुप्तरीति बतलाई थी | इसी प्रकार योगानन्द को स्वामी जी ने अ्रष्टयामीय सेवा का उपदेश दिया था।

रामानन्द की दिग्विजय के सम्बन्ध में यहाँ मिथिला, नेपाल, रामेश्वर, आदि के भी नाम लिये गये हैं। सिद्धपूर, नेमिषारणय आदि का भी उल्लेख किया गया है | समकालीन व्यक्तियों में मीमांसक कुमारिलभट्ट तथा श्ृंगेरीमठ के शंकराचाय ( ग्रन्थ के लेखक के अनुसार मध्वाचार्य. के छोटे भाई ) कां. भी नाम लिया गया है

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा ४६

लेखक के अनुसार स्वामी जी ने “श्री वेष्णव-मताब्जभास्कर” तथा आनन्द भाष्य” नामक दो ग्रन्थों की रचना भी की थी और इनका प्रचार भी उन्होंने किया था। लेखक के अनुसार सम्प्रदाय के प्रमुख भक्त थे पयोहारी कृष्णुदास, कील्ड, अग्र, तुलसीदास, नाभा, टीला, खोजी, बीरमा, अ्रनभव, देव, मलूक, थम्भन, चेतन, चतुभुज, तथा रैदास की शिष्या मीरा |

ग्रन्थकार ने राममन्त्र-राज की परम्परा भी दी है

राम, सीता, हनुमान्‌ , ब्रह्मा, वसिष्ठ, पराशर, वेदव्यास, शुक, बोधायन पुरुषोत्तम, गंगाधर, सदाचाय, रामेश्वर, द्वारानन्द, देवानन्द, श्यामानन्द, श्रुतानन्द, चिदानन्द, पूर्णानन्द, श्रियानन्द, राघवानन्द, रामानन्द आदि इस पम्परा में क्रमशः आते हैं

संच्चेप म॑ इस ग्रन्थ की यही देन है।

जगदूगुरु रामानन्दाचाय--“जगदूगुरु शमानन्द्राचार्न! ग्रन्थ के लेखक वैष्णव श्री देवदास जी (देव? हैं| इस ग्रन्थ में लेखक ने स्वामी रामानन्द के जीवन की व्यापक रूपरेखा तो “अ्रगस्त्य-संहिता? के आधार पर ही निर्मित की है, किन्तु घटनाओं के विस्तार में यत्र-तत्र वाल्मीकि संहिता, भविष्यपुराण, श्रोर रामानन्द-द्ग्विजय से भी उन्होंने सहायता ली है। यह जीवन-चरित गद्य में लिखा गया है, किन्तु लेखक ने स्वामी रामानन्द के जीवन-बूत्त के सम्बन्ध में विभिन्न प्रचलित मतों को समीक्षा करने का कोई प्रयास नहीं किया है | यहाँ रामानन्द को राघवानन्द जी का शिष्य मान तो लिया गया है, पर इस विवाद पर कोई प्रकाश नहीं डाला गया कि रामानन्द राघवानन्द के शिष्य होने के पूर्व किसी अद्वैती गुरु के शिष्य थे और उनका नाम रामदत्त या रामभारती था वस्तुतः लेखक का दृष्टिकोण आलोचनात्मक है ही नहीं | जहाँ ग्रंथकार ने स्वामी रामानन्द की दिग्विजय का वर्शन किया है, वहाँ भी उन्होंने कोई ऐसा तीथ स्थान अथवा प्रदेश बचा जहाँ स्वामी जी को पहुँचाया हो / गांगरौन, गिरिनार, प्रभासक्षेत्र, सोमनाथ, द्वारका, सिद्धपुर, आबू, आमेर, चित्तौड़, उज्जैन, चित्रकूट, प्रयाग, अयोध्या, गंगासागर, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम, विजयनगर, शिवकांची, विष्णुकांची, श्रीरंगम, मैसूर, महाराष्ट्र, हरिद्वार, कश्मीर, सिन्ध, ब्रज, मिथिला, नेपाल आदि सभी स्थानों का नाम इस संबंध में दे दिया गया है बीच-बीच में अनेक चमत्कार-पू्ण घटनाओं का भी समावेश कर दिया: गया है | कश्मीर-यात्रा के संबंध में कहा गया है कि स्वामी जी ने वहाँ | अपने आननन्‍्दसाष्यः पर अनेक प्रवचन दिए.। लेखक के अनुसार स्वयं व्यास जी ने इस ग्रन्थ पर अपनी सम्मति दी ओर देश के विद्वानों ने स्वामी जी को

पूछ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

जगदूगुरु की उपाधि दी | बीच-बीच में लेखक ने साम्प्रदायिक मतवाद का विस्तृत विवेचन किया है, जिसमें स्वामी जी के ग्रन्थ श्री वेष्णव मताब्ज-भास्करः का सहारा लेने के साथ-साथ उसने स्वतंत्र मतों का भी समावेश कर दिया है, जो स्वामी जी की तत्संबंधी मान्यताश्रों के समभने में विशेष सहायक नहीं होते अन्थकार के अनुसार “्रीवैष्णवमताब्जभास्कर! की रचना स्वामी जी ने श्रातरू में की थी

इस ग्रन्थ में एक बात अवश्य ही उल्लेखनीय है, वह यह कि लेखक के अनुसार स्वामी जी का साकेत गमन वि० सं० १५२६ वैशाख सुदी को हुआा था | इस प्रकार स्वामी जी की आयु १७० वर्ष ठहरती है किसी विशेष प्रमाण के अभाव में इतनी लम्बी आयु मान लेना उचित एवं तकसंगत नहीं प्रतीत होता एक दूसरी साम्प्रदायिक धारणा के श्रनुसार स्वामी जी का देहा- बसान सं० १४६७ वि० में हुआ था, जो अधिक तक-संगत एबं प्रामाणिक प्रतीत होता है नाभा जी के कथन “बहुत कालि वपु धारिके प्रणतजनन को पार दियो ।? को बहुत दूर तक नहीं खींचना चाहिए, |

समग्रतः इस ग्रंथ से ' स्वामी जी के सम्बन्ध में हमें कोई नवीन प्रामाणिक सूचना नहीं मिलती |

भगवान रामानन्दाचाये--इस ग्न्थ के सम्पादक हैं श्री हरिचस्णलाल वर्मा शात्री रामानन्द स्वामी का जीवन, उनकी धारणा, उनके ग्रंथ, उनके सम्प्रदाय आदि के सम्बन्ध में विभिन्न रामानन्दी-विद्वानों द्वारा लिखित निबंधों का अच्छा संग्रह इस ग्रन्थ में किया गयी है। सम्प्रदाय के आधुनिक प्रमुख विद्वानों की अपने संप्रदाय के उत्पत्ति-विकास आदि के सम्बन्ध में जो धारणाएँ हैं वे आरमाणिक रूप से इस ग्रन्थ में प्राप्त होती हैं, श्रतः इसका महत्व पर्याप्त बढ़ जाता है | इस अन्य से हमें निम्नलिखित सूचनाएं प्राप्त होती हैं :---

जहाँ तक स्वामी जी की जन्म-तिथि, जन्म-स्थान, माता-पिता, गुरु आदि का प्रश्न है, लगभग सभी दविद्वान्‌ ( श्री रामपदार्थ देव जी “इन्दु! श्री वैष्णव, श्री रामाचरण, श्री शरण जी शास्त्री, श्री बाबू लाल भागव बी० ए० ) “अगस्त्य संहिता? के मत से सहमत हैं | स्वामी रामपदार्थ देव जी के अनुसार रामानन्द स्वामी ने श्री वेष्णव मताब्ज-भास्कर, आनन्दभाष्य', गीताभाष्य? “रामार्चन पद्धति? आदि ग्रन्थों की रचना की पं० अवधकिशोर दास और भरी रामाचरण शांलरी ने केवल प्रथम तीन का ही उल्लेख किया है। श्री अच्युतानन्द दत्त ने आरती कीजै हनुमानलला की? पद को स्वामी जी कृत माना है। स्वामी जी के

श्रध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा पर

मत को रामानन्दी विद्वानों ( परद'भंद'स वेदान्ती, रामपदा्थ देव, देवदास ) ने विशिष्टाद्वेत ही माना है | श्री बाबूलाल भाग बी० ए० के अनुसार स्वामी जी के शिष्यों में कबीर, श्रनन्तानन्द, सुखानन्द, नरहर्यानन्द, सुरसुरानन्द, पीपा, भावानन्द, धना, रैदास, सेन, पद्मावती, गालवानन्द, योगानन्द, यादवानन्द आदि प्रमुख थे | इनके संबंध में प्रायः वही सूचनाएँ दी गईं हैं, जो भक्तमाल और उसकी प्रियादास तथा रीवांनरेश रघुराज सिंह की ठीकाओं में मिलती हैं केवल एक बात सेन के सम्बन्ध में उल्लेखनीय है, वह यह कि वे दात्िणात्य थे | श्री अच्युतानन्द दत्त के अनुसार स्वामी जी के एक शिष्य निरनन्‍्जन थे, जो पहले मुसलमान थे और जिनका नाम उस समय नूरूद्दीन था। श्री रामाचर्ण शरण के अनुसार स्वामी जी ने भूमंडल पर दिग्विजय कर अपनी भक्ति-पद्धति का प्रचार किया रामानन्द ने अपने उदार दृष्टिकोश के कारण स्वामी राघवानन्द की आज्ञा से एक नए. सम्प्रदाय की स्थापना की ( श्री अच्युतानन्द दत्त ), किन्तु अन्य रामानन्दी विद्वान ऐसा नहीं मानते पंडित अ्रवधकिशोरदास के अनुसार वास्तव म॑ रामानन्द सम्प्रदाय ही श्री सम्प्रदाय है। इसकी परमाचाय सीता जी हैं| रामानुज-सम्पदाय तो लक्ष्मीसम्पदाय है। श्री देवदास जी तो शनाइज-सन्पदाब को सम्प्रदाय ही नहीं मानते, क्योंकि उसका प्रचार कलियुग में हुआ है | उन्होंने श्री-सम्प्रदाय से रामानन्द-सम्प्रदाय का ही तात्पय लेने के लिये एक दूसरा तक भी दिया है। उनके अनुसार अब से तीन सौ वर्ष पूर्व जब वेष्णवों ने 'चतु; सम्प्रदाय” की स्थापना की तब 'रामानुज-सम्प्रदाय” उससे शल्लग ही रह और रामानन्द-सम्प्रदाय को ही री सम्प्रदाय” के नाम से अभिहित किया गया | इस रामानन्द-सम्प्रदाय की परम्परा यों है :--सीता, हनुमान, ब्रह्मा, वस्िष्ठ, पराशर, व्यास, शुकदेव, पुरुषोत्तमाचायं, बोधायन आदि | श्री बाबूलाल भागव ने धमसूरी, विजयसूरी, सत्यविजय, आदि जैनों तथा सिकन्द्र लोदी को स्वामी रामानन्द जी का समकालीन बतलाया है। रामानन्द-सम्प्रदाय में अखाड़ों और उनके कतंव्य के सम्बन्ध में श्री भगवानदास जी खाकी ने अच्छा विवरण उपस्थित किया है | श्री भगवदाचाय ने श्री वैष्णवों के पंच संस्कार पर प्रकाश डाला है। स्वामी रामानन्द की मृत्यु के संबंध में केवल श्री रामपदाथ देव जी ने ही संकेत किया है| उनके अनुसार स्वामी जी सं० १४६७ वि० सें १११ वष की आयु में साकेतघाम चले गए |

सेच्षेप में इस अंथ की यही देन है

भर रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

ग--आधुनिक भ्रन्थ हिन्दी साहित्य के प्रमुख इतिहास तथा कुछ प्रमुख धार्मिक इतिहास-- १--विल्सन--एसेज़ आन्‌ दि रेलिजस सेक्ट्स अब हिन्दूज़ २--गासों तासी--इस्त्वार ला लितरात्यूर ऐन्दुई ऐं, ऐन्दुस्तानी-- अनुवादक डॉ० लक्तमी सागर वाष्णुय, एम० ए.०, डी० लिदु० ३--शिवसिंह संगर--शिवसिंह सरोज | ४-ग्रियर्न, एज्राहम जाज-१-माडडन वर्नाक्यूलर लिटरेचर अव्‌ हिन्दोस्तान। २--जनल अबू रायल एशियाटिक सोसायटी अबू बंगाल (१६२० ३०) ३--इन्साइक्लोपीडिया श्रव्‌ रेलीजन एश्ड एथिक्स | ४--इण्डियन ऐश्टीक्वेरी वाल्यूम ३२-- नोट्स आन तुलसीदास | १--नागरी प्रचारिणी पत्रिका। पू--मिश्रबन्धु--मिश्रचन्धु विनोद, प्रथम भाग | ६--एडविन ग्रीब्ज--ए स्केच श्रव्‌ हिन्दी लिटरेचर | ७--एफ० ई० के०--ए हिस्द्री अव्‌ हिन्दी लिटरेचर ८--रामचन्द्र शुक्ल--हिन्दी सीहित्य का इतिहास | ६--डा०» श्यामसुन्दरदास--हिन्दी साहित्य १०--हरिश्रीध--हिन्दी भाषा और उसके साहित्य का विकास ११-*डा० रामकुमार वर्मा--हिन्दी साहित्य का आ्रालोचनात्मक इतिहास | १२--डा० पीताम्बरूतत वथ्‌ वाल--हिन्दी काव्य में निगुण-सम्प्रदाय--अनु श्री परशुराम चतुर्वेदी १३--डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी--हिन्दी साहित्य की भूमिका, कबीर, हिन्दी साहित्य का इतिहास | १४--परशुराम चतुर्बेदी--उत्तरी भारत की सन्त परम्परा .१५--श्री बलदेव उपाध्याय--भागवत्त-सम्प्रदाय * १६--कुछ अन्य ग्रन्थ स्केच अबू दि रिलीजस सेक्टस अव्‌ दि हिन्दूज़--होरेस हेमन विल्सन--विल्सन महोदय ने अपने इस ग्रन्थ में स्वामी जी के जीवन चरित

ग्रध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा पूरे

के सम्बन्ध में कोई महत्त्वपूण उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने एक परम्परा का उद्धरण दिया है, जिसके अनुसार रामानन्द रामानुजाचार्य की पाँचवीं पीढ़ी-- रामानुज--देवानन्द--६रीनन्द--राघवानन्द--रामानन्द--में थे, किन्तु इसको स्वीकार कर लेने पर रामानन्द का समय १३ वीं शताब्दी होगा अतः विल्सन महोदय इस परम्परा को अस्वीकार करते हुए रामानन्द का समय १४ वीं शताब्दी के अन्त और १४ वीं० शताब्दी के प्रारभ्म में मानते हैं | इस सम्बन्ध में 'भक्त- माल? की जिस परम्परा का उद्धरण विल्सन महोदय ने किया है, उसमें हर्याननन्‍्द का नाम नहीं है। आज भक्तमाल की सभी प्रचलित प्रतियों में रामानुज-- देवाचाय-हर्या नन्‍द-राघवानन्द-रामानन्द का ही क्रम मिलता है, कदाचित्‌ विल्सन ने हर्यानन्द को ही हरीनन्द लिखा हो और देवाचारय को देवानन्द | रामानुज- सम्प्रदाय से रामानन्द के अलग होने एवं नये सम्प्रदाय की स्थापना करने के सम्बन्ध में विल्लनन महोंदय ने एक जनश्रति भी उद्धत की है, जिसके अनुसार समस्त भारत का भ्रमण कर रामानन्द जब अपने मठ को लौटे तब उनके सहधर्मियों ने उनकी इस यात्रा में खानपान सम्बन्धी नियम के पालन करने पर आपत्ति की ओर राघवानन्द ने भी इस आपत्ति को उचित समझा | फलतः रामानन्द को शेष शिष्यों से दूर भोजन करने का आदेश मिला | इस कठोर आशा को अस्वीकार कर रामानन्द ने एक नए सम्प्रदाय को जन्म दिया और काशी में पंचगंगा घाट पर आकर अपना मठ स्थापित किया | विल्सन के समय में यह मठ ध्वस्त हो चुका था, किन्तु पास में ही एक पत्थर था जिस पर स्वामी जी के चरण अंकित कहे जाते थे वित्सन ने स्वामी जी के ग्रंथों के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं दी है |

१--डा० व्थ्‌ वाल का यह कहना कि प्रोफेसर विल्सन ने वेंद पर उनके एक संस्क्रत भाष्य की बात लिखी है (हिंदी काव्य मे निर्गण सम्प्रदाय, अनु० परशुराम चतुर्वेदी, पृष्ट ३८), पत्ता नही विल्सन के किस लेख के आधार पर है, यहाँ तो विल्सन ने स्पष्ट द्वी लिखा है :--

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पूछ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

विल्सन के अनुसार रामानन्द के अनुयायी अबधूत! कहे जाते हैं | उन्होंने रामानन्द के शिष्यों के नाम आशानन्द, कबीर, रैदास, पीपा, सुरसुरानंद, सुखानन्द, भावानन्द, घना, सेन, महानन्द, परमानन्द, श्रियानन्द आदि दिखे हैं, जो भक्तमाल की सूची से कुछ भिन्न हैं। विल्सन ने भक्तमाल की भी सूची उद्धत की है। प्रतीत होता है उन्होंने भक्तमाल की भाषा को ठीक नहीं समझा, अन्यथा रघुनाथ, सुखासुर, जीव आदि नाम तो गिनाये गये होते | रघुनाथ शब्द भक्तमाल में रामानन्द के विशेषण की भाँति आया है | सुखानन्द ओर सुरसुरानन्द सुखासुर! समर लिये गये हैं ओर जीव नाम किसी भी प्रचलित प्रति में नहीं मिलता | विल्सन ने किस'प्रचलित प्रति के आ्राधार पर यह उल्लेख किया है, स्पष्ट नहीं है | इन भक्तों के सन्बन्ध में शेष सूचनाएँ भक्तमाल और उस पर प्रियादास की टीका के आधार पर दी गई हैं। विल्सन ने रामानन्दी मठों के संगठन पर भी प्रकाश डाला है। विल्सन के अनुसार रघुनाथ या आशानन्द रामानन्द की गद्दी के उत्तराधिकारी हुए। जब कि समस्त वैरागी- परम्परा के अनुसार अनन्तानन्द ही रामानन्द की गद्दी पर बैठे थे | इस प्रकार अनेक आन्तियाँ विल्सन महोदय को हो गई हैं | स्वामी अग्रदास के गुरु कृष्णदास पयोहारी को वल्लभ-सम्रदाय के कृष्णदास अधिकारी समक कर उन्होंने नाभादास को रामानन्द-सम्प्रदाय से विलग मान लिया है | नाभादास और नारायणुदांस को भी एक मान कर उन्होंने दो व्यक्ति माना है | इन सब श्रान्तियों के होते हुए भी यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि विल्सन महोदय ने प्राचीन जनश्रुतियों का अच्छा उपयोग किया है और एक प्रकार से तत्कालीन प्रचलित सम्प्रदायों एवं पंथों के वैज्ञानिक अध्ययन की नींब भी उन्होंने ही डाली | उनके पश्चात्‌ के लगभग सभी लेखकों ने उनको आधार मान कर रामानन्द के संबंध में मनमाने अनुमान लगाये हैं |

इस्त्वार दला लितरात्यूर ऐन्दुई ऐं ऐन्दुस्तानी--गार्सा' तासी के अनुसार “रामानन्द बनारस के फकीर या वैरागी, प्रसिद्ध हिन्दू सुधारक, रामानुज के शिष्य, और कबीर के गुरु, वैष्णवों के समस्त ग्राधुनिक सम्पदायों के ( मध्यवर्ती ) सुधारक हैं इनकी हिन्दी में लिखित कुछ धार्मिक कविताएँ हैं, जो आदि ग्न्थ में सम्मिलित हैं | १४०० के लगभग यही व्यक्ति थे, जिन्होंने ईश्वर के समक्ष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र सब की समानता सर्वप्रथम घोषित की ; और जिन्होंने सब क्रो बराबर अपने शिष्यों के रूप में गअहण किया जिन्होंने यह घोषित किया कि सच्ची भक्ति वाह्य रूपों तक ही सीमित नहीं, किन्तु इन रूपों से ऊपर है। उन्होंने अपने प्रधान शिष्य कबीर के बारे में हा है कि भत्ते.

अध्ययन को सामग्री तथा उसकी परीक्षा पप,

ही वे जलाहे हों ब्रह्मज्ञान के कारण वे ब्राह्मण हो गए हैं. ( दबिस्तान, शो और ट्रायर का अनुवाद, जिल्द २, पृष्ठ श्यम )7 | तासी ने कबीर का काल १४५० ६० कर्निंघम के साक्ष्य पर माना है | घना के सम्बन्ध में उन्होंने मक्तमाल की ही कथा ली है | पीपा के विषय में लिखा है कि ये हिन्दू संत योगी थे। आदि ग्रन्थ में भी इनकी कविता मिलती है तथा ये बारहवीं शताब्दी के राजा शूरसेन के समय में जीवित थे शेष्र कथा भक्तमाल के ही आधार पर दी गईं है इन्हें रामानन्द का शिष्य नहीं घोषित किया गया। रेदास के विषय में भक्तमाल की ही कथा तासी ने दी है| इन्हें स्वामी जी का शिष्य माना गया है। सेन के विषय में कहा गया है कि व्यवसाय की दृष्टि से ये नाई थे, ये वैष्णव थे। गुरु अन्थ साहब में इनकी रचनाएँ, मिलती हैं।

समीक्षा--१-तासी द्वारा दी गई सूचनाएँ अधिकतर भक्तमाल के साक्ष्य पर हैं, किन्तु उनमें कुछ अ्रान्तिपूर्ण भी हैं। जैसे रामानन्द रामानुज के शिष्य नहीं थे यह अनेक पृष्ट प्रमाणों से सिद्ध है, किन्तु तासी उन्हें रामानुज का शिष्य मानते हैं। २-रामानन्द ने पीपा को भी श्रपना शिष्य बनाया था, यह भक्तमाल से सिद्ध है। अतः तापी द्वारा दी गईं पीपा जी की जीवन-तिथि नितान्‍्त ही अ्रप्रा- भाणिक एवं श्रामक है। ३--तौसी ने रामानन्द के शिष्यों के सम्बन्ध में कोई महत्वपूण सूचना देने का प्रयास नहीं किया है

शिवसिंह सरोज ( शिवसिंह सेंगर ) और माडने वर्नाक्यूलर लिटरेचर अब हिन्दोस्तान ( ग्रिययून कृत )--शिवसिंह सेंगर ने स्वामी रामानन्द के सम्बन्ध मे कोई सूचना नहीं दी केवल एक स्थल पर सेन के प्रसंग में सिननापित बांधवगढ़ के सं० १४६० में 3०--हजारे में इनके कवित्त हैं| यह कवि स्वामी रामानन्द जी के शिष्य थे |? स्वामी रामानन्द कु नाम लिया है| पंडित रूपनारध्ण पांडेय ने सरोज? के परिशिष्टांश में बतलाया है कि “इन रींवाँ वाले सेन का जन्मकाल सं० १४४७ के लगमग है, सं० १५६० वाला सेन दूसरा है |? वस्तुत: थगर का उद्देश्य हिंदी साहित्य का इतिद्वास उपस्थित करना नहीं था। अ्रतः उन्होंने कवियों के विषय में विशेष छान-बीन नहीं की' थी | रामानन्द सम्प्रदाय के कुछ भक्तों की पंक्तियों को उद्धत करते हुए शिवसिंह सेंगर ने एक अत्यन्त महत्वपूण सूचना स्वामी अग्रदास के संबंध में दी है। उनके अनुसार अ्रग्रदास गलता गादी पर सं० १४६५ में उपस्थित थे। अग्रदास स्वामी रामानन्द के शिष्य अनन्ताननद के शिष्य कृष्णुदा[स पयोहारी के शिष्य थे | इनके शिष्य नाभा जी तुलसीदास के समकालीन थे | अ्रतः इससे यह अनुमान कर लेना

थूद रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

अनुचित होगा कि रामानन्द जी विक्रम की पंद्रहर्वी शताब्दी में श्रवश्य ही वर्तमान रहे होंगे | कद्दा जाता है कि श्रग्रदास गलता की गादी पर बैठने के समय तक पूर्ण प्रख्यात हो चुके थे

सरोज” के आधार पर, किन्तु अधिक वैज्ञानिक ढंग से लिखे ग्रियर्सन महोदय के इतिहास में हमें रामानन्द के सम्बन्ध में कुछ व्यवस्थित सामग्री प्राप्त होती है | उनके अनुसार रामानन्द का आविभाव काल ईसा की चौदहवीं शताब्दी था | ग्रियर्सन साहब ने रामानन्द जी के कुछ जनभाषा में लिखें गीतों के पा ज्ञाने की भी सूचना दी है, किन्तु खेद है उन्हें अपने ग्रन्थ में उन्होंने उद्धत नहीं किया | विल्सन को आधार मानने के कारण ग्रियसंन महोदय ने भी कृष्ण॒ुदास पयहारी ( रामानन्दी ) को कृष्णदास अधिकारी मान लिया है। “भक्त-माल” में आये हुए अन्य रामानन्दी भक्तों की तिथियों को निर्धारित करने का भी प्रयास इस ग्रन्थ में लेखक ने किया है

किन्तु, रामानन्द के सम्बन्ध में ग्रियसन महोदय की देन यहीं तक सीमित नहीं रह जाती | तुलसीदास पर 'इण्डियन ऐन्टीक्वैरी? में अपनी टिप्पणियां देते समय उन्होंने बाबा मोहनदास द्वारा प्राप्त रामानन्द की गुरु परम्परा दी है। इसमे उनका सम्बन्ध रामानुज-सम्पदाय से जोड़ा गया है। साथ ही उन आचार्यों के नाम देवानन्द, श्रतानन्द, नित्यानन्द आदि » भी इस परम्पश में गये हैं जो आधुनिक रामानन्दीयों द्वारा मान्य निजगुरु परम्परा में आते हैं | इस परम्परा को मानने के लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता। परम्परा-सम्बन्धी प्रश्न पर आगे विचार किया जायगा | |

ग्रियसन महोदय ने रामानन्द सम्बन्धी अपने अध्ययन को और आगे बढ़ाया है। 'इन्साइक्लोपीडिया अब्‌ रेलीजन ऐश्ड एथिक्सः तथा 'रायल एशियाटिक सोसायटी के जनल? में उन्होंने रामानन्द के विस्तृत जीवन पर प्रकाश डाला है | अगस्य संहिता! से प्रात्त जीवन-बृत्त को प्रमाणिक मानते हुए. उन्होंने फकहर के 5सत मत का प्रत्याख्यान भी किया है कि रामानन्द दक्षिण से आये थे | रामानन्द के सम्बन्ध में उनके समय का निर्धारण भी ग्रियसन महोदय ने किया है | अगस्त्य संहिता! की तिथि ( सं० १३५६ वि० में स्वामी जी का जन्म ) उन्हें मान्य है। सरडारकर जी ने भी इसे मान लिया है। ग्रियमन महोदय ने इस प्रचलित मत का भी खर्डन किया कि रामानन्द जी राघवानन्द स्वामी के शिष्य होने के पूर्व किसी अद्वैती गुरु के शिष्य थे | इस सम्बन्ध में मी उन्होंने अगस्त्य संहिता! और “भक्तमाल” का साक्ष्य स्वीकार किया है। आगे चल कर

ग्रध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा बूछ

फर्कुदर ने उनके इस तक को स्वीकार भी किया | ग्रियर्सन मह्दोदय ने रामानन्द का एक हिन्दी पद ( आरति कीजै हनुमानलला की )* भी नागरी प्रचारिणी सभा की पत्रिका में छुपवाया था | हिन्दी के इतिहासकारों ने इस पद्‌ को स्वामी जी कृत ही माना है |

मिश्रबन्घु-विनोद--मिश्रबन्धुओ्रों ने विनोद के प्रथम भाग में रामानन्द के सम्परन्ध में कुछ सूचनाएँ: दी हैं| उनका आधार विल्सन मद्दोदय का उपयक्त ग्रंथ है। स्वामी जी का समय इन्होंने सं० १४५६ वि० माना है| राधाकृष्णदास का अनुकरण करते हुए. 'रामरक्षा स्तोत्र! तथा 'रामानन्दीय वेदान्त! को स्वामी जी कृत मानने में उन्होंने सन्देह प्रगट किया है। इनको नागरी प्रचारिणी सभा की खोज में “रामरक्षा स्तोत्र” और 'ज्ञानतिलक! नामक दो शभ्रंथों का पता भी चला था |

स्केच अव्‌ हिन्दी लिटरेचर--प्रीव्ज् महोदय ने रामानन्द के सम्बन्ध में कोई नई सूचना हमे नहीं दी है उन्होंने रामानन्द को केवल एक वैष्णव आचार्य एवं सधारक के रूप में ही स्वीकार किया है, अ्ंथकार या आचार्य के रूप में नहीं | इनके अनुभार रामानन्द के कुछ पद हिन्दी में प्रचलित थे, किन्तु खेद है कि ग्रीव्ज़ मद्दोदय ने अपने इतिहास में उन्हें नहीं उद्धत किया |

हिस्ट्री अब हिन्दी ल्िटरेचर-- के? महोदय ने रामानन्द का समय सन्‌ १४०० से सन्‌ १४७० तक माना है| पीपा का समय १४२५ ई० और धन्ना का १४१५४ ई० मानते हुए ही कदाचित्‌ स्वामी जी का समय उन्होंने निश्चित्‌ किया है, किन्तु स्वयं पीपा और घन्ना का समय भी अनुमानाश्रित ही प्रतीत होता है। अपने मत के समथन में उन्होंने कोई प्रमाण नहीं प्रत्ठुत किया है | रामानन्द को उन्होंने ग्रन्थकार नहीं माना है, किन्तु आदि ग्रन्थ! में उपलब्ध स्वामी जी के पद का उन्होंने उल्लेख किया है; और यह भी कहा है कि उन्होंने हिन्दी में अनेक पदों की रचना की थी | लेखक ने उन्हें उद्धुत नहीं किया है | स्वामी जी के शिष्यों में भी उन्होंने अनन्तानन्द, सुरसुरानन्द, सुखानन्द, आदि का कोई उल्लेख नहीं किया | जो भी सूचनाएँ लेखक ने दी हैं, उनका कोई प्रामाणिक आ्राधार उसने नहीं दिया |

हिन्दी साहित्य का इतिहास--अचर्ए रामचन्द्र शुक्ल ने स्वामी रामानन्द जी के जीवन-चरित पर तो कोई विशेष प्रकाश नहीं डाला, किन्तु 'शमानन्द-सम्प्रदाय का उन्होंने विस्तृत श्रध्ययन उपस्थित किया है | शुक्ल जी के अनुसार रामानन्द जी का समय विक्रम की पंद्रहवीं शी के चतुर्थ ओर

पूथ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

सोलइवीं शती के तृतीय चरण के भीतर माना जा सकता है विद्वान्‌ शुक्ल जी ने इस सम्बन्ध में अपने तक भी उपस्थित किये हैं। शुक्ल जी के अनुसार रामानन्द रामानुज की परम्परा से सम्बद्ध थे। रामभक्ति शठकोप आदि आचार्यों को भी मान्य थी | शुक्ल जी के अनुसार रामानन्द जी के नाम पर आनन्दभाष्य, श्री वैष्णवमताब्जभास्कर, श्री रामाचन पद्धति, रामरक्षा स्तोत्र, योगचिन्तामणि भगवदूगीता भाष्य आदि अनेक ग्रन्थ प्रचलित हो गये हैं, पर इनमें “श्री वैष्णव मताब्ज भास्कर! और 'रामार्चन पद्धति? को ही शुक्ल जी ने स्वामी जी कृत माना है, उनके अनुसार भाष्य! का प्रचार इसलिये किया गया, क्योंकि कुछ रामानन्दी विद्वान्‌ रामानन्द को रामानुज-सम्प्रदाय से स्वतन्त्र विद्वान्‌ सिद्ध करना चाहते हैं। इसी प्रकार श्री रामरत्ञा स्तोत्र! औ्रौर 'योगचिन्तामणि? को भी शुक्ल जी ने रामानन्द-सम्प्रदाय की 'तपसी-शाखा? द्वारा स्वामी जी के नाम पर चलाये हुए ग्रन्थ साना है | शुक्ल जी ने रामानन्द के सम्बन्ध में इस मत को कि वे झद्ठे- तियों के ज्योतिमठ के ब्रह्मचारी थे, और उन्होंने १२ वर्ष तक गिरिनार या आदू पव॑त पर योग साधना करके सिद्धि प्राप्त की थी? केवल जनश्रति मात्र माना है | प्रमाणाभाव में वे इस कथन को महत्त्व नहीं देते | रामानन्द-सम्प्रदाय में योग के प्रवेश का कारण शुक्ल जी ने श्री क्ृष्णदाप्न पयहारी द्वारा श्रामेर के योगियों को परास्‍्त करना और अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये रामानन्दीयों द्वारा योग का अपना लेना कहा है | शुक्ल जी रामानन्द को विशिष्टाद्रैती ही मानते थे | अतः आरति कीजे हनुमानललाकी? पद को वे स्वामी जी कृत ही मानते हैं, किन्तु आदि अन्य! में आए पद को वे किसी अन्य रामानन्द कृत मानते हैं, स्वामी रामानन्द जी कृत नहीं |

शुक्ल जी ने रामानन्द-सम्प्रदाय में सखी-भाव की भक्ति के प्रवेश का भी उल्लेख (किया है, और इसको रामभक्ति पर कृष्ण भक्ति का प्रभाव माना है | युक्ल जी रामभक्ति में सखी भाव का प्रवेश उचित नहीं सममते इस भावना के पोषक रसिक-सम्पदाय का संज्षित इतिहास भी शुक्ल जी ने दिया है | भक्त- माल से प्रात्त सामग्री का शुक्ल जी ने पूरा उपयोग किया | इस प्रकार समग्रतः शुक्ल जी ने रामानन्द सम्बन्धी अध्ययन को अहुत ही ठोस एवं वैज्ञानिक रीति से आगे बढ़ाया आगे के लेखकों ने ग्रियर्सन ओर शुक्ल जी के आधार पर अपने मत निर्धारित किये हैं पु

हिंदी साहित्य--स्वामी जी के जीवन एवं रचनाओं के सम्बन्ध में डाक्टर: रास सुन्दरदास ने कोई सूचना नहीं दी है | रामानन्द को श्री रामानुज-सम्प्रदाय से

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा प६

सम्बद्ध भानते हुए उन्होंने इस जनश्रुति का प्रत्याख्यान किया है कि रामानन्द राघवानन्द के यहाँ आने के पूव किसी अब्वेती गुद के शिष्य थे | डाक्टर दास के अनुसार रामानन्द्‌ का इष्टिकोण भक्ति के क्षेत्र में बहुत उदार था | शाद्रों तक को उन्होंने अपना लिया था | डा० दास का समस्त मत विल्सन, ग्रियसेन

तथा फक्रहर के श्राधार पर बना प्रतीत होता है | इस दृष्टि से रामानन्द सम्बन्धी अध्ययन को वे आगे बढ़ा सके

हिन्दी भाषा और उसके साहित्य का विकास--पं० अयोध्या सिंह _ उपाध्याय हरिश्रीष” जी ने अपने इस ग्रन्थ में रामानन्द जी के संबंध में कोई नई बात नहीं कही है| उनके ग्रन्थ का महत्व केवल इस बात में है कि उन्होंने धना के दो पद, सेन का एक पद ओर एक पद पीपा का श्रपने ग्रन्थ में उद्धत

कर दिया दे, जिससे हम इन भक्तों के मतों के संबंध में अपनी कुछ घारणाएँ: बना श्कत है

हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास--डा० रामकुमार वर्मा, एम० ए०, पी एचच० डी०| इस इतिद्दास में ड।० वर्मा ने रामानन्द-संबंधी समस्त खोजों का पू्ण उपयोग किया है| डा० वर्मा ने ग्रियसन, फक्रहर, सर भंडारकर तथा भक्तमाल के टीकाकार भगवान्‌ प्रसाद रूपकला के मतों की पूण समीक्षा: की है | वे रामानन्द को रामानुज-सम्प्रदाय से ही सम्बद्ध मानते हैं। रामानन्द के जीवन-बृत्त के संबंध में उन्होंने डा० ग्रियर्सन, भंडारकर, तथा रूपकला जी के मत का समथन करते हुए “अ्गस्त्य संहिता? का ही साह्य स्वीकार किया है |. स्वामी जी की जन्मतिथि भी उन्होंने सं० १३५६ वि० ही मानी है। 'भक्तमाल? के आधार पर उन्होंने स्वामी जी के द्वादश शिष्यों का भी उल्लेख किया है ही उनका जीवन-बूत्त भी ( अ्रनन्तानन्द, सुखानन्द, सुरसुरानन्द को छोड़ कर ) उन्होंने भक्तमाल शरीर प्रियादास की टीका के आधार पर उपस्थित किया. है। घना, पीपा, रैदास का समय भी उन्होने अन्य विद्वानों के साक्ष्य पर क्रमशः सं० १४७२, सं० १४८२, सं० १४४५४ वि० निर्धारित किया है| स्वामी जी के ग्रवसान काल के संबंध में निश्चित्‌ हो सकने के कारण वर्मा जी इन सम्बतों की प्रामाणिकता की पूरी परीक्षा नहीं कर सके हैं। नाभादास के “बहुत काल वपुधारि कै प्रणत जनन को पार दियो? को ही वर्मा जी ने पर्याप्त मान कर उपयक्त तिथियों को लगभग प्रामाणिक सा मान लिया है। किन्तु, इस प्रकार ' रामानन्द की आय कम-से-कम १४० वर्ष की माननी होगी, क्योंकि पीपा के जन्म लेने के समय तक तो वे १२६ वध के हो चुके होगे | कबीर को भी डा० वर्मा

६० रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

मे रामानन्द का शिष्य माना है | उनका जन्म वर्मा जी के अनुसार संवत्‌ १४५५ वि० में हुआ था, अतः कबीर को अपना शिष्य बना कर उन्हें अपनी दिग्विजय में साथ-साथ लिवा जाने के लिये स्वामी जी को कम-से-कम १३० की आयु मिलनी चाहिये थी, क्योंकि कबीर को पक्का भक्त होने में ३० वर्ष तो लगे ही होंगे | इन्हीं सब उलमनों के कारण सन्त साहित्य के आधुनिक विद्वान श्री परशुराम चतुर्वेदी को रामानन्द की तिथियों ( सं० १२४६ वि०-सं० १४६७ 'वि० ) को स्वीकार करके ही उनके शिष्यों की तिथियों को निश्चित्‌ करने की आवश्यकता अनुभूत हुई है।

रामानन्द के ग्रन्थों में श्री वेष्णुबमतान्तर (१) भास्कर” और “श्री रामार्चन पद्धति? को डा० वर्मा ने स्वामी जी कृत माना है। रामरक्षा स्तोन्नः या 'संजीवन मंत्र? को वे अप्रोढ़ शैली में लिखे जाने के कारण स्वामी जी कृत नहीं मानते भंडारकर का उद्धरण देते हुए उन्होंने स्वामी जी के द्वारा लिखे गये एक “ववेदान्त भाष्यः का उल्लेख तो किया है, किन्तु उसकी प्रामाशिकता के विषय में वे कोई मत दे सके | फ़कुहदर के मत से सहमत होते हुए. लेखक का यह भी विश्वास है कि अध्यात्म रामायण? रामानन्द-सम्प्रदाय को अवश्य ही प्रभावित करता रहा है | तुलसी पर उनकी स्वतन्त्र ग्तिभा के कारण “अध्यात्म रामायण? का प्रभाव तो मान्य हो सकता है, किन्तु रामानन्द-सम्प्रदाय में इस ग्रन्थ को कोई मान्यता नहीं मिलती ज्ञात हुईं है | डा० वर्मा का विश्वास है कि अपने उदार इष्टिकोश के कारण ही रामानन्द सन्त मत के प्रचार में सहायक हो सके |

हिन्दी काव्य में निर्मुण सम्प्रदाय--ले० डा० पीताम्बर दत्त बथ वाल, अनु० श्री परशुराम चतुवदी | सम्त-साहित्य का अध्ययन प्रस्तुत करते समय डा० बथ्‌ वाल ने रामानन्द स्वामी के सम्बन्ध में एक अच्छा अ्रध्ययन प्रस्तुत किया था | यह अध्ययन बहुत ही प्रोढ् एवं व्यवस्थित है | विद्वान लेखक प्रंचलित सभी मतों एवं धारणाओ्रों की पूर्ण समीक्षा करके स्वामी जी के सम्बन्ध में अपना निश्चित्‌ मत व्यक्त करता है | स्वामी जी के जीवन-इत्त के सम्बन्ध में बथ वाल जी को अगस्त्य संहिता? का साह्य पूर्णतया मान्य है | जन्म एवं मर्त्यु सम्बन्धी तिथियाँ भी प्रायः वही मान्य हैं ( सं० १३५६ वि०-- १४६७ वि० ) राधवानन्द के शिष्य होने के नाते रामानन्द, डा० बथ्‌ वाल के अनुसार, रामानुज परम्परा, से सम्तद्न तो थे, किन्तु पहले वे किसी अद्वैती गुरु के शिष्य थे बथ वाल के अनुसार स्वामी जी के ग्रन्थ दो प्रकार के मिलते हैं--'वैष्णवमताब्जमास्कर, हे ररामाचन-पद्धति? और आनन्द भाष्य? रामानन्द के वैष्णव मत की व्याख्या करते

अध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा ६९

हैं; श्रौर 'सिद्धान्त पटल”, योगचिन्तामणि? तथा 'रामरक्षा स्तोन्नः उन्हें योगमत में भी प्रभावित सिद्ध करते हैं किन्तु, इन ग्रन्थों में “श्री वेष्णवमताब्ज-भास्कर? तथा श्री रामाचनपद्धति? को ही डा० बथ्‌ वाल ने स्वामी जी कृत माना है, उन्होंने स्वामी जी कृत कुछ हिन्दी पदों का (सर्वांगी तथा दि ग्रन्थ? में प्राप्त) उल्लेख किया है| “भविष्य पुराण”? के साहुय पर डा० बथ्‌ वाल ने स्वामी जी को एक बहुत बड़ा समाज-सुधारक भी कहा है। उनके अनुसार स्वामी जी ने भक्ति, योग, और अद्वै वेदान्त की अनुपम संसृष्टि की थी |

डा० बर्थ बाल ने रामानन्द जी के निगुणी शिष्यों का समय भी निर्धारित किया है जनरल कर्निंघम के मत का समथन करते हुए, उन्होंने पीपा का तमय सं० १४१० से १४६० तक माना है इसी प्रकार कबीर का समय उन्होंने सं० १४२७ से सं० १५०४ वि० तक माना है। इसकी संगति स्वामी रामानन्द्‌ की मृत्यु तिथि सं० १४६७ बि० से पूरी रीति से ठीक बैठती है। श्री परशुराम चतुर्बेदी ने मी स्वामी जी सम्बन्धी उपयुक्त तिथियों को स्वीकार कर कबीर की तिथियों को उसी के अनुरूप निश्चित्‌ करने का प्रयास किया है जब तक कोई अ्रधिक प्रामाणिक सामग्री कबीर के रामानन्द्‌ का शिष्य होने के विरुद्ध नहीं मिलती अथवा सम्प्रदाय की रामानन्द* के सम्बन्ध में मान्य तिथियों को जब तक कोई अधिक प्रामाणिक सामग्री श्रमान्य सिद्ध नहीं कर देती तब तक कबीर आदि की तिथियों को स्वामी जी की तिथियों के मेल में मानने के अतिरिक्त और कोई तर्क संगत उपाय है ही नहीं। सारी परम्पराएँ: कबीर, पीपा, घना, रैंदास को स्वामी रामानन्द के शिष्य ही मानती आई हैं| इस दृष्टि से डा० बथ्‌ वाल की खोजों एवं उनके अनुमानों का मूल्य बहुत ही अधिक बढ़ जाता है

हिन्दी साहित्य की भूमिका--डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी |

डा० द्विवेदी ने अपने इतिहास तथा कबीर नामक पुस्तक में स्वामी रामानन्द के जीवन वृत्त के सम्बन्ध में कोई नवीन सामग्री नहीं उपस्थित की है। राघवानन्द के नाते वे रामानन्द को रामानुज-परम्परा से सम्बन्ध तो बतलाते हैं, पर उन्हें तात्विक दृष्टि से रामानुज का अनुयायी नहीं मानते | इस सम्बन्ध में वे फकुदर के मत से अधिक प्रभावित प्रतीत होते हैं फकहर ने पहले तो रामानन्द को दाक्िणात्य माना था, और इसके लिये उन्होंने दक्षिण में रामावत-सम्प्रदाय की भी कल्पना की थी और रामानन्द को इस सम्प्रदाय से सम्बद्ध कहा था। किन्तु डा० 'प्रियसन ने जब उनके लेखों का प्रतिवाद करते हुए. “अ्रगस्त्य संहिता? का साझ्चय॑ सामने रक्‍खा, तब फरक्कृहर ने अपने मत में कुछ परिवर्तेन कर दिया, फिर वे

६२ रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

राघवानन्द को ही दात्षिणात्य मानने लगे | फकहृर ने यह भी कहा कि रामानन्द- सम्प्रदाय में अगस्त्य संहिता! और श्रध्यात्म-रामायण? का पर्याप्त मान रहा है। अत: रामानन्द अद्वैत से अवश्य ही प्रभावित रहे होंगे डा० द्विवेदी इस मत पे सहमत से प्रतीत होते हैं। वे रामानन्द को संस्कृत के पश्डित तथा उच्चकुलोपन्न ( ब्राह्मण ) वो मानते हैं, पर उन्होंने कितने अन्थों की रचना की, उनमें कितने प्रामाणिक हैं और कितने अप्रामाणिक, इस सम्बन्ध में वे केवल शुक्ल जी द्वारा उद्धृत स्वामी जी इत अन्थों के नामों का उल्लेख कर उनसे अपना अ्परिचय द्दी प्रकट करते हैं | द्विवेदी जी के मत इस प्रकार केवल अनुमानाश्रित हैं, किसी पुष्ट आधार पर अवलम्बित नहीं |

स्वामी जी के शिष्यों के भी नाम कदाचित्‌ विल्सन के ही आधार पर दे “दिये गये | आशानन्द, परमानन्द, श्री आनन्द, महानन्द आदि रामानन्द के शिष्य थे, पता नहीं द्विवेदी जी ने किस प्रमाण पर इसे मान लिया ? भक्तमाल की प्रकाशित प्रतियों में ये नाम नहीं मिलते | इस सम्बन्ध सें विल्सन को भी अम हो गया था। वैरागी-परसपरा श्रथवा “अगस्त्य संहिता? में भी थे नाम नहीं मिलते | राधवानन्द से रामानन्द के विलग होने का कारण द्विवेदी जी ने वही दिया है, जिसे विल्सन ने अपने ग्रन्थ में प्रतिपादित किया है। द्विवेदी जी ने एक बात बहुत महत्त्वपूर्ण कही है, वह यह कि रामानन्द जी के मत में भक्ति ही सबसे बड़ी बात थी, तत्ववाद नहीं आनन्दभाष्य” के सम्बन्ध में वेष्णवदास तिवेदी 'के मत का उल्लेख करते हुए भी द्विवेदी जी उसकी प्रामाशिकता के सम्बन्ध में अपने विचार निश्चित रूप से प्रगट नहीं कर सके हैं | वे इसे प्रामाणिक रचना मानते हैं, क्योंकि इसे अ्प्रामाणिक सिद्ध करने के लिये अब तक प्रबल तक नहीं दिये गये हैं। द्विवेदी जी ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास ( हिन्दी साहित्वःउद्भव और विकास ) में रामानन्द सम्पदायान्तर्गत रसिक-सम्प्रदाय की भूल धारणाओं की अच्छी व्याख्या की है उसकी स्वसुखी तथा तत्सुखी शाखा पर भी उन्होंने प्रकाश डाला है, साथ ही कुछ प्रसिद्ध कवियों एवं उनकी कृतियों का भी उल्लेख उन्होने किया है | इस ग्रन्थ में द्विवेदी जी ने अपने रामानन्दी-सम्प्दाय सम्बन्धी श्रध्ययन को पहुत ही व्यवस्थित एवं व्यापक बनाने का प्रयास किया है। नवीनतम शोंधों का उन्होंने पूण उपयोग किया है | . उत्तरी भारत की सन्त परम्प्रा-श्री परशुराम चतुर्वेदी, एम० ए०, एल-एल बी० उत्तरी भारत की संत परम्परा? में लेखक का दृष्टिकोण रामानन्द

ग्रध्यन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा ६३

के सम्बन्ध में कोई नवीन मौलिक सामग्री प्रस्तुत करने का नहीं प्रतीत होता। उसने तो अपने समय तक की की गई खोजों को व्यवस्थित एवं संगठित करने का ही प्रयास किया है और वथासम्भव विभिन्न विरोधी मतों में समन्वय स्थापित करने की चेष्टा भी की है। उस पर स्पष्ट ही डा० फ़कहर, डा० ग्रियर्सन, सर मण्डारकर, विल्सन तथा अन्य सन्त साहित्य के विद्वानों की छाप है। इस प्रकार इस ग्रन्थ का महत्व केवल इस बात पर है कि रामानन्द के सम्बन्ध में विभिन्न समस्याश्रों पर प्रकाश डालते हुए लेखक ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अनुसरण कर एक तक संगत अध्ययन प्रस्तुत किया है ओर उसके द्वारा प्रस्तुत रूप रेखा : बहुत कुछ सत्य के निकट जान पड़ती है रामानन्द्‌ के, जीवन-ब्ृत्त के सम्बन्ध में डा० ग्रियसेन तथा भण्डारकर का अनुसरण करते हुए! लेखक ने “अ्रगस्त्य संहिता? के ही साक्ष्य को स्वीकार किया है | जन्म-स्त्यु सम्बन्धी तिथियां भी प्रायः वही हैं, जो इस सम्प्रदाय में मान्य हैं ( सं० ११५६ वि०-१४६७ वि० ) इसे टृष्टि में रख कर उसने रामानन्द के प्रिभत दि." की तिथियों की जांच की है। इसी प्रकार का दृष्टिकोण डा० बथ्‌ वाल ने भी अपनाया था। चत॒वेदी जी ने कबीर का काल सं० १४२५ वि० से सं० १५०१ वि० तक माना है, और इस प्रकार उनका रामानन्द का बहुत समय तक समकालीन होना वे सिद्ध करते हें, यद्यपि यह मत किसी हृढ़ता के साथ उन्होंने नहीं प्रगट किया हैं। सेन, रेदास, पीपा, तथा धना आदि का रामानन्द जी का मन्त्र-प्राप्त शिष्य होने में उन्हें संदेह है इन सन्‍्तों के सम्बन्ध में जो तिथियां उन्होंने दी हैं वे स्वामी जी के जीवन काल के मेल में नहीं आतीं | उनके अनुमान से सेन, विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के उत्तराद्ध एवं पन्द्रहवीं के पूवार्ध में बतमान थे, पीपा का जन्मकाल बि० १४६५० १४७५ वि० के मध्य था, रैदास का समय बिं० की १६ वीं शताब्दी के प्रायः श्रन्त॒ तक चला जाता दढँँ। इसी प्रकार धना भगत विक्रम की १६ वीं शताब्दी के प्रायः प्रथम या द्वितीय चरण तक रहे | ये सभी मत अनुमानाश्रित ही हैं, किसी दृढ़ प्रमाण पर आधारित नहीं | चतुर्वेदी जी का यह भी कहना है कि ये सभी सन्‍त समकालीन भी नहीं ज्ञात होते, उनमें से किसी के रामानन्द के शिष्य होने का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलता आगे चल कर हम इस मत की समीक्षा करने का श्रवसर पाएँगे, अतः यहाँ इस विवाद को छोड़ दिया जाता है | जो हो, चतुर्वेदी जी का अध्ययन बहुत ही पूर्ण है और इस दृष्टि से पर्याप्त महत्व रखता है। समस्त उपलब्ध सामग्री की पूर्ण समीक्षा करके इस ग्रन्थ की रचना की गई है, और श्रत्॒ तक इस विषय पर लिखे गये ग्रन्थों में इसका अद्वितीय स्थान है।

ध्ड रामानन्द सम्प्रदाय तथा हिंदी-साहित्य पर उसका प्रभाव

भागवत सम्प्रदाय--श्रीबलदेव उपाध्याय एम० ए.०, साहित्याचार्य | अपने ग्रन्थ 'भागवत-सम्प्रदाय” में पं बलदेव उपाध्याय जी ने 'रामावत सम्प्रदाय? प्र विशेष प्रकाश डाला है। विद्वान लेखक ने रामानन्द स्वामी की समकालीन धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर विस्तृत प्रकाश डालते हुये स्वामी जी के महत्व की बढ़ी ही सुन्दर प्रतिष्ठा की है। उनके अनुसार रामानन्द जी राघवानन्द जी के शिष्य थे, जिन्होंने उत्तर भारत में दक्षिण भारत से विष्णुभक्ति को लाकर प्रचारित किया था | लेखक ने “सिद्धान्त तन्मात्रा? को राघवानन्द जी की कृति के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने रामार्चन पद्धति तथा आचार्य शुक्ल द्वारा दिये गए तकों के साक्ष्य पर स्वामी जी का आचाय॑-काल पंद्रहवें शतक (१४५० ई०) के मध्यभाग के पीछे ही स्थिर किया है | ज्लेखक ने स्वामी जी के जीवन-वृत्त को भी उपस्थित करने का प्रयास किया है| इस सम्बन्ध में उन्होंने प्र“ग-दरिह्ाद तथा मौलाना रशीढुद्दीन कृत तज्ञकोर तुक फुकरा' का भी उल्लेख किया है, किन्तु खेद है विद्वान्‌ लेखक ने उनकी प्रामाणिकता की परीक्षा करने का कोई प्रयास नहीं किया है। लेखक ने श्री वैष्णुवमताब्जभास्क? के आधार पर स्वामी जी के मत एवं सिद्धान्तों का भी विवेचन किया है | स्वामी जी कृत हिंदी पदों एवं ग्रन्थों की चर्चा पर्यात् अन्वेषण के उपरान्त ही इस ग्रन्थ में की गई है। रामानन्द स्वामी के प्रमुख शिष्यों ( सेन, पीपा, रेदास, कबीर ) तथा रामा- नन्द सम्प्रदाय के प्रमुख व्यक्तियों ( अनन्तानन्द, कृष्णदास पयहारी, कील्ह ) के सम्बन्ध में भी विद्वान लेखक ने नया प्रकाश डाला है | वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण एवं रामचरित मानस का एक तुलनात्मक अध्ययन भी विद्वान लेखक ने प्रस्तुत किया है| इस प्रकार कुल मिलाकर यह गन्थ आवश्यक उपलब्ध समस्त सूचनाओं का संग्रह सा उपस्थित करता है | इस दृष्टि से यह प्रयास कम महत्त्वपूर नहीं है। कुछ अन्य गअन्थ--रामानन्द-सम्बन्धी अध्ययन को ठोस ढंग से सर्वप्रथम भर्डारकर महोदय ने ( वेष्णविज्म, शैविज्ष्म आदि ग्रन्थ में ) आगे बढ़ाया था | उन्होंने अगस्य संहिता? को प्रामाणिक मानते हुए. रामानन्द का जीवन बृत्त उपस्थित किया है। उनके निष्क्षों को और भी अधिक प्रामाणिक टंग से सर जाज ग्रियसन ने उपस्थित किया। ये दोनों ही विद्वान रामानन्द को उत्तर भारत ( प्रयाग ) में ही उसन्न मानते हैं | रामानन्द का समय इन दोनों ही के अनुसार विक्रम सं० १२५६-१४६७ बि० तक है| जी० ए.० नदेसन ने फ्राम रामानन्द्‌ रामतीथ? नामक अन्थ में प्रियसन के ही आधार पर रामानन्द का जीवन-बृत्त

ग्रध्ययन की सामग्री तथा उसकी परीक्षा ६५

उपस्थित किया है। कुछ दूसरे विद्वान्‌ रामानन्द को दाक्षिणात्य मानते हैं। सर्वप्रथम विल्सन ने अस्पष्ट शब्दों में दाक्षिणात्य राघवानन्द के साथ रामानन्द का सम्बन्ध जोड़ कर इस प्रकार